जाग्रति निबंध – मुंशी प्रेमचंद | Jagriti Nibandh Summary in Hindi

जाग्रति निबंध

जीवन में जितना महत्त्व जागने का है उतना ही निद्रा का है। दोनों प्रक्रियाएं एक दूसरे की सहकर्मी हैं। फिर भी जाग्रति का महत्त्व निद्रा से अधिक है। इसमें कोई दो राय नहीं है। ये दोनों क्रियाएं एक दूसरे के समान्तर होती हैं तथा एक-दूसरे की सहायता करती हैं। जागना कर्म के लिए होता है तथा सोना विश्राम के लिए अर्थात् सोना और जागना दोनों अनिवार्य हैं। जाग्रति प्रगति का प्रतीक है तो सोना पतन का जागना अगर रज-प्रधान क्रिया है तो निद्रा में तम की प्रधानता होती है। कुछ विद्वान निद्रा को आवश्यक किया नहीं मानते। यह नियम तपस्वियों के लिए मान्य हो सकता परंतु सामान्य प्राणियों में यह नियम लागू नहीं किया जा सकता यानी अत्यधिक जागना और सोना दोनों कष्टदायक हैं। अतएव जब हम किसी राष्ट्र के विषय में बात करते हैं तो वहाँ की प्रजा का जागरूक होना अति आवश्यक है। राष्ट्र को जीवनोपयोगी बनाने के लिए उसमें अधिक से अधिक जागने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना होगा। जागना, जाग्रति और जागरण एक दूसरे पर्याय होते हैं।

जागृति का स्वरूप स्थिर करने के पूर्व जीवन के उद्देश्य को निश्चित करना लाजमी है। जैसे कोई वस्तु किसी प्राणी के लिए अमृत है वही दूसरे के लिए विष भी साबित हो सकती है। देश की प्राकृतिक स्थिति, जलवायु की विभिन्नता तथा परम्परा और संस्कार आदि प्राकृतिक भेद भी जागने और सोने जैसे प्रक्रियाओं को निश्चित करते हैं। हमें अपने मार्ग अपनी परिस्थितियों के अनुसार तलाशने होंगे। भारतीय संस्कृति सनातन है। हमें अपनी संस्कृति के अनुसार ही चलाना होगा। परिस्थिति और संस्कृति में समन्वय स्थापित करना होगा। हमारी संस्कृति कर्तव्य प्रधान, धर्म प्रधान, परमार्थ प्रधान तथा अहिंसा प्रधान संस्कृति है। इसमें व्यक्ति और समाज का सामंजस्य होता है। वस्तुतः व्यक्ति और समाज ये एक-दूसरे के सहायक हैं।

व्यक्ति के लिए धन और शौर्य की प्राप्ति राष्ट्र हित में लानी चाहिए। निर्बलों और बेसहारा पर रोब जमाने के लिए नहीं। ‘अहिंसा परमोधर्मः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम भारतीय संस्कृति के दो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं।

प्राचीन काल से ही हम इन तत्वों को अपनाते चले आते हैं। समय के चलते हमारी संस्कृति में दोष और बुराइयों का समावेश हो गया है विकृत तत्वों ने इसकी पहचान को नुकसान पहुँचाया है तथापि ये दोनों तत्व संस्कृति को प्रकाश स्तंभों की भांति प्रकाशवान बनाए हुए हैं।

अगर ये दोनों तत्व नहीं होते तो न जाने भारतीय संस्कृति कहाँ गुम हो गयी होती। वस्तुतः भारतीय संस्कृति अमर अजर है। हमारा विश्वास संघर्ष में नहीं सहयोग में है। 

