‘गोदान’ उपन्यास में प्रेमचन्द द्वारा प्रस्तुत नारी भावना की विवेचना PDF

1. गोदान उपन्यास में नारी भावना

संसार की सार्थकता उसकी गतिशीलता में है और संसार को गतिशीलता प्रदान करने वाले दो तत्त्व हैं-नारी और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के ये दोनों दो पहिए हैं। जैसे कोई रथ दो पहियों के बिना नहीं चल सकता, उसी प्रकार मानव की सृष्टि के ये दोनों आधार हैं जिनके बिना संसार नहीं चल सकता। सृष्टि का विकास इन दोनों पर आश्रित है। न तो एकाकी पुरुष सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम है और न अकेली नारी ही मानव जाति के सृजन में समर्थ है।

दोनों का समान महत्त्व होने पर भी भारतीय परम्परा में पुरुष को अधिक महत्त्व दिया गया है। चाहे वंश का नामकरण हो या संतति की पहचान, पुरुष की ही श्रेष्ठता मानी जाती है। संभवतः, इसलिए कि पुरुष कठोर तत्त्व है और नारी सृष्टि की मसृणता। इसी कारण इतिहास में यह ज्ञातव्य है कि शोषण सदा नारी का हुआ है, शोषक पुरुष रहा है। इतना अवश्य है कि नारी पुरुष की प्रेरणा रही है उसकी शक्ति के रूप में वह वेदों में जानी गयी है। प्राचीनतम युग में नारी की कितनी ही महत्ता रही हो, परन्तु मध्य युग में उसे पुरुष की वासना को शान्त करने का साधन मात्र माना गया है।

भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व ही पाश्चात्य प्रभाव भारत के समाज पर पड़ने लगा था और नारी के विषय में धारणाएँ बदलने लगी थीं। मुंशी प्रेमचन्द का उपन्यास ‘गोदान’ सन् 1936 में प्रकाशित हुआ था। उस समय समाज में नारी के विषय में हीन भावनाएं ही चली आ रही थीं। प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में प्रो. मेहता के माध्यम से नारी विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं तथा अपनी नारी भावना को व्यक्त किया है।

2. गोदान के नारी पात्र

‘गोदान’ उपन्यास प्रेमचन्द का एक सामाजिक उपन्यास है जिसमें नारी पात्रों की यथार्थ समायोजना की गयी है।

इन नारी पात्रों को दो परिवेशों में प्रमुख रूप से देखा जा सकता है- 1. ग्रामीण नारी पात्र 2. शहरी नारी पात्र।

ग्रामीण नारियों में धनिया जो होरी की पत्नी है तथा सोना जो होरी की बड़ी बेटी तथा मथुरा की पत्नी है। ये दोनों नारियाँ भारतीय आदर्श परम्परा से विवाहिता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रामीण आंचल में अधिकांश विवाह इसी प्रकार हुए हैं। इसके अतिरिक्त झुनिया बिधवा होकर गोवर से प्रेम-विवाह करती है।

सिलिया चमारिन होकर मातादीन ब्राह्मण की प्रेमिका बनकर रह जाती है। ग्राम में एक चमारिन को गोरी राम मेहता ने तथा एक ब्राह्मणी को झिगुरी सिंह ने रखेल बना रखा है जबकि झिगुरीसिंह के दो विवाहित पत्नियाँ हैं। होरी की दूसरी पुत्री रूपा का विवाह एक ऐसे वृद्ध रामसेवक से होता है जो होरी से कुछ ही छोटा होगा। एक विधवा कहारन कायस्थ पटेश्वरी की प्रेमिका बनकर रह जाती है। इस प्रकार ‘गोदान’ में ग्रामीण परिवेश इस प्रकार यथार्थ धरातल पर प्रस्तुत है जहाँ नारियों के विविध वैवाहिक सम्बन्ध या प्रेम सम्बन्ध प्रस्तुत किए गए हैं।

