शिक्षा का नया आदर्श निबन्ध
प्रस्तुत निबन्ध में लेखक वर्तमान शिक्षा पद्धति के कुपरिणामों की ओर संकेत करते हुए समाज को अवगत करवाता है कि संसार में बच्चों को जो शिक्षा दी जाती है उसमें उद्देश्य प्रायः परम्परागत समाज व्यवस्था का पोषण करना रहा है। समाज और व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। समष्टि और व्यष्टि में सदैव एकरूपता होनी चाहिए। परंतु इस शिक्षा प्रणाली में समष्टि की अपेक्षा व्यष्टि को महत्त्व दिया गया है। फलस्वरूप बालक का विकास समष्टि रूप में न होकर व्यष्टि रूप में हो रहा है। विश्वविद्यालय शिक्षा सम्पूर्ण होने पर उसकी विकास प्रक्रिया भी सम्पूर्ण हो जाती है। व्यक्तिपरक यह शिक्षा बालक को स्वार्थी एवं आत्मश्लाघी बना देती है। वह अपने हित एवं स्वार्थ को सर्वोपरि मानने लगता है। उनकी मित्रता निजी लाभ-हानि पर आधारित होती है।
वह समाज विमुखी बन जाता है। समाज हितों से वह कोसों दूर होता है। उसके विचार सामाजिक न होकर व्यक्तिपरक होते हैं। प्रत्येक वस्तु की उपयोगिता उसकी नजर में अपने लिए होती है। समाज पीछे छूट जाता है। वह अभिमानी एवं स्वार्थी बन जाता है। इस शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सामाजिक चेतना नहीं जगाती है। समाज के प्रति विद्यार्थी अपने कर्तव्यों से पल्लू झाड़ लेता है। समाज के विभिन्न पहलुओं के प्रति वह अनभिज्ञ होता है।
इसके विपरीत शिक्षा का उद्देश्य यह जान पड़ता है कि मनुष्य समाज को लाभ न पहुंचाकर अपने हित के बारे में सोचे और स्वयं लाभान्वित हो। जो शिक्षा व्यक्ति को समाजोन्मुखी बनाती है वह समाज के लिए लाभकारी होती है। वह व्यक्ति सफल माना जाता है जो सामाजिक होता है। परंतु वर्तमान शिक्षा व्यक्ति को अधिक से अधिक लाभ देने का साधन है। इसे पाकर व्यक्ति अपने स्वार्थों के लिए समाज का शोषण करने लगता है। व्यवस्था कुछ ऐसी हो चुकी है कि व्यक्ति को इस शिक्षा प्रणाली के चलते विवश होकर वही रास्ता अपनाना पड़ता है जो परम्परा से चला जा रहा है। वस्तुतः वह व्यवस्था से अलग नहीं सोच सकता।
आज संसार का घटनाचक्र दिनोंदिन परिवर्तित हो रहा है। क्रान्ति तीव्रता से घटित हो रही है। संसार में समाजवादी प्रचार प्रसार हो रहा है फलस्वरूप समाज एवं व्यक्ति की मान्यताएँ एवं आदर्श बदल रहे हैं। भारत जैसे रूढ़िवादी राष्ट्र ने भी अब सामाजिकता की ओर प्रस्थान किया है। वह अब समष्टि का महत्त्व समझने लगा है। इस समाजोन्मुखी व्यवस्था में व्यक्तिवाद की प्रभुसत्ता के खत्म होने के संकेत मिलने लगे हैं। प्रत्येक व्यक्ति समाज का हिस्सा बन रहा है। दूसरा समाज किसी एक का न होकर सभी व्यक्तियों का होता है। मानवी सभ्यता का सबसे बड़ा आदर्श, संसार एक परिवार है, यही हमारी परम्परा और यही हमारा लक्ष्य है। आज भी हम अपने सच्चे आदशों से उतने ही दूर हैं जितने कई हजार साल पहले थे।
