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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय’ को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देनेवाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ।
उनका बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम. ए. करते समय वे क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर फरार हुए और 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिए गये। सच माने तो अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। उन्होंने अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।
अज्ञेय की संक्षिप्त जीवनी
नाम | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय |
जन्म | 7 मार्च 1911 ई. |
जन्म स्थान | कुशीनगर, देवरिया(उत्तर प्रदेश) |
पिता का नाम | पंडित हीरानंद शास्त्री |
पत्नी का नाम | कपिला वात्स्यायन |
प्रमुख रचनाएँ | आँगन के पार द्वार, तार सप्तक |
प्रमुख पुरस्कार | साहित्य अकादमी(1964), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1979) |
निधन | 4 अप्रैल, 1987 ई. |
अज्ञेय जी की शिक्षा-दीक्षा
अज्ञेय की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देख रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ सम्पन्न हुई। वे 1925 में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिस्चन कॉलेज में दाखिल हुए। वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर 1927 में वे बी.एस.सी. करने के लिए लाहौर के फॅरमन कॉलेज के छात्र बने। 1929 में बी.एस.सी. करने के बाद एम ए में उन्होंने अंग्रेजी विषय रखाय पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ाव
अज्ञेय का जुड़ाव क्रांतिकारी गतिविधियों से हमेशा से ही रहा, इसी कारण से उन्हें 1930 से 1936 तक जेल में भी रहना पड़ा। वे 1936-37 में सैनिक और विशाल भारत नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। वे 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे। इसके बाद इलाहाबाद से प्रतीक नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। अज्ञेय जी ने देश-विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया।
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पत्र पत्रिकाओं का संपादन
उन्होंने दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का, संपादन किया। 1980 में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था।
पुरस्कार एवं सम्मान
1964 में आँगन के पार द्वार पर के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1979 में कितनी नावों में कितनी बार के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अज्ञेय का कविता संग्रह
भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए थे, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, पूर्वा (इत्यलम् तथा हरी घास पर क्षण भर), सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक पर छाया, प्रिजन डेज एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में) और ऐसा कोई घर आपने देखा है आदि।
कहानी-संग्रह
विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप ।
प्रसिद्ध उपन्यास
शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
यात्रा वृतान्त
अरे यायावर रहेगा बाद, एक बूंद सहसा उछली।
प्रमुख निबंध-संग्रह
सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्यरू एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध सर्जना और सन्दर्भ तथा केंद्र और परिधि नामक ग्रंथो में संकलित हुए हैं।
तारसप्तक का संकलन
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांवरा जैसे काव्य-संकलनों का भी, सम्पादन उन्होंने किया। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी संपादक हैं।
प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने यद्यपि कहानियां कम ही लिखीं और एक समय के बाद कहानी लिखना बिलकुल बंद कर, दिया, परंतु हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ देने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। निस्संदेह वे आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग के प्रवर्तक थे।
निधन वर्ष
4 अप्रैल, 1987 को अज्ञेय इस संसार से रूखस्त हो गये लेकिन उनकी कालमयी रचनाएँ उन्हें सदैव हिन्दी साहित्य का ध्रुवतारा मानेगा। प्रयोगवाद के प्रवतर्क सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय’ जी का नाम हिंदी साहित्य के सन्दर्भ में हमेशा-हमेशा तक याद रखा जायेगा।