साम्प्रदायिकता निबंध – मुंशी प्रेमचंद | Sampradayikta Nibandh Summary

साम्प्रदायिकता निबंध

साम्प्रदायिकता निबंध महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण निबंध है। साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति को साथ लेकर अपना क्रूर खेल खेलती है। साम्प्रदायिकता को अकले बाहर निकल कर खेलने में लरजा का अनुभव होता है। जिस प्रकार गधा शेर की खाल ओढ़ जंगल के जानवरों पर रोब जमाता है उसी प्रकार साम्प्रदायिकता संस्कृति की खाल ओढ़े ही समाज का नाश करती है। हिन्दू और अपनी संस्कृति की रक्षा करना अपना-अपना कर्तव्य समझते हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के दो भाग कर दिये हैं जबकि भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ एक दूसरे में घुली मिली हुई हैं।

वस्तुतः दोनों का अलग-अलग कोई अस्ति नहीं है। परंतु आधुनिक परिवेश में न हिन्दू संस्कृति सर्वोपरि है न मुस्लिम, बल्कि आर्थिक संस्कृति सर्वोपरि है और महत्वपूर्ण भी। इसके सामने अन्य सभी संस्कृतियाँ बौनी समझी जाती हैं। यद्यपि हिन्दू और मुसलमान दोनों अपनी संस्कृतियों को अपने धर्म पर आधारित समझते हैं परंतु अलग-अलग धर्म के बाद भी इन दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता। हिन्दू अगर मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं तो मुसलमान कब्र-पूजा करते हैं। दोनों धर्मों में कुछ ऐसे भी व्यक्ति है जो धर्म में विश्वास नहीं रखते अर्थात् नास्तिक हैं।

मुसलमान कुछ लोगों का मानना है कि इन दोनों संस्कृतियों में भाषा का अन्तर है परंतु भाषा के आधार भी दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। मुसलमान उर्दू को अपनी मातृभाषा समझते हैं जबकि महरासी मुसलमान “उर्दू’ को जानता तक नहीं फिर उर्दू मुसलमानों की भाषा कैसे हुई। बंगाली मुसलमान भी उर्दू नहीं समझता जिस तरह बंगाली हिन्दू । हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमा प्रांत का हिन्दू भी पश्तो उसी तरह बोलता जैसे वहाँ का मुसलमान।

वेशभूषा भी दोनों धर्मों के लोगों की लगभग एक सी है। हिन्दू स्त्रियाँ भी मुसलमान स्त्रियों की भाँति सलवार, कुरता और ओढ़नी पहनती हैं और जैसे हिन्दू सिर पर पगड़ी बाँधते हैं उसी प्रकार मुसलमान भी सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। दाढ़ी रखने का रिवाज लगभग दोनों धर्मों के लोगों में है। बंगाल में पहनावे को लेकर हिन्दू-मुसलमान को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। वहाँ हिन्दू-मुस्लिम स्त्रियाँ दोनों साड़ी बाँधती हैं। हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों ही कुरता और धोती पहनते हैं। जब से मुसलमानों में तहमद प्रथा चली है तब से साम्प्रदायिकता को पनपने का कारण मिल गया है।

खान-पान की दृष्टि से दोनों जातियों अथवा धर्मों के लोग एक दूसरे के काफी करीब हैं। मांस दोनों खाते हैं। शराब भी दोनों धर्मों के लोग पीते हैं, जो शराब नहीं पीते तो वे भाँग खाते हैं। अफीम का प्रचलन भी दोनों जातियों में समान रूप से है। हिन्दू धर्म में गौ का विशेष स्थान है। अगर मुसलमान गौ-मांस खाते हैं तो देश-विदेश में हिन्दू गौ-मांस खाते हैं। गोमांस के खाने को लेकर भारत के हिन्दुओं को सारे विश्व के साथ संग्राम छेड़ना पड़ेगा। वस्तुतः खान पान भी दोनों जातियों में साम्प्रदायिकता का कारण नहीं होना चाहिए।

संस्कृति में संगीत एवं चित्रकला में विशेष भूमिका होती है। भारतवर्ष में हिन्दू और मुसलमान राग-रागन साथ-साथ गाते हैं। मुगलकालीन चित्रकला से भी हम अब परिचित हो गए हैं। नाट्य अब मुसलमानों में भी पनपने लगी है। वस्तुतः संस्कृति के इस क्षेत्र में दोनों एक दूसरे के आस पास हैं।

