चाँद से थोड़ी-सी गप्पें / Chand Se Thodi Si Gappe / श्री शमशेर बहादुर सिंह : आज के इस आर्टिकल में हम चाँद से थोड़ी-सी गप्पें कविता की व्याख्या और भावार्थ को पढ़ने जा रहें है। यह कविता कक्षा 6 में लगी हुई है तथा इस कविता से परीक्षा में सवाल अक्सर पूछे जाते है। इसलिए सभी बच्चों को इस कविता को अच्छे से समझ और पढ़ लेना चाहिए।
चाँद से थोड़ी-सी गप्पें
गोल हैं खूब मगर
आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा ।
आप पहने हुए हैं कुल आकाश
तारों – जड़ा; सिर्फ मुँह खोले हुए हैं अपना
गोरा-चिट्टा
गोल-मटोल,
अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त ।
कठिन शब्दों के अर्थ – खूब= बहुत अधिक। तिरछे = टेढ़े-मेढ़े। ज़रा = थोड़ा। कुल = सारा, संपूर्ण सिर्फ = केवल। पोशाक = वस्त्र। चारों सिम्त = सभी दिशाओं।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘वसंत’ भाग 1 में संकलित ‘चाँद से थोड़ी-सी गप्पें’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता श्री शमशेर बहादुर सिंह हैं। इन पंक्तियों में कवि ने आकाश को तारों से जड़ित चाँद के वस्त्र के रूप में वर्णित किया है।
सरलार्थ – एक दस ग्यारह वर्ष की बालिका चाँद को देखकर कहती है कि आप तो बहुत अधिक गोल हैं, परंतु आप थोड़े टेढ़े-मेढ़े दिखाई देते हैं। आपने सारे आकाश को अपना वस्त्र बनाकर पहन रखा है। आकाश में चमकते हुए तारे आपके वस्त्र पर जड़े हुए सितारे हैं। (हे चाँद!) आपका सारा शरीर वस्त्र से ढका हुआ है। केवल आपका गोरा, चिट्टा सुंदर गोल मुँह ही दिखाई पड़ता है। आपका आकाश रूपी वस्त्र सभी दिशाओं में फैला हुआ है।
भावार्थ – भाव यह है कि बालिका के अनुसार सारा आकाश चाँद का वस्त्र है, जिसमें तारे जड़े हुए सितारे हैं। चाँद का यह वस्त्र सभी दिशाओं में फैला हुआ है।
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खूब हैं गोकि!
वाह जी, वाह!
हमको बुद्ध ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है : आप पटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं।
कठिन शब्दों के अर्थ – नज़र = दिखाई। गोकि = हालांकि, यद्यपि। बुद्ध = बेवकूफ। निरा = पूरी तरह से ।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘बसंत’ भाग में संकलित ‘चाँद से वोड़ी-सी गप्पेंं’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता श्री शमशेर बहादुर सिंह हैं। इन पंक्तियों में बालिका ने चाँद के आकार में परिवर्तन को बीमारी माना है।
सरलार्थ – बालिका चाँद को देखकर कहती है कि आप थोड़े-से तिरछे दिखाई देते हैं। यद्यपि आप भी खूब हैं। वाह! आपने तो हमें पूरा बेवकूफ समझ रखा है जैसे कि हमें कुछ पता ही नहीं। हम भी आपको अच्छी प्रकार से समझ गए हैं। आप हमेशा एक समान नहीं रहते। आप जब घटते हो तो घटकर बिल्कुल ही पतले हो जाते हो। मैं समझती हूँ कि आपको घटने की एक बीमारी है।
भावार्थ – भाव यह है कि बाल-सुलभ कल्पना के कारण बालिका चाँद के घटने की क्रिया को उनकी बीमारी समझती है।
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं-
दम नहीं लेते हैं जब तक बिलकुल ही
गोल न हो जाएँ,
बिलकुल गोल ।
यह मरज़ आपका अच्छा ही नहीं होने में……..
आता है।
कठिन शब्दों के अर्थ – दम = साँस। बिल्कुल = पूरी तरह से। मरज़ = रोग, बीमारी।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘वसंत’ भाग 1 में संकलित ‘चाँद से थोड़ी-सी गप्पेंं’ नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता श्री शमशेर बहादुर सिंह हैं। इन पंक्तियों में बालिका द्वारा चाँद के दिन-प्रतिदिन बढ़ने की क्रिया को उनकी बीमारी बताने का वर्णन किया गया है।
सरलार्थ – लड़की चाँद को देखकर कहती है कि चाँद आप जब बढ़ते हैं तो लगातार बढ़ते ही जाते हैं। बढ़ते हुए आप तब तक साँस नहीं लेते जब तक कि आप पूरी तरह से गोल-मटोल न हो जाएँ। आपकी बढ़ने की यह बीमारी तो ऐसी है जो कभी भी ठीक होने को नहीं आती।
भावार्थ – भाव यह है कि बाल-सुलभ कल्पना के अनुसार चाँद के बढ़ने की क्रिया भी उनकी एक बीमारी है।