नवीन और प्राचीन निबंध – मुंशी प्रेमचंद | Naveen Aur Prachin Nibandh Summary

नवीन और प्राचीन निबंध

नवीन और प्राचीन नामक निबन्ध में लेखक नयी तथा पुरानी संस्कृति की चर्चा करते हैं कि भारतीय एवं यूरोपीय संस्कृति में कोई विशेष अन्तर नहीं था। चूंकि भारतवर्ष एक दीर्घावधि तक यूरोप का गुलाम रहा इसलिए काफी हद तक यूरोपीय संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया। प्रभाव के फलस्वरूप जो बातें हमने यूरोपीय संस्कृति से सीखीं आधुनिक समाज में यह पश्चिमी संस्कृति के रूप में पहचानी जाती हैं। पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध ने हमें वर्षों तक प्रभावित किया। उसकी चटक मटक ने हम पर ऐसा जादू किया कि हमारी सरलता और सुन्दरता को हमारी ही नजरों में कमतर कर दिया।

हमारी संस्कृति के अनुसार पुराने समय में हमारा कोई मित्र या संबन्धी हमारे घर बेरोक-टोक आ सकता था। हम उसे अपने घर देखकर खुश होते थे उसका तहेदिल से सत्कार करते थे। यह विचार हमसे कोसों दूर था कि उसने हमारे घर आकर हमारा समय नष्ट किया है। मित्र का सत्कार रुपये से बड़ी चीज था। परंतु आधुनिक परिवेश में हम प्रत्येक वस्तु रुपये की तराजू में तौलते हैं, इसलिए किसी का घर आना हमें जहर लगता है, अतिथि को हम बोझ समझने लगे हैं। हमें रुपये के आगे मनुष्यता, सहानुभूति, अपनापन और विनोद प्रियता बौने नजर आने लगते हैं। रुपये ने मनुष्य को विचार एवं सहानुभूति शून्य बना दिया है। पश्चिमी सभ्यता ने इंसानियत का गला घोंटकर उसे स्वार्थी बना दिया है और हम निरन्तर स्वार्थी बनते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति मेहमान के आगमन पर फूली नहीं समाती थी। अतिथि सत्कार में उसे आनन्दानुभूति होती थी। हम उसकी खातिरदारी में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते थे। सबसे बढ़िया बिस्तर अतिथि के लिए होता था। सबसे बढ़िया खाना अतिथि के लिए। सारा घर परिवार अतिथि सेवा में लगा हुआ होता था। पश्चिमी सभ्यता ने मेहमान घर आने पर हमें हमारे दरवाजे बन्द करने पर मज़बूर किया है।

मेहमान आगमन पर हमारे प्राण सूख जाते हैं। अतिथि अभी आया ही नहीं उसको वापस कैसे भेजा जाए यह तरीका पहले ढूंढ लिया जाता है। परिवार मुखिया का चेहरा उतर जाता है। गृह स्वामिनी की आँखें गुस्से से लाल हो जाती हैं। सारा घर अमंगल की कामना में डूब जाता है। मेहमान के पास बैठने का समय किसी के पास नहीं। कोई बीमार हो जाता है तो कोई बाहर जाने का बहाना करने लगता है। जिस दिन मेहमान घर से विदा होता है जैसे पूरे परिवार के लिए नया दिन होता है। हम स्वार्थी और निकम्मे हो गए हैं। अगर वही मेहमान हमारी आर्थिक सहायता के लिए आया है तो सारा परिवार उसकी आवभगत में लग जाता है। रुपये ने हमें निकम्मा बना दिया है। मजे की बात यह है कि यह प्रवृत्ति ग्रामीणों में बहुत कम पायी जाती है। शिक्षित और अपने आप को सभ्य समझने वाले समाज में यह कुप्रवृत्ति तीव्रता से घर कर रही है। वे केवल अपने लिये जीते हैं। परंतु लेखक यह कहना भी नहीं भूलता कि पुराने जमाने में कुछ बेफिक्रे और निक्कमे, मेहमान बनकर महीनों तक दूसरों की रोटियों खाते थे, परंतु वहाँ भी सज्जनता बाकी थी। इस नयी संस्कृति में कोरा स्वार्थ है कोरी तंगदिली है।

खुदगर्जी पश्चिमी संस्कृति का दिया हुआ दूसरा जहर है। केवल अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को पैरों तले रौंदना आधुनिक प्रवृत्ति है जो पश्चिमी संस्कृति की देन है। आधुनिक मनुष्य में न हृदय है न कोमलता न सत्कार है न अपनापन। चारों तरफ स्वार्थ का साम्राज्य है। हमारा हँसना-बोलना, रोना, गाना कुछ भी स्वार्थ से खाली नहीं है। प्राचीन संस्कृति में रोगी की सेवा करना डॉक्टर अपना कर्तव्य एवं धर्म समझता था। अब फीस बगैर नब्ज नहीं पकड़ता। वकील और अध्यापक पुराने जमाने में भी होते थे।

अध्यापक निःशुल्क शिक्षा प्रदान करता था। शिक्षा-दान ही उसका सबसे बड़ा धर्म था। आज वह भी स्वार्थी हो गया है। उसकी इच्छाएँ उसके बाद में नहीं। पश्चिमी गुरु ने उसे भी यह पाठ पढ़ा दिया है। अब साधु लोग बिना रुपये लिये आशीर्वाद नहीं देते। पहले बुद्धि और सिद्धि का कार्य सेवा और परोपकार था परंतु अब केवल स्वार्थ सिद्धि है। लेखक के अनुसार वाह रे पश्चिम। तेरी लीला ईश्वर की लीला से भी विचित्र है। क्या वे दिन फिर कभी आयेंगे, जब पुरानी संस्कृति कर अभ्युदय होगा। उस संस्कृति जिसमें गरीबी कलंक न थी। क्या आशा है।”

Also Read:
मानसिक पराधीनता निबंध का सार
बच्चों को स्वाधीन बनाओ निबंध सार

Leave a Comment