फिर ऐसे कौन से कारण हैं जो संस्कृति के कारण साम्प्रदायिकता को हवा देते हैं। संस्कृति-भेद की चर्चा वे लोग करते हैं जो संस्कृति को लेकर साम्प्रदायिकता की आड़ में अपने स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। वे धर्मभीरु सीधे-सादे व्यक्तियों को आपस में लड़ा देते हैं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति की रक्षा का भार कुछ लोगों के ऊपर आ जाता है और वे इस बोझ के नीचे दबने का बहाना बनाकर सम्पूर्ण समाज को झुलसने के लिए मजबूर कर देते हैं। धर्म सम्प्रदायों में भेद कर वे आपस में झगड़े करवा देते हैं। ये संस्थाओं के ठेकेदार बन आम जनता को गुमराह कर देते हैं तथा जनता के सुख-दुःख से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। उनके पास कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं होता कि जो राष्ट्र के हित में हो।

इस प्रकार वे एक-दूसरे को मरवाकर अंग्रेजी शासन के समक्ष फरियाद करना तथा अंग्रेजी शासन की जड़ों को मजबूत करते हैं। ये हिन्दू अथवा मुसलमान 5 को न देखकर विदेशी शासन को देखकर ज्यादा खुश होते हैं। वे थोड़े से स्वार्थ की पूर्ति के लिए अंग्रेजी शासन के सहायक रूप काम करते हैं। उनकी विचार शक्ति शून्य हो गयी है। उनके पास कोई ऐसा विचार नहीं कि वे हिन्दू और मुसलमान को मिलाकर राष्ट्र हित में कार्य करें। ये साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्य वर्ग के व्यापारियों, शासन जिमीदारों, तालुदोंडारों तथा धन लोभियों की है। ये जनता पर शासन करने की फिराक में होते हैं ताकि आम जनता को डरा या धमका सक जनता के दुख से उन्हें कोई सरोकार नहीं। सरकार अगर कोई कल्याणकारी योजना बनाती है तो अपने आप को असुरक्षित समझने लगते हैं वस्तुतः उन नीतियों का विरोध करते हैं। निजी दिनों के लिए ये आम आदमी को लड़वाते रहते हैं।

इस चाल पर इनका प्रभुत्व जिन्दा है। लोगों को खूब लड़वाओं और एक दूसरे को नुकसान पहुँचाओ। मजे कि बात यह है कि ये लोग जो दूसरों का खून बहाते हैं स्वराज्य की बात करते है। ये लोगों को आश्वासन देते हैं कि वे उन्हें स्वराज्य दिलवायेंगे। इतिहास में गलत परम्पराओं को जन्म देते हैं। इतिहास विषय को गलत तरीके से बच्चों को पढ़ाया जाता है। लेखक कहता है कि वह दिन मुबारक होगा जब पाठशालाओं से यह इतिहास उठा दिया जाएगा। यह युग साम्प्रदायिकता फैलाने का नहीं है इल्कि आर्थिक सुधारों का है ताकि आम आदमी को लाभ पहुँच सके। आम जनता के पनपे अंधविश्वास, पाखंड और गलत नीतियों को खत्म किया जा सके।

आम जनता अपनी संस्कृति से बेखबर है परंतु कुछ निकम्मे बेफिक्रे’ और पेट भरे लोग संस्कृति की दुहाई देकर साम्प्रदायिकता को जन्म देते हैं। दरिद्र का सबसे बड़ा कार्य प्राण-रक्षा है। यही उनकी सबसे बड़ी समस्या है। वह संस्कृति जिसको सामने रखकर वे लड़ रहे हैं उसमें था ही क्या? जनता मूर्च्छित थी और उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था और अब जैसे-जैसे आम जनता सचेत एवं जागरूक हो रही है, उनको खबर होने लगी है कि वह संस्कृति केवल लुटेरों की थी, जो राजा, विद्वान और सेठ बनकर आम जनता को दोनों हाथों से लूटती थी। वह अब अपने जीवन की रक्षा करने में ज्यादा ध्यान देता है न कि संस्कृति रक्षा में अब वह पुरानी संस्कृति के मोह जाल से छुटकारा पा चुका है। साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं को हल करने की बजाय उनको चिरस्थायी रूप से परतन्त्र बनाने के कार्यक्रम पर चल रही है।

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