पंच-परमेश्वर कहानी का सारांश
सन् 1915 में प्रकाशित ‘पंच-परमेश्वर’ मुंशी प्रेमचंद की सुविख्यात कहानी है। आलोच्य कहानी एक आदर्शवादी कहानी है। इसका सार इस प्रकार है-
जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में बचपन से ही गहरी मित्रता थी। दोनों को एक-दूसरे पर पूरा विश्वास था। जुम्मन शेख की एक बूढ़ी मौसी थीं। उसके पास कुछ थोड़ी-सी जमीन थी। उसका अपना कोई निकट संबंधी नहीं था। जुम्मन ने मौसी से लम्बे-चौड़े वादे करके वह जमीन अपने नाम लिखवा ली। जब तक जमीन की रजिस्ट्री नहीं हुई जुम्मन के साथ उसके परिवार ने भी मौसी का खूब आदर-सत्कार किया। उसे खूब स्वादिष्ट भोजन बनाकर खिलाए। जैसे ही रजिस्ट्री पर मोहर लगी तो खातिरदारियों पर भी मोहर-सी लग गई।
जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वीं बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। अब वे बुढ़िया के मरने का इंतजार करने लगे। जब बुढ़िया ने इस बारे में जुम्मन से शिकायत की तो उसने उसकी शिकायत पर कोई ध्यान न दिया। मौसी बिगड़ गई और उसने जुम्मन को पंचायत की धमकी दी। पंचायत में किसकी जीत होगी जुम्मन खूब जानता था। उसे पता था कि इलाके में कौन उसका ऋणी नहीं इसलिए पंचायत जब होगी तो फैसला मौसी के पक्ष में न सुनाकर मेरे पक्ष ही में सुनाएगी।
कई दिन बुढ़िया इलाके के गांवों में दौड़ती रही। आखिर संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पंचायत का खूब आदर-सत्कार किया। जब पंचायत में कोई आता था, तो दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करता था। निमंत्रित महाशयों में से केवल वही पंचायत में पधारे, जिन्हें जुम्मन से कुछ पुरानी कसर निकालनी थी। पंच लोग बैठ गए, तो बूढ़ी मौसी ने प्रार्थना की “पंचो, आज से तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी।
जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी कपड़ा देना कबूल किया। साल भर मैंने इसके साथ रो धोकर काटा। अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है, न तन का कपड़ा बेबस बेवा हूँ तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुःख सुनाऊ? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूँ। मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊँगी।”
पंचायत में बैठे पंचों में से मौसी ने अलगू चौधरी को सरपंच नियुक्त किया। दोस्त को सरपंच बनते देखकर जुम्मन खुश हुआ। उसे आशा थी कि उसका पक्का मित्र उसके पक्ष में ही फैसला सुनाएगा। आखिर अलगू चौधरी ने फैसला सुनाया
“जुम्मन शेख : पंचों ने इस मामले पर विचार किया- उन्हें यह नीति संगत मालूम होती है कि खाला जान को माहवार खर्च दिया जाए। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्बा नामा रद्द समझा जाए।”
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यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गया। लोगों ने अलगू चौधरी की इस नीति परायणता की दिल खोलकर प्रशंसा की। जुम्मन के मन में मित्र की कपटता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।
लेखक के अनुसार, “अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है; पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती; जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्दी ही मिल गया।”
पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक अच्छी जोड़ी मोल लाया था। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने बाद ही इनमें से एक बैल मर गया। जुम्मन ने भी अपने दोस्तों से कहा, “यह दगाबाजी की सजा है। अलगू को संदेह था कि जुम्मन ने बैल को जहर दिया है। दोनों की पत्नियों में छिड़ गया। आखिर जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की।
अलगू ने उस अकेले बैल को समझू साहू के पास बेच दिया। साहू ने नए बैल से खूब काम लिया। यह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगा। न चारे की फिक्ल थी, न पानी की। बेचारे जानवर ने अभी दम भी नहीं लिया फिर जोत दिया। महीने भर में ही वह पिस-सा गया। इक्के का जुमा देखते ही उसका खून सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। वह दिनों-दिन कमजोर होता गया। उससे अब गाड़ी नहीं खिंचती थी, परंतु साहू उसे खूब पीटा करता था।
एक रात माल लेकर शहर से लौट रहा था। दिन भर थका जानवर, पैर न उठता था। पर साहू जी कोड़े बरसाने लगे। अब वह पैर न उठाता था आधी रात हो गयी। साहू ने चिलम पी। आखिर उनको नींद आ गयी। पौ फटते ही देखा कि आधा सामान गायब। अफसोस के मारे साहू सिर पीटने लगा और रोते-बिलखते घर पहुँचा। सुनते ही सहुआइन रोयी और फिर अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगी।
इस घटना को कई महीने बीत गए। जब अलगू ने अपने बैल के रुपये मांगे तो साहू तथा उसकी पत्नी उस पर झल्लाकर कुत्ते की तरह चढ़ गए। गालियाँ देने लगे। चौधरी के शुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र होकर साहू जी के बराने की पुष्टि करते। डेढ़ सौ रुपए इस प्रकार छोड़ना आसान नहीं था।
चौधरी भी अब गर्म हो गए। साहू लाठी लाने दौड़े। प्रश्नोत्तर के बाद हाथापाई की नौबत आ पहुँची। लोगों ने दोनों को समझाया। उन्होंने परामर्श दिया कि इस तरह झगड़ने की बजाय पंचायत बुलवायी जाए। जो भी तय होगा, स्वीकार करना होगा। साहू जी राजी हो गए। अलगू ने भी हामी भर ली।
वाकयुद्ध तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी संध्या का समय था पंचों का चुनाव हो गया। उनमें जुम्मन शेख भी था। जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक-धक करने लगा। अलगू ने अपनी बात कही और साहू ने अपनी बात पर जोर दिया। आखिर फैसले का समय आ गया।
जुम्मन शेख को सरपंच नियुक्त किया। फैसला उसको ही सुनाना था। अलगू चौधरी का मन बैठा जा रहा था। जुम्मन शेख को सरपंच के उच्च पद पर बैठते ही जिम्मेदारी का भाव पैदा हो गया। उसने सोचा कि में इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च पद पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से जो भी निकलेगा वह देववाणी सदृश होगा। अंततः जुम्मन ने फैसला सुनाया:
“अलगू चौधरी और समझू साहू पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दे। जिस वक्त उन्होंने बल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने चारे का अच्छा प्रबंध नहीं किया गया। यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है यह रियायत करे, तो उनकी भलमनसी पर अलगू चौधरी फूले न समाए। उठ खड़े हुए और जोर से बोले, पंच परमेश्वर की जय!
इसके साथ चारों ओर से प्रतिध्वनि आयी-पंच परमेश्वर की जय! थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आए और उसके गले लिपट कर बोले,
“भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण घातक शत्रु बन गया था पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन।
न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जुबान से खुदा बोलता है। अलगू रोने लगा। इस घटना के बाद दोनों पुनः मित्र बन गए।