संत काव्य धारा की विशेषताएँ | संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ PDF

Sant Kavya Dhara Ki Pravritiyan

संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

निर्गुण संतकाव्य से अभिप्राय उस काव्य से है जिसके अनुसार ईश्वर का न तो कोई नाम है, न कोई रूप और आकार। जिस कवि ने इस तरह का काव्य रचा, उसे इस काल में निर्गुण संत कवि कहा गया है। हिन्दी की संत काव्य परंपरा अपने पूर्ववर्ती सिद्धों और जैनियों से वर्ण-व्यवस्था खंडन, जैनियों से नारी निंदा, नाथों से योग साधना, अपने समकालीन सूफी कवियों से प्रेम तथा अपने समाज से क्षोभ प्राप्त कर प्रकट हुई है। इस काव्य के पहले कवि संत नामदेव हैं जबकि अन्य कवियों में कबीर, रैदास, धर्मदास, नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास, गरीबदास आदि हैं। 

भक्तिकाल की निर्गुण संत काव्य परंपरा में यूं तो अनेक कवि हुए हैं, परंतु कबीरदास इस काल के प्रतिनिधि कवि हैं। कबीर एक अक्खड़ तथा क्रांतिकारी कवि थे। इनका संपूर्ण काव्य ‘बीजक’ में संग्रहित है। इसमें उन्होंने विभिन्न प्रकार की रहस्यवादी उलटबासियाँ भी कही हैं। इनके काव्य में कई भाषाओं के शब्दों का प्रयोग हुआ है। वे समाज में फैले हुए विभिन्न आडम्बरों, माया आदि के प्रबल विरोधी थे। कबीर सहित तमाम अन्य संत कवियों के साहित्य के आधार पर संतकाव्य में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं।

संत काव्य धारा की विशेषताएँ

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में हमें निर्गुण और सगुण दोनों रूपों का वर्णन मिलता है। निर्गुण काव्य धारा आगे चलकर संत काव्य और सूफी काव्य में बंट जाती है। आज हम इस पोस्ट में संत काव्य धारा की विशेषताएँ/प्रवृत्तियों के बारे में विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे। इस काव्य धारा को ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहा जाता है।

इस काल के अंतर्गत सभी संतों ने समाज को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन संत कवियों में सबसे प्रमुख स्थान कबीरदास जी का हैं। चूँकि इस काव्य धारा की शुरुआत तो महाराष्ट्र में नामदेव ने की थी, किन्तु इसके बावजूद भी इस काव्य के प्रमुख कवि कबीरदास जी ही है। इसका कारण यह है कि कबीरा ने समाज के सुधार में अग्रणी रूप से कार्य किया था। संत काव्य के अन्य महत्वपूर्ण कवि निम्नलिखित है – रैदास/रविदास, धर्मदास, गुरुनानक देव, दादूदयाल, सुन्दरदास, मलूकदास, पलटू साहेब आदि।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति की इस परंपरा को ज्ञानाश्रयी शाखा का नाम दिया है। डॉ हज़ारीप्रसाद ने इसे निर्गुण भक्ति साहित्य कहा है तथा डॉ रामकुमार वर्मा की वाणी में यह संत काव्य है। 

संत काव्य की महत्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में संत कवियों ने जो योगदान दिया है वह निश्चित रूप से अविस्मरणीय है। इस काल के अंतर्गत देखा जा सकता है कि किस प्रकार से यह काव्य विद्रोह का काव्य रहा है। कबीर जैसे कवियों ने बड़े ही निर्भीक स्वभाव से सभी जातियों और धर्मों में चल रहें पाखंडों पर करारा व्यंग्य किया है।

सभी संत कवियों ने ईश्वर के नाम पर लूटपाट करने वाले ढोंगियों को आड़े हाथों लिया। निश्चित रूप से यह काव्य हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण काल रहा है जिसने समाज को दिग्भ्रमित होने से बचाया तथा उसको एक सुस्पष्ट मार्ग की तरफ अग्रषित किया। संत काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं।

1. निर्गुण ईश्वर की अराधना

इस काल में सभी संत कवियों ने ईश्वर के निर्गुण एवं निराकार रूप को स्वीकार किया। इनके अनुसार भगवान का कोई रंग-रूप नहीं है, वह तो इस ब्रह्माण्ड के कण-कण में समान रूप से व्याप्त है। ईश्वर संसार के प्रत्येक जीव की एक-एक साँस तक में समाया हुआ है । निर्गुण संत कवियों के ईश्वर गुणातीत है, उन्हें हम किसी रूप में देख तो नहीं सकते किन्तु हर जगह उन्हें महसूस जरूर कर सकते है। इस संदर्भ में कबीरदास ने कहा भी है —

“निर्गुण राम, जपहुँ रे भाई ।
अविगत की गति, लखि न जाए।।”

2. बहु-देववाद तथा अवतारवाद का विरोध

संत काव्य के कवियों ने ईश्वर के अवतार रूप का कड़े शब्दों में विरोध किया है। वे कहते है कि ईश्वर कभी भी अवतार रूप में नहीं आता है, वह तो व्यक्ति के चित रूप में ही सर्वस्व समाया हुआ है। इसके साथ ही साथ उन्होंने अलग-अलग ईश्वरों की मान्यता को भी स्वीकार नहीं किया तथा एकेश्वरवाद पर बल दिया है। इस विषय में कबीरा कहते भी है —