शहरी परिवेश में भी प्रायः नारियाँ वैवाहिक बन्धन में बंधी हुई हैं जिन्हें आदर्श पत्नी कहा जा सकता है। गोविन्दी मिल मालिक खन्ना की आदर्श पत्नी है। मीनाक्षी दिगविजय सिंह की धर्मपत्नी है जो पम्परागत भारतीय घरेलू जीवन व्यतीत करना चाहती है। परन्तु मालती की बहन सरोज से रायसाहब के पुत्र रूद्रपाल का प्रेम विवाह होता है। मालती मेहता से प्रेम विवाह करना चाहते हुए भी नहीं कर पाती।

इस प्रकार आलोच्य उपन्यास में प्रेमचन्द ने नारी के वैवाहिक जीवन को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करके उसमें सुधारवादी या परिवर्तनशील विचारधारा को रखा है। वे न तो भारतीय प्राचीन व्यवस्था के पक्षधर थे और न पाश्चात्य नारी स्वतंत्रता चाहते थे। ‘गोदान’ आदर्शवाद की भूमि पर निर्मित नहीं है, इसी कारण इसमें नारियों की विविधता की वास्तविकता को प्रस्तुत किया गया है।

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3. नारी का आदर्श रूप

प्रेमचन्द एक सुधारवादी उपन्यासकार थे। ये भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में ‘कलम के सिपाही’ बनकर आए थे। उन्होंने उस युग में नारी की दुर्दशा देखी थी जिस कारण अनमेल विवाह, विधवा विवाह, विजातीय विवाह, अवैध प्रेम सम्बन्ध आदि के आधार पर वे ‘गोदान’ में नारी सम्बन्धी विचारधारा को प्रस्तुत करते हैं। वे नारी के आदर्श रूप को विशेष रूप से दर्शनशास्त्र के ज्ञाता प्रो. मेहता के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।

अतः प्रेमचन्द का कथन है जो प्रो. मेहता द्वारा प्रस्तुत है-

“संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को में स्त्री कहता हूँ। मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आए, अगर में उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में गिर पडूंगा और उस पर अपने को अर्पण कर दूँगा।”

4. नारी दाम्पत्य जीवन का आधार

प्रेमचंद जी ने अपने उपन्यास में नारी को दाम्पत्य जीवन का आधार माना है; उनके अनुसार नारी अनेक गुणों से सम्पन्न तथा महान गुणों पर आचरण करने वाली होनी चाहिए। नारी का प्रमुख गुण उसका सौन्दर्य नहीं, बल्कि उसका चरित्र है। यदि वह सुचरित्रा है तो समाज में वंदनीय है, यदि दुश्चरित्र है तो समाज में निन्दनीय है।

इसी प्रकार पुरुष के लिए भी सच्चरित्र होना आवश्यक है। सच्चा सुख यदि नारी और पुरुष को प्राप्त हो सकता है तो उसका आधार है-आदर्श दाम्पत्य जीवन; जिसके लिए नारी को पतिव्रत धर्म अपनाना चाहिए और पुरुष को पत्नीव्रत शहरी जीवन में गोविन्दी एक ऐसी नारी है जिसमें पतिव्रत गुष्ण है, परन्तु उसके पति खन्ना में पत्नीव्रत नहीं है; वह मालती से प्रेम करना चाहता है।

अतः प्रेमचन्द कहते हैं-

“जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं; केवल एक बंधन में बँध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है।”

5. नारी का कर्तव्य

प्रेमचन्द ने नारी के कर्तव्यों को विशेष रूप से रेखांकित किया है। ये नारी को न तो अत्यन्त प्राचीन परम्परा के अनुसार चारदीवारी में रहकर पुरुष का खिलौना मात्र बनकर जीवन जीने वाली मानते थे और न पश्चिमी सभ्यता के अनुसार घर से बाहर रहकर स्वच्छन्द आचरण करने वाली स्वीकार करते थे। उनका दृष्टिकोण सर्वथा अलग था।

ये नारी का प्रमुखतम कर्तव्य सेवा करना मानते थे। मिर्जा का कहना या कि प्राचीन काल से नारियों के प्रति अत्याचार हुआ है जिसके कारण उन्होंने बगावत की है और अपनी स्वतंत्रता की इच्छा की है। मालती का भी यही कथन था कि पुरुषों ने सदा ही नारी का दुरुपयोग किया है। वे अपना अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग हो।