ऐसा माना जाता है कि सिद्धान्त रूप में विश्व की सभी संस्कृतियाँ एक-सी हैं। उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। अहिंसा और प्रेम, पूर्व और पश्चिम दोनों संस्कृतियों के मूलाधार हैं। अगर कुछ अन्तर है तो केवल नयी और पुरानी संस्कृतियों में पश्चिम की पुरानी संस्कृति हमारी संस्कृति से ज्यादा भिन्न नहीं थी जब से पश्चिम में कला का प्रादुर्भाव हुआ वहाँ सहयोग का स्थान संघर्ष ने लिया संघर्ष का उद्गम स्थान पश्चिमी संस्कृति है। फलस्वरूप संघर्ष नामक पौधा समान जलवायु पाकर सम्पूर्ण विश्व में पनपने लगा। आज ईसाइयत अपनी मूल संवेदना से कोसों दूर है। उसमें दया और अहिंसा का कोई स्थान नहीं है। विदेश में कवि, दार्शनिक और वैज्ञानिक तो बहुत पैदा किये हैं परंतु त्यागी साधुओं की वहां सदैव कमी रही है। वस्तुतः त्याग, सेवा और प्रेम का वहां सदैव अभाव रहा है। रुपये और वैभव के लिए पश्चिम में अनेक लड़ाइयाँ लड़ी गयीं परंतु धर्म की लड़ाई कभी सुनने को नहीं मिली यूरोप में बार-बार क्रान्ति होना उनमें स्वार्थमय संघर्ष का पुख्ता सबूत है।

हमारी संस्कृति का मूल तत्व अहिंसा है पश्चिम की संस्कृति का मूलाधार संघर्ष है। पश्चिम की नसों में लहू के साथ संघर्ष भी बहता है। संसार में ऐश्वर्य को भोगने के लिए संघर्ष और संग्राम में हिस्सा लेना ही पड़ता है। अहिंसा से त्याग और संतोष पनपता है।

उसमें संग्राम की संभावना बहुत कम होती है। यहाँ अर्जुन और अशोक जैसे योद्धा जीतकर भी ग्लानि और विराग में डूब जाते हैं। अशोक जीतकर भी भिक्षु बन जाता है, धर्म के प्रचार-प्रसार में अपने जीवन को सार्थक बनाता है।

संघर्ष में गुटबन्दी होती है जो एक-दूसरे को नीचा दिखाने का तरीका है। और फिर धनबल से संघर्ष होता है वहाँ ज्ञानबल कमजोर पड़ जाता है।  राजा धन और वैभव में खोया रहता है। प्रजा के दुःखों से उसे कोई सरोकार नहीं। परंतु यहाँ राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा की सेवा और रक्षा करना है। वस्तुतः अत्याचार करने का उससे एहसास ही पैदा नहीं होता। इसके विपरीत पश्चिम में संघर्ष और लालच का बोलबाला है। मशीनों के लगातार आविष्कारों ने व्यवसायिकता की आँधी सी चला दी है। यही व्यवसायिकता पश्चिमी संस्कृति के लिए कलक समान है। इसके कुपरिणामों ने सम्पूर्ण मानव जाति को प्रभावित किया है। लघु उद्योगों और शिल्पकारों को खत्म किया है। इंसानियत पर पैसा हावी हो गया है। व्यावसायिक संस्कृति ने पश्चिम को शक्तिशाली बनाकर उसे सर्वोपरि बना दिया है और उसके अधीन पराधीन राष्ये को संख्या निरन्तर बढ़ती गयी है।

इसी व्यावसायिक संस्कृति ने अंग्रेजी शासन की जड़ें मजबूत की हैं। वहाँ दलगत राजनीति है। जिस राजनीतिक दल का बहुमत होता है वही राज करता है। प्रत्येक दल अपने-अपने बारे में सोचते हैं तथा राष्ट्र के कल्याण के लिए कोई कार्य नहीं करता है। इस प्रकार भ्रम और आपसी मतभेद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। परंतु जब राष्ट्र पर कोई संकट आता है तो सभी दलबन्दी को भूलकर एकमत हो जाते हैं, अन्ततः लेखक कहता है कि न केवल संकट के समय साधारणतः भी ये दल राष्ट्र हित में कार्य करें तो राष्ट्र का ज्यादा उपकार हो सकता है। किन्तु पश्चिमी संस्कृति में झगड़े और संघर्ष की मनोवृत्ति है। वस्तुतः वहाँ मिलकर काम नहीं होता जो राष्ट्र के लिए अहितकारी पहलू है।

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