“अक्षर पुरुष एक पेड़ है निरंजन वाकी डार।
त्रिदेव शाखा भए पात भया संसार।।”

3. गुरु की महिमा पर बल

संत कवियों ने गुरु का स्थान सबसे ऊपर बताया है। वे कहते हैं कि यह गुरु ही है जिसने हमें उस ईश्वर की महिमा से अवगत करवाया है। एक दोहे में कबीरदास कहते भी है कि यदि मेरे समक्ष गुरु एवं ईश्वर दोनों ही आ जाए तो मैं पहले गुरु के चरणों को स्पर्श करुँगा क्योंकि गुरु ने ही मुझे ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग दिखाया है। ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा बताया है।

“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।”

4. रूढ़ियों तथा आडंबरों का विरोध

निर्गुण काव्य धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों और बाह्य-आडंबरों का कड़े शब्दों में विरोध किया है। तत्कालीन समाज में धर्म और ईश्वर के नाम पर सामान्य जनमानस को सरेआम लुटा जा रहा था। संत कवियों ने धर्म के ठेकेदारों को दुत्कारा तथा लोगों को इनसे दूर रहने के लिए कहा। इसके अतिरिक्त इन संतों ईश्वर के नाम पर हो रहें बाहरी दिखावे तथा छल-कपट का भी डटकर विरोध किया।

“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥”

5. मोह-माया के प्रति सजगता

संत काव्य के कवियों ने सांसारिक मोहमाया को महाठगनी बताया है। वे कहते हैं कि यह सांसारिक मोहमाया ईश्वर और मनुष्य के बीच की सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए इन संत कवियों ने इस महाठगनी माया से सावधान रहने के लिए कहा है। कबीर एक स्थान पर माया को संबोधित करते हुए कहते भी हैं कि —

“माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी”

6. ज्ञान पर बल

संत कवि कहते हैं कि ज्ञान एक ऐसा मार्ग है जो हमें ईश्वर की प्राप्ति में सहायता प्रदान करता है। ज्ञान के माध्यम से ही हम अच्छे-बुरे कर्मों में अंतर करके उस निर्गुण ईश्वर का भजन कर सकते है। इसलिए व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए ताकि वह उस ब्रह्म को जान सकें। ज्ञान के विषय में कबीरदास कहते भी है कि —

“पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि ।
आगे थे सतगुरु मिल्या दीपक दीया हाथि।।”

7. नारी के प्रति दृष्टिकोण 

ज्ञानाश्रयी शाखा के सभी कवियों ने नारी को माया के प्रतीक रूप में स्वीकार किया है। वे कहते है नारी के प्रति इंसान मोहित हो जाता है तथा फिर उसके अंदर कामवासना की भावना जागृत हो उठती है, तब वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग से दूर होता चला जाता है। इसलिए संत कवियों ने नारी को माया का पर्याय माना है। कबीर नारी के विषय में कहते है कि –

“नारी की झाई परत अंधा होत भुजंग।
कबीरा तिनकी क्या गति जो नित नारी के संग।।”

8. जाति-पांति तथा साम्प्रदायिकता का विरोध

कबीरदास एवं अन्य सभी संत कवियों ने जाति-पांति का कड़े शब्दों में विरोध किया है। वे कहते है कि हमें जाति-पांति के बंधन से मुक्त रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर के लिए सभी मानव एक समान है।

तत्कालीन दौर में समाज जाति और धर्म के नाम पर बुरी तरह से बंटा हुआ था। आपस में एक-दूसरे सम्प्रदाय के लोग वैर-भाव की भावना रखते थें। इन संत कवियों ने इन भेद को ख़त्म करने के भरपूर प्रयत्न किया तथा लोगों को एक साथ प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।

9. आत्मिक साधना पर बल

संत-कवियों ने बाहरी साधना से दूर रहने तथा आंतरिक साधना के ध्यान पर बल दिया है। सभी संत लोग आत्मिक शुद्धता के पक्षधर रहें हैं। उनके अनुसार जब तक मनुष्य आत्मिक रूप से परिष्कृत नहीं होगा तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस विषय में संत कवि पलटू साहेब कहते है कि —

“बीज बासना को जरै तब छूटै संसार”

10. रहस्यवाद

निर्गुण उपासना से जुड़ी एक अन्य प्रवृत्ति रहस्यवाद भी है। परमात्मा के प्रति प्रेम की लौ को रहस्यवाद का नाम दिया जाता है। इसे लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना भी कहते हैं। संत कवि प्रकृति के घट-घट में निर्गुण ईश्वर का प्रसार व सत्ता मानते हैं। निर्गुण-निराकार होने के कारण संतों ने उसे प्रतीकों के माध्यम से प्रकट किया है।

“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल, भीतर बाहर पानी।

11. सधुक्कड़ी भाषा

इस काव्य परंपरा के कवियों की भाषा सधुक्कड़ी रही है, जिसे खिचड़ी भाषा भी कहा जाता है। अधिकांश संत कवि घुमक्क्ड प्रवृति के थें तथा ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थें। इसलिए इन संत-कवियों की भाषा में ब्रजभाषा, अवधी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, पंजाबी, संस्कृत, अरबी-फ़ारसी आदि के शब्द मिलते हैं। इस काव्यधारा की भाषा बड़ी ही सरल, कोमल एवं सर्वग्राह्य है।

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