हम पंछी उन्मुक्त गगन के कविता का सार
कविता में कवि ने पक्षियों के विषय में जानकारी दी है। पक्षी सदा खुले आकाश में उड़ते हैं तथा चहचहाते रहते हैं। वे कभी भी पिंजरे में बंद रहना पसंद नहीं करते। पिंजरे में बंद होने पर उनका स्वतंत्र रहने का स्वाभाविक रूप समाप्त हो जाता है। उन्हें तो बहता हुआ पानी पीना और वृक्षों पर लगे फल खाना ही अच्छा लगता है। यदि उन्हें पिंजरे में बंद कर देंगे तो बहता पानी और पेड़ की शाखा उनके लिए सपना बनकर रह जाएगी। उन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिए। ईश्वर ने उन्हें उड़ने के लिए पंख दिए हैं तो उन्हें पिंजरे में बंद नहीं करना चाहिए। उन्हें उड़ने के लिए उन्मुक्त गगन में छोड़ देना चाहिए।
Hum Panchhi Unmukt Gagan Ke Vyakhya
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ कक्षा सातवीं हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘वसंत (भाग-2)’ में संकलित कविता ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ से ली गई हैं। इसके कवि का नाम शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ है। कवि ने इनमें पक्षियों के आज़ाद रहने के स्वभाव के बारे में बताया है।
सरलार्थ – कवि पक्षियों के जीवन के विषय में बताता है कि वे सदा खुले आसमान में उड़ते हुए ही प्रसन्न रहते हैं। वे पिंजरे में बंद नहीं रहना चाहते। वे बंद होकर खुशी के गीत नहीं गा सकेंगे। यदि उन्हें बंद कर दिया जाएगा तो उनके पंख सोने से बने पिंजरे की सलाखों से टकराकर टूट जाएँगे।
विशेष – (1) पक्षियों का स्वभाव सदा स्वतंत्र रहना है।
(2) हमें पक्षियों को पिंजरे में बंद नहीं करना चाहिए।
(3) भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबौरी
कनक कटोरी की मैदा से।
सरलार्थ – कवि ने बताया है कि पक्षी तो सदा बहता हुआ पानी पीने वाले प्राणी हैं। पिंजरे में बंद कर देने से के भूखे-प्यासे मर जाएँगे। पिंजरे में बंद रहने पर उन्हें सोने की कटोरी में उत्तम भोजन खाने से स्वतंत्र रहकर नीम की कड़वी निबोली अच्छी लगती है। कहने का भाव है कि पक्षी स्वतंत्र रहकर खुश होते हैं।
विशेष – (1) कवि के कहने का भाव है कि कदी बनकर कुछ भी अच्छा नहीं लगता। स्वतंत्र रहकर कड़वी वस्तु भीअच्छी लगती है।
(2) पक्षी भी आज़ाद रहकर ही अपने जीवन को सुरक्षित रख सकते हैं।
(3) भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं।
तरु की फुनगी पर के झूले।
सरलार्थ – कवि ने पक्षियों के विषय में बताया है कि वे सोने की जंजीरों के बंधन में बँधकर उड़ने के अपने स्वाभाविक ढंग को मूल जाते हैं। वे पिंजरे में बंदी होकर पेड़ की सबसे ऊँची टहनी के झूले पर झूलने के केवल सपने ही देख सकते हैं।
विशेष – (1) बंदी होकर रहना पक्षियों की जरा भी पसंद नहीं है। इससे वे अपने उड़ने के ढंग को भूल जाएँगे
(2) पेड़ की सबसे ऊँची चोटी पर बैठना उनका सपना बनकर रह जाएगा।
(3) भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नीले नभ की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक अनार के दाने ।
सरलार्थ – कवि कहता है कि पक्षियों की खुले नीले आकाश में उड़ते रहने की इच्छा होती है। वे उड़ते-उड़ते आसमान की सीमाओं को छू लेना चाहते हैं। वे अपनी चोंच से अनार के दानों की भाँति आसमान में चमकने वाले तारों को चुगना छू चाहते हैं अर्थात् आकाश में खिले हुए तारों को स्पर्श करना चाहते हैं।
विशेष – (1) आकाश में दूर तक उड़ने की पक्षियों की इच्छा को दर्शाया गया है। वे अपनी इस इच्छा को स्वतंत्र रहकर ही पूरा कर सकते हैं।
(2) सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसों की डोरी।
सरलार्थ – कवि ने बताया है कि आसमान में उड़ते हुए पक्षियों का आसमान से मुकाबला होने लगता है। वे अपने पंखों के बल पर आसमान के अंतिम छोर को छू लेना चाहते हैं अर्थात् आसमान की अंतिम सीमा में पहुँच जाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि आसमान की सीमा को छू लेने से उनका आसमान से मिलन पूरा हो जाएगा। यदि वे आसमान के अंतिम छोर को नहीं छू सकते तो अपनी इस इच्छा को पूरा करने में उनकी साँसे उखड़ जाती हैं तथा कई बार अपनी इस इच्छा को पूरा करने में उनकी जान भी चली जाती है।
विशेष – (1) पक्षियों के उड़ने के सहज स्वभाव का वर्णन किया गया है।
(2) सरल एवं सहज भाषा का प्रयोग किया गया है।