सद्गति कहानी सार
‘सद्गति’ मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित सामाजिक कहानियों में से एक महत्त्वपूर्ण कहानी है। भारतीय समाज की कुव्यवस्था की कुरीतियों और रूढ़ियों ने आम आदमी को किस प्रकार मरने के लिए मजबूर किया है। इसका बड़ा ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी चित्र प्रस्तुत कहानी में अंकित किया गया है। यह मुंशी प्रेमचंद की यथार्थवादी कहानी है, जिसमें सामाजिक विषमताओं के चलते शोषित एवं पीड़ित समाज के घोर दर्दनाक हादसों को रेखांकित किया गया है। यह एक कारूणिक कहानी है, जो पाठक के रोंगटे खड़े कर देती है।
दुखी चमार जाति का एक गरीब इंसान है। वह अपनी पुत्री के विवाह के लिए शुभ मुहूर्त विचारने के लिए पंडित के पास जाता है। उसने मुहूर्त के लिए आवश्यक सामग्री को एकत्र किया और पत्नी को निर्देश दिया कि पंडित जी बड़े ही पुण्य एवं पवित्र आत्मा है इसलिए वह उस सामग्री को न छुएँ। वह उपहारस्वरूप एक घात का गट्ठर अपने सिर पर लादकर पंडित जी के घर पहुँचा। पंडित घासीराम जी पूजा कर रहे थे। पूजा समाप्त हो गई तो दुखी ने पंडित जी से अपनी बेटी के विवाह के शुभ सगुन विचारने की हाथ जोड़कर प्रार्थना की।
सगुन विचारने के बदले में पंडित जी ने दुखी को अपने घर के अनेक काम करने के लिए कहा। दुखी आज्ञापालक था और झट से काम में जुट गया। सर्वप्रथम द्वार की सफाई की, फिर बैठक में गोबर लीपा आधा दिन गुजर गया। दोपहर हो गयी थी। उसे खूब भूख लग गयी थी, परंतु पंडित जी ने उसे पानी तक न पिलाया बल्कि एक लकड़ी को फाड़ने का आदेश दिया। दुखी अपनी भूख को दबाए लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी में एक मोटी गाँठ थी जो नहीं फट रही थी। दुखी पुरजोर मेहनत कर रहा था, परंतु गाँठ फटने का नाम नहीं ले रही थी। दुखी की आँखों में थकान साफ झलक रही थी। पानी की प्यास और भूख ने उसे बिल्कुल तोड़ दिया था। तीसरे पहर में वह गाँव के किसी गोंड़ के घर चिलम और तम्बाकू लाया और आग के लिए पंडिताइन से प्रार्थना करने लगा।
पंडिताइन ने चमार को देखा तो क्रोध से लाल हो गयी। चिमटे से आग पकड़ कर लायी। उसने पाँच हाथ की दूरी से घूंघट की आड़ में दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिंगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी। वह जल्दी से पीछे हटकर सिर को झाड़ने लगा। उसने मन ही मन विचार किया कि यह पवित्र ब्राह्मण के घर को अपवित्र करने का फल है। भगवान् ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसीलिए तो संसार पंडितों से डरता है।
चिलम पीकर दुखी फिर लकड़ी फाड़ने में जुट गया। पंडिताइन का मन उसे काम करते देखकर पसीज गया। वह उसे कुछ खाने को देना चाहती थी परंतु पंडित जी ने सोचा कि इसको भूख बहुत लगी हुई है इसलिए यह बहुत अधिक खाएगा सो पंडित जी ने मना कर दिया। चिलम पीकर कुछ शक्ति अर्जित कर दुखी फिर काम में लग गया और भूख से व्याकुल होने के कारण आधे घंटे में ही शक्तिहीन हो गया।
गाँव के गोंड़ ने जब यह देखा तो वह उसकी सहायता करने लगा पर लकड़ी की मोटी गाँठ पर आधा घंटे कुल्हाड़ी मारने पर भी दरार नहीं आयी। गोंड़ हारकर चला गया। दुखी को अभी पंडित जी के खेतों से भूसा भी लाना था। दिन अब कम रह गया था तो वह यह काम छोड़कर भूसा ढोने का काम करने लगा। चार बज गए थे। थकान से चूर वह कुछ सुस्ताने लगा, परंतु पंडित जी ने उसे डांटा।
दुखी लकड़ी फाड़ने के काम में फिर लग गया। सुबह से दुखी ने कुछ नहीं खाया था। उसकी सारी शक्ति खत्म हो गयी थी। उसे अपनी बेटी के विवाह के लिए शुभ सगुन का ध्यान आया तो वह फिर लकड़ी फाड़ने का दुष्कर कार्य करने लगा। वह जोर-जोर से कुल्हाड़ी चला रहा था और पंडित जी जोर-जोर से बोलकर उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। आधा घंटे तक लगातार वारों ने लकड़ी को बीच से फाड़ दिया और दुखी का क्षीण एवं दुखी शरीर पड़ाम से धरती पर जा गिरा। काम पूरा हो गया था।
पंडित जी उसके साथ चलने को तैयार हुए। पंडित ने धरती पर पड़े दुखी को बार-बार पुकारा, पर दुखी न उठा। पडित ने नजदीक जाकर देखा तो दुखी के प्राण निकल चुके थे। पंडित जी ने चमार मोहल्ले में लाश ले जाने का संदेश भेजा। क्योंकि गाँड़ सारी सच्चाई जानता था तो उसने सभी चमारों को लाश न ले जाने की सलाह दी। कोई लाश उठाने न आया। कुछ चमारियाँ लाश के पास बैठ कर कुछ देर रोने के बाद वापस हो गयीं। लाश सारी रात पड़ी रहने के बाद दुर्गन्धित हो गयी थी। जब किसी ने लाश को नहीं उठाया तो पं. घासीराम ने एक रस्सी का फन्दा दुर्गन्धमय लाश के एक पैर में डाला और उसे गाँव से बाहर घसीट कर ले गया। वापिस आकर स्नान किया। गंगाजल से स्वयं को पवित्र किया। उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। वही उसके जीवन पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।
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