6. नारी और शिक्षा

प्राचीन युग में नारी के लिए शिक्षा आवश्यक नहीं रही होगी। प्रायः वे अशिक्षिता रहकर ही जीवनयापन करती रहीं। परन्तु भारत में जब पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव पड़ा तो नारी-शिक्षा पर बल दिया गया। पश्चिम में नारी-शिक्षा आवश्यक थी। मिस मालती और उसकी बहनें विदेश से शिक्षा प्राप्त करके आई थीं। मालती ने तो मेडिकल में डॉक्टर की डिग्री प्राप्त की थी।

वह प्रैक्टिस भी करती थी। उसका यहीं कथन था कि नारी को शिक्षित होना चाहिए। प्रो. मेहता भी नारी शिक्षा के विरोधी नहीं, उनकी दृष्टि से शिक्षा का अर्थ दफ्तरों और अदालतों, विद्यालयों और कार्यालयों में नौकरी करना नहीं। नारी शिक्षा प्राप्त करके यदि धनार्जन के लिए नौकरी करती हैं तो यह उनका अधिकार नहीं है यह उनके लिए अप्राकृतिक है, बिनाशकारी अधिकार है जो हिंसा को जन्म दे सकते हैं।

अतः प्रो. मेहता भाषण देते हुए कहते हैं-

“मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की ज़रूरत नहीं है। हैं, और पुरुषों से अधिक है। में नहीं कहता, देवियों को शक्ति की ज़रूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक है। लेकिन वही दिया और वही शक्ति नहीं जिससे पुरुष ने संसार को हिंसा क्षेत्र बना डाला। अगर यह दिया और वह शक्ति आप भी ले लोगी तो संसार विध्वंस बन जाएगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है।”

प्रेमचन्द की धारणा है कि नारी संसार का सृजन करती है और उसका पालन करती है। सृष्टि के निर्माण करने का कर्तव्य व उसको पालन-पोषण करने का दायित्व उसका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, यदि वे शिक्षा प्राप्त हों तो वे संतति को और अधिक सुन्दरता के साथ पालन-पोषण करने में सक्षम होंगी। विद्या विहीना नारी संसार के निर्माण में वह सहयोग नहीं दे सकती जो विद्यावती नारी के द्वारा संभव है।

7. नारी और प्रेम

सामान्यतः प्रेम का अर्थ मानव जीवन में, विशेषतः पुरुष और नारी के जीवन में, शारीरिक वासना ही माना जाता है जो कामुकता का पर्यायवाची बन गया है। प्रस्तुत उपन्यास में मिस मालती भी इसी प्रकार का प्रेम प्रो. मेहता से चाहती है। यह उन्हें अपनी वासना में डुबा देना चाहती है। वह प्रो. मेहता को कहती है कि तुमने मुझे परीक्षा की आंखों से देखा है प्रेम की आँखों से नहीं, जबकि नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। उसकी दृष्टि में परीक्षा गुणों को अवगुण व सुन्दर को असुन्दर बनाती है, जबकि प्रेम अवगुण को गुण बनाता है और असुन्दर को सुन्दर बनाता है।

मालती बार-बार प्रो. मेहता से यही शिकायत करती है। कि उसने प्रेम किया है। परन्तु प्रो. मेहता उसे प्रेम नहीं मानते। ये प्रेम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि प्रेम तीन प्रकार का होता है-आध्यात्मिक प्रेम, त्यागमय प्रेम और निःस्वार्थ प्रेम। इनमें ही प्रेमी प्रेमिका के लिए जीता है और आनंदित होता है। प्रो. मेहता का कथन है कि मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेमकथाएँ भी पढ़ी हैं जहाँ प्रेमी प्रेमिका के लिए समर्पित रहता है अपने को उसके चरणों में समर्पित कर देता है। कुछ ने तो अपने प्राण भी प्रेमिका के लिए न्यौछावर कर दिए। प्रो. मेहता उसे प्रेम नहीं कहते, बल्कि श्रद्धा कहते हैं।

