मानसिक पराधीनता निबंध का सार | Mansik Paradhinta Nibandh Saar

मानसिक पराधीनता निबंध का सार

प्रस्तुत निबन्ध में मुंशी प्रेमचन्द बताते हैं कि आजादी प्राप्त करने से पूर्व हमें मानसिक पराधीनता से छुटकारा पाना होगा। वे मानते हैं कि हम दैहिक पराधीनता से तो मुक्त होना चाहते हैं, परंतु मानसिक पराधीनता में स्वयं जकड़ते जा रहे हैं। किसी देश की संस्कृति उसकी मूल्यवान धरोहर होती है। किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म की भाषा, सभ्यता, विचार और संस्कृति उसकी पहचान होते हैं। वैसे तो हिन्दू और मुसलमान दोनों अपनी-अपनी सभ्यता में एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मिश्रण नहीं करना चाहते। परंतु असल में वे स्वयं अपनी अपनी संस्कृति को विकृत कर रहे हैं।

किसी भी राष्ट्र के धार्मिक विचार, सामाजिक रूढ़ियों, राजनीतिक सिद्धान्त, भाषा, साहित्य, रहन-सहन, आचार-व्यवहार सभी उसकी संस्कृति के अंग होते हैं। लेखक परेशान है कि आज हम स्वयं अपनी संस्कृति की जड़ें काट रहे हैं। पश्चिमी संस्कृति जिसको देखकर हमें यह भ्रम होने लगता है कि उसमें केवल गुण ही गुण हैं और हमारी संस्कृति जिसमें केवल दोष ही दोष हैं। इस भ्रमवश अपनी संस्कृति को लगातार भूलकर विदेशी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं।

अगर भाषा की बात करें तो हम अंग्रेजी भाषा को सभ्य समाज की व्यावहारिक भाषा मानने लगे हैं। दफ्तरों और फाइलों में तो वह पूरी तरह रच बस गयी है अपितु हम पत्र व्यवहार में भी अंग्रेजी भाषा को प्रयोग में लाने लगे हैं। वार्तालाप अंग्रेजी में करते हैं। सभाओं की भाषा अंग्रेजी होती है। लोग बहुत खुश होते हैं कि वाह! क्या भाषा है। क्या लोच है। कितनी मार्मिकता, विचारपूर्ण शब्द भण्डार, बहुमूल्य साहित्य, कविता कितनी मर्मस्पर्शनी, गद्य कितना अर्थबोधक। जिसे देखो अंग्रेजी भाषा पर लट्टू उसके नाम पर कुर्बान है। यहाँ तक कि हमारी योग्यता और विद्वता की परख केवल अंग्रेजी भाषा रह गयी है। बचपन से ही बच्चों को अंग्रेजी ‘भाषा में बोलने के लिए कहा जाता है। हद तो तब हुई जब हम देखते हैं कि अंग्रेज अपनी ही भाषा में अपनी बात कहता है परंतु हम आपस में ही अंग्रेजी बोलकर अपनी मानसिक दासता का ढिंढोरा पीटते हैं। यह हमारे शिक्षित समुदाय के लिए न केवल लज्जाजनक बल्कि शोकजनक मानसिक गुलामी है। लेखक व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए कहते हैं-

“वाह री भारतीय दासता, तेरी बलिहारी है।”

अब अगर वेशभूषा की बात करें तो जो लोग तन से भारतीय है परंतु वेशभूषा से विदेशी लगते हैं। वस्तुतः वे हमारे हिन्दुस्तानी यूरोपियन हैं। वे विदेशी वेशभूषा पहनकर सिर से पाँव तक विदेशी लगते हैं। यानी ऊँचे दरजे के गुलाम नजर आते हैं। कुछ बचकाने लोगों का मानना है कि अंग्रेजी कपड़े पहनकर आदमी ज्यादा चुस्त एवं फुर्तीला हो जाता है। परंतु क्या अंग्रेजी कपड़ों में कोई जादू हैं जिन्हें पहनने से शरीर चुस्त हो जाता है। लेखक का मानना है कि हमें अपनी वेशभूषा में भारतीयता लानी चाहिए। अभिप्राय यह है कि शिक्षित समाज केवल अपनी विशिष्टता या प्रभुत्व जताने के लिए ऐसी विदेशी वेशभूषा को व्यवहार में न लाये जिसमें विदेशीपन की बू आती हो। वस्तुतः हमें मन से ही विदेशी वेशभूषा को हटाना होगा तभी हम सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो सकते हैं।

पश्चिमी सभ्यता ने हमारी पारिवारिक व्यवस्था को भी प्रभावित किया है। हमारी सभ्यता में परिवार एक संस्था है जिसमें अनेक सदस्य एक दूसरे का सहयोग करते हुए जीवनयापन करते हैं। पश्चिमी सभ्यता में परिवार का अर्थ है- केवल स्त्री और पुरुष जहाँ हमारी संस्कृति में सेवा और त्याग प्रधान है वहीं पश्चिमी संस्कृति में स्वार्थ और संकीर्णता प्रधान है। जो स्थान हमारी संस्कृति में विनम्रता को प्राप्त है वही यहाँ आत्मप्रशंसा का है। धन यहाँ गौण है जबकि पश्चिम में धन प्रमुख है। हम धन भी कमाते हैं तो दया के साथ। पश्चिम में धन और दया का कोई मेल नहीं। हमारी सभ्यता का आधार अगर धर्म है तो पश्चिम में संघर्ष का बोलवाला है।

वस्तुतः लेखक के कहने का अभिप्राय यह है कि हम पश्चिम की प्रत्येक प्रवृत्ति को आँख मूँद कर ग्रहण में करें। अगर हम ऐसा करते हैं तो वह हमारी मानसिक पराधीनता का प्रमाण है। भारतीय सभ्यता में भी दोष हो सकते हैं परंतु इसका समाधान पश्चिमी सभ्यता के पास नहीं। इसका समाधान हमें अपनी संस्कृति में भी खोजना होगा। यूरोपीय सभ्यता के प्रयोग से हम अपनी संस्कृति को विकृत बना रहे हैं। यूरोप पथभ्रष्ट है, उसे लक्ष्य का ज्ञान नहीं और हम उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं। यही हमारी मानसिक पराधीनता की निशानी है। अगर इन्हीं परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के चलते हमने अपने अस्तित्व को खो दिया, धर्म की सत्ता को विकृत किया तो हम अपनी संस्कृति और सभ्यता को खत्म कर देंगे। हमारे ही हाथों हमारा अन्त हो जाएगा। वस्तुतः हमें मानसिक पराधीनता की जंजीरों को तोड़ना ही होगा।

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