मुंशी प्रेमचंद की कहानी कला की प्रमुख विशेषताएं और भाषा शैली

मुंशी प्रेमचंद का जन्म सन् 1880 में बनारस के निकट स्थित लमही नामक गाँव में हुआ था। इनका परिवार एक साधारण कायस्थ परिवार था इनका वास्तविक नाम धनपतराय था। इनके घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। इनके पिता डाक विभाग में लिपिक थे। इनकी माता अस्वस्थ रहती थीं। पाँच वर्ष की आयु में वे माता-विहीन हो गए।

14 वर्ष की आयु में पिता का साया भी इनके सिर से उठ गया। परिवार का सारा भार उनके कंधों पर आ पड़ा। 16 वर्ष की आयु में ही इन्हें अध्यापक की नौकरी करनी पड़ी। नौकरी के दौरान ये डिप्टी इंस्पेक्टर के पद तक पहुंचे। वे स्वभाव से स्वाभिमानी एवं देशभक्त थे इसलिए इन्होंने सन् 1920 में नौकरी से त्यागपत्र दे दिया तथा गाँधी जी के आह्वान पर राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। इन्होंने जीवन भर साहित्य-सेवा की। इन्होंने आजीविका के लिए स्वतंत्र लेखन को अपनाया तथा मुद्रणालय भी चलाया जीवन-संघर्ष करते हुए सन् 1956 में इनका देहांत हो गया। 

प्रमुख रचनाएँ

मुंशी प्रेमचंद ने आरंभ में उर्दू में लिखना शुरू किया था तथा बाद में हिंदी में लिखने लगे थे। इन्होंने ‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गवन’, ‘निर्मला’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘गोदान’ आदि ग्यारह उपन्यासों की रचना की है तथा तीन सौ के लगभग कहानियाँ लिखी है जिनमें ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, नमक का दारोगा आदि प्रमुख कहानियाँ हैं।

कर्बला’, ‘संग्राम’, ‘प्रेम की देवी’ इनके प्रमुख नाटक हैं। कुछ विचार, विविध प्रसंग इनके प्रमुख निबंध-संग्रह हैं।

कहानी कला की विशेषताएँ

मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कहानियाँ ‘मानसरोवर (आठ भागों में संकलित हैं। वे कहानी के क्षेत्र, परिणाम और कहानी कला की दृष्टि से अपने युग के सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वप्रमुख कहानीकार हैं। इन्होंने अपनी कहानियों में जीवन के विभिन्न पहलुओं का सूक्ष्म विवेचन किया है। इनकी कहानी कला की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(i) विषय की विभिन्नता मुशी प्रेमचंद की कहानियों के वर्ण्य

विषय अत्यंत विस्तृत हैं। इन्होंने जीवन के लगभग सभी पालुओं पर लेखनी चलाई है। इनकी कहानियों के विषय की व्यापकता को देखते हुए डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है–प्रेमचंद शताब्दियों से पद-दलित, अपमानित और शोषित कृषकों की आवाज़ थे। पर्दे में कैद, पद-पद पर लाँछित, अपमानित और शोषित नारी जाति की महिमा के वे जबरदस्त वकील थे, गरीबों और बेकसों के महत्व के प्रचारक थे।” अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख और सूझ-बूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। इनकी कहानियों में तत्कालीन समाज का सजीव चित्र देखा जा सकता है।

(ii) गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव

मुंशी प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य पर गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस विषय में प्रेमचंद जी स्वयं लिखते हैं-मैं दुनिया में महात्मा गाँधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका उद्देश्य भी यही है कि मज़दूर और काश्तकार सुखी हों। महात्मा गाँधी हिंदू-मुसलमानों की एकता चाहते हैं। मैं भी हिंदी और उर्दू को मिलाकर हिंदुस्तानी बनाना चाहता हूँ।” यही कारण है कि प्रेमचंद की कहानियों में गाँधीवादी विचारों की झलक सर्वत्र देखी जा सकती है। उनके पात्र गाँधीवादी आदर्शों पर चलते हैं और उनका समर्थन करते हैं। 

(iii) मानव-स्वभाव का मनोविश्लेषण

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में जहाँ अपने पात्रों के बाह्य आकार व रूप-रंग का वर्णन किया है, वहीं उनके मन का भी सूक्ष्म विवेचन व विश्लेषण किया है। ये मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुक्त कहानी को उत्तम मानते थे। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के विषय में इन्होंने लिखा है- “वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है।”

(iv) ग्राम्य-जीवन के प्रति सहानुभूति

प्रेमचंद जन-जीवन के कथाकार थे। इन्होंने कथा-साहित्य को जन-जीवन से जोड़ने का महान कार्य किया है। इन्होंने ग्राम्य-जीवन के प्रति अपनी विशेष सहानुभूति थे। कहोंने कथा ने अपनी कहानियों में गाँवों के गरीब किसानों, काश्तकारों, मजदूरों, दलितों और पीड़ितों के प्रति विशेष संवेदना दिखाई है। इनके जीवन की विभिन्न समस्याओं को अभिव्यक्त किया है।

(v) पात्र एवं चरित्र-चित्रण

मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में पात्रों का चरित्र-चित्रण और पात्रों के चरित्र का विकास प स्वाभाविक रूप में किया गया है। उनके अधिकांश पात्र वर्ग-पात्र है। वे किसी न किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए देखे जा सकते हैं। इनके पात्र अपने वर्ग के सुख-दुःख, राग-विराग आदि सभी स्थितियों में उसका प्रतिनिधित्व करते हुए पाए जाते हैं। पात्र का चरित्र-चित्रण अत्यंत सजीव एवं मनोवैज्ञानिक है।

(vi) आदशोन्मुखी यवार्थबाद

मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में आदर्श और पदार्थ का अदभुत समन्वय है। वे यथार्थ का चित्रण करते हुए सदा आदर्श पर दृष्टि रखते हैं। उनकी स्पष्ट धारणा है कि साहित्यकार को नालताओं का पोषक न बनकर मानवीय स्वभाव की उम्ज्वलताओं को दिखाने वाला होना चाहिए। उन्होंने समाज की विभिन्न समस्याओं के समाधान में आदर्श को अपनाया है।

प्रेमचंद की कहानियों की भाषा-शैली

प्रेमचंद अपनी सरल, सरस और साहित्यिक भाषा के लिए सुप्रसिद्ध हैं। इन्होंने लोकभाषा को ही थोड़े सुधार के साथ साहित्य का रूप दे दिया है। प्रेमचंद उर्दू से हिंदी लेखन में आए थे। इसलिए उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का भी सार्थक एवं सटीक प्रयोग हुआ है। मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग इनकी भाषा में देखते ही बनता है।

सुक्तियों के प्रयोग के लिए वे बेजोड़ हैं। प्रेमचंद जी ने अपनी कहानियों में भावानुकूल एवं पात्रानुकूल भाषा का सफल प्रयोग किया है। पात्र जिस मानसिक अवस्था और शैक्षिक स्तर का होता है, उसी के अनुसार शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कहानी में संवाद-योजना करके इन्होंने नाटकीयता के गुण का भी समावेश कर दिखाया है।

प्रेमचंद जी की भाषा मार्मिक एवं हृदय को छू लेने वाली है। करने में इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त है। इनमें प्रेरणा देने की शक्ति के साथ-साथ पाठक को चिंतन में लीन करने की भी अद्भुत क्षमता है। इन गुणों के आधार पर हम उन्हें हिंदी कथा साहित्य का महान लेखक एवं सम्राट कह सकते हैं। 

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