प्रेम की व्याख्या करते हुए प्रो. मेहता कहते हैं-

“प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, प्रेम खूँखार शेर है जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।” वास्तव में प्रेमचन्द पश्चिमी सभ्यता के उपासक नहीं थे क्योंकि पश्चिम में नारी भोग-विलास की उत्तेजक मूर्ति बन कर रह गयी है। उसमें न लज्जा है, न गरिमा है और न त्याग। वे अपने रूप का, भरी हुई गोल बाहों। का या अपनी नग्नता का प्रदर्शन करती हैं।

उन्हें अपनी लज्जा की रक्षा करनी नहीं आती। यह तो नारी का पतन है। मालती की बहन सरोज इसका विरोध करती है वह कहती है कि पुरुष यदि अपने विषय में स्वतंत्र हो सकता है तो नारी को भी स्वतंत्र होना चाहिए। उसे विवाह के बन्धन में परम्परागत रूप में नहीं बंधना चाहिए, बल्कि प्रेम-विवाह करना चाहिए। परन्तु प्रेमचन्द प्रेम-विवाह को कामुकता मानते थे। अतः वे प्रो. मेहता के माध्यम से उत्तर देते हुए कहते हैं- “जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उदीप्त लालसा का विकृत रूप उसी प्रकार है जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है।”

8. नारी पुरुष से श्रेष्ठ

मानव जाति का पुरुष रूप कठोर है और नारी कोमल रूप है। प्रेमचन्द ने प्रो. मेहता के माध्यम से यह कहा है कि इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जितने भी दार्शनिक, वैज्ञानिक, आविष्कारक व बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं वे सभी पुरुष थे। योद्धा, राजनीति के खिलाड़ी, धर्म प्रवर्तक सभी पुरुष रहे हैं।

यह स्वीकार करके भी प्रो. मेहता प्रश्न करते हैं-

“महात्माओं और धर्म प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दन काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खण्डहर रह गये हैं और आविष्कारों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की रखी हुई संस्कृति में शान्ति कहाँ? सहयोग कहाँ ?”

गोदान उपन्यास में उन्होंने नारी के गुणों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है और उसके महत्त्व को स्वीकार किया है।वे यथास्थान कहते हैं-

(क) मेरे ज़हन में औरत बफा और त्याग की मूर्ति है।
(ख) संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ।
(ग) मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुषों के पद से श्रेष्ठ मानता हूँ।

इसमें संदेह नहीं कि पुरुष के पौरुष के समक्ष नारी का मसृणत्व बहुत महान् है। विशेष रूप से भारतीय परिवेश में नारी सदा सम्मान और श्रद्धा की पात्र रही है। उसने ही एक ओर अपने को पुरुष के लिए समर्पित किया है तो दूसरी ओर सन्तति के लिए त्याग, सेवा और बलिदान दिए हैं।

9. नारी और मातृत्व

नारी का सर्वोत्तम रूप उसका मातृत्व है। क्योंकि उसी के माध्यम से वह एक ओर संसार की सृष्टि में योगदान देती है तो दूसरी ओर वह अपना नारीत्व उसमें सफल समझती है वास्तव में प्रेमचन्द नारी के इसी रूप को श्रेष्ठ मानते थे। एक बार गोविन्दी अपने पति से बहुत दुखी थी, क्योंकि उसके पति मि. खन्ना को मिस मालती ने अपने प्यार के जाल में फंसा रखा था। यह प्रो. मेहता से यही प्रार्थना करती है कि वह उस मायादिनी से उन्हें छुड़ा दें। प्रो. मेहता गोविन्दी को एक आदर्श नारी मानते थे।

ये त्याग और सेवा की सच्ची मूर्ति ही नहीं थी, बल्कि आदर्श माता भी थी। वे गोविन्दी को समझाते हुए कहते हैं- ‘मातृत्व महान् गौरव का पद है देवी जी! और गौरव के पद में कहीं अपमान, धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला करता । माता का काम जीवनदान देना है।” प्रेमचन्द की दृष्टि माता जीवन प्रदान करती है। उसमें एक अतुल शक्ति है जिससे इस शक्ति का संचार है उसे किसी की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, चाहे कोई रूठे या बिगाड़ने का प्रयत्न करे उसे तो निश्चिन्त रहना चाहिए। अतः मेहता भी गोविन्दी को इसी प्रकार समझाता है कि उसका स्थान बहुत ऊँचा है। नारी केवल माता है, उसके उपरान्त वह जो कुछ भी है, वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है।