समाज में समाजोन्मुखी व्यवस्था की नींव नहीं पड़ सकी और सम्पूर्ण भूमण्डल की आत्मा इस अनन्त भविष्य की ओर ताक रही है। अब धीरे-धीरे विद्वानों में मतैक्य हो रहा है कि एक नयी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हो जिसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार प्राप्त हो सकें। यानी कि बालक के लालन पालन तथा शिक्षा प्रणाली को सिरे से परिवर्तित करने की जरूरत है। समाज संघर्ष के स्थान पर सहयोग का महत्त्व समझने लगे। लोगों में एक दूसरे के प्रति विश्वास पैदा हो। वह शक्ति का संचय इसलिए न करें कि वे दूसरों को डरा सकें बल्कि दूसरों की सहायता करने में शक्ति का उपयोग करें। समाज में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली को व्यवहार में लाया जा रहा है वह मनुष्य में ईर्ष्या, डर, नफरत, कठोरता, स्वार्थ और कायरता जैसे दुर्गणों को प्रकट कर रही है। यह क्रिया बचपन में ही प्रारम्भ हो जाती है।
अमीर माँ बाप अपने बच्चों का अत्यधिक लाड़ से पालन करके उन्हें बिगाड़ देते हैं। अपने बच्चों को दूसरी से बड़ा साबित करने के लिए उन्हें निकम्मा बना देते हैं। यह गलत प्रवृत्तियों में पड़ जाते हैं। उनकी बुद्धि व्यक्तिवाद में प्रविष्ट होने लगती है। वे सामाजिक न होकर समाज का नुकसान पहुँचाने वाले साबित होते हैं। दूसरों शोषण करने में उन्हें आनंदानुभूति होती है।
समाज को चूसने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने के अतिरिक्त उन्हें कोई कार्य नहीं। हमारे गुरुकुल आधुनिक स्कूलों से कहीं अधिक उपयोगी एवं सार्थक हो सकते हैं। गुरुकुल में सभी छात्र समान होते थे। उनमें सार्वजनिकता एवं सामाजिकता के भाव उत्पन्न होते थे। यह पश्चिमी विद्वान् भी मानने लगे कि यह शिक्षा प्रणाली चरित्र को दुर्बल बनाती है और बच्चों में असामाजिकता, अलगाव तथा अहित के भाव पैदा करती है। साम्राज्यवाद व्यवसायवाद और राष्ट्रों में आपसी संघर्ष इसी कुशिक्षा के प्रतिफल हैं। फलस्वरूप मनुष्य व्यक्तिवाद को बढ़ावा देकर समाज का दुश्मन बन जाता है।
शिक्षा क्षेत्र में जो नए आदर्श स्थापित हो रहे हैं वह यह हैं कि शैशव काल में बच्चे को जैसा बना दिया जाता है फिर वह बदलता नहीं है। उसके चरित्र में जिन गुणों का समावेश हो जाता है, उनको बदलना मुश्किल हो जाता है। सामान्यतः अब तक हम बचपन को ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं। अज्ञानवश हम अपने बच्चों के भविष्य को खतरे में डाल देते हैं। इसी उम्र में बच्चे को आलसी और आरामपरस्त बना देते थे। वह अपने शरीर के प्रति सचेत एवं जागरूक नहीं होता है।
इसी उम्र में वे जिद्दी, स्वार्थी, निकम्मे और डरपोक बन जाते हैं। वस्तुतः माँ-बाप पर बच्चों को संवारने की ज्यादा जिम्मेवादी आ गयी है। विद्वानों का यह मानना है कि ब अपने पहले ही वर्ष बहुत सी अच्छी और बुरी आदतें सीख जाता है। माँ-बाप का कर्तव्य है कि वे माँ-बाप बनने से पूर्व बच्चे के पालन-पोषण के सिद्धान्तों को अच्छी तरह जान लें। इसमें कोई दो राय नहीं कि बचपन में अधिकांश बच्चों में एक-सी प्रवृत्तियां होती है। जिन्हें सदूपयोग और दुरुपयोग से अच्छा एवं बुरा बनाया जा सकता है। वस्तुतः माता-पिता को अपने बच्चे को सुचरित्र एवं विवेकी बनाने के लिए बचपन से उसके विकास में सहयोग देना चाहिए।
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