‘मातृत्व संसार में सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है।’ प्रो. मेहता इस बात का अनुभव करते हैं कि पश्चिम सभ्यता और भारतीय सभ्यता में पर्याप्त अन्तर है। पश्चिमी नारी स्वच्छन्द रहना चाहती है। वे इस माध्यम से विलासिता को महत्त्व देती है। परंतु भारतीय नारी कभी विलासिता और भोग को महत्त्व नहीं देती। प्रेमचन्द की दृष्टि में ‘हमारी माताओं का आदर्श कभी भी विलास नहीं रहा है।’

यही कारण है कि भारत में नारी का मातृत्व सदा से ही महनीय रहा है। प्रेमचन्द ही नहीं; बल्कि सभी महान पुरुषों ने नारी के मातृत्व रूप की सदा उपासना की है। प्राणीमात्र जन्मदात्री माँ का सदा ऋणी है और रहेगा। प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में नारी के मातृत्व पक्ष को श्रद्धा की दृष्टि से देखा है।

10. नारी का क्षेत्र

प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में नारी के क्षेत्र को पुरुष के क्षेत्र के समान नहीं माना है। वास्तव में प्रेमचन्द के समय पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव इतना अधिक हो चला था कि नारियाँ पढ़ लिखकर उन सभी क्षेत्रों में आना चाहती थीं जहाँ पुरुष वर्ग कार्य कर रहा है। निःसंदेह आज उन्होंने प्रायः पर्याप्त क्षेत्रों में अपना स्थान बना भी लिया है। परन्तु प्रेमचन्द इसके पक्षधर नहीं थे।

वे नारियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना, उस युग का कलंक मानते थे। उनकी दृष्टि में दोनों के क्षेत्र अलग-अलग रहे हैं, और रहेंगे। प्रस्तुत उपन्यास में ओंकारनाथ, मिर्जा, सरोज, मालती आदि मेहता के विचारों से सहमत नहीं थे। उनकी धारणा थी कि नारी के क्षेत्र को संकुचित नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें भी प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने का अवसर मिलना ही चाहिए। प्रेमचन्द ने प्रो. मेहता के माध्यम से नारी के क्षेत्र को पूर्व दशा में भी संकुचित नहीं माना है।

निष्कर्ष

इस प्रकार प्रेमचन्द ने समस्त उपन्यास में नारी भावना को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है। यद्यपि ‘गोदान’ उपन्यास में वे पर्याप्त रूप से यथार्थवादी रहे हैं, परन्तु नारी के विषय में उन्होंने जो कुछ विचार डॉ. मेहता के माध्यम से प्रस्तुत किए हैं- वे आदर्शवादी हैं। प्रायः विद्वान् आलोचकों की मान्यता रही है कि प्रो. मेहता में प्रेमचन्द का विचार पक्ष विद्यमान है। पाश्चात्य विचारधारा व नारी-शिक्षा का विचार उस समय समाज में आ चुका था।

प्रेमचन्द ने उस संदर्भ में अपनी विचारधारा प्रस्तुत करके यह स्पष्ट किया कि शिक्षा नारी के लिए अतीव आवश्यक है, परन्तु नारी का कार्य-क्षेत्र घर ही है, उसे बनाना, विकसित करना, सुन्दर संस्कार प्रदान करना आदि नारी के आदर्श हैं। यह त्याग, सेवा और प्रेम से संसार का उपकार कर सकती है। घर से बाहर निकलकर वह अपनी परम्परा से चली आ रही महत्ता को समाप्त करना चाहती है। भारतीय नारी सदा ही ममता, समर्पण, सेवा, प्रेम और त्याग की महानू आदर्श रही है। ये ही उसके लिए आज भी शोभाकारक गुण है। इसी में उसकी महत्ता, उच्चता, श्लाघनीयता, उदात्तता व शिवरूपता है।

Godan Upanyas Me Nari Bhavna PDF

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