उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सार & प्रश्न उत्तर PDF | Class 9th Hindi Chapter 3

UpbhoktavadKi Sanskriti Summary

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सार

उपभोक्तावाद की संस्कृति आज के जीवन की समस्या को उजागर करने वाला निबंध है। यह पाठ बाजार की गिरफ्त में आ रहे समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है। आज का युग तीव्र गति से बदल रहा है। इस बदलते युग में एक नई जीवन शैली का उद्भव हो रहा है। इसके साथ ही उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन भी आ रहा है। चारों ओर उत्पादन के बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है। यह सब हमारे सुख के लिए तथा भोग के लिए हो रहा है।

आज सुख की परिभाषा भी बदल गई है। वस्तुओं का भोग ही सुख समझा जाने लगा है। नई परिस्थितियों में जाने-अनजाने में हमारा चरित्र ही बदलता जा रहा है। हम अपने-आपको उत्पाद को अर्पित करते जा रहे हैं। आज बाजार विलासिता की वस्तुओं से भरा पड़ा है। आज हमें लुभाने के लिए दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तु के तरह-तरह के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, टूथपेस्ट को ही ले लीजिए कितने ही प्रकार के टूथपेस्ट आ गए हैं।

प्रत्येक टूथपेस्ट के अलग-अलग गुण बताकर हमें लुभाया जा रहा है। इसी प्रकार टूथब्रश के लिए भी तरह-तरह के विज्ञापन दिए जा रहे हैं। इससे हम इनके प्रति आकृष्ट होकर आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ खरीद लेते हैं। इसी प्रकार सौंदर्य प्रसाधन की वस्तुओं को देख सकते हैं। प्रति माह बाजार में नए-नए उत्पादन आ रहे हैं। उच्चवर्ग की महिलाएँ तो अपने ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार रुपए का सामान खरीदकर रख लेती हैं। यह सब उनके उपभोग के लिए कम और प्रतिष्ठा के लिए अधिक है। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहते।

इसी प्रकार वस्त्रों की दुनिया में भी यही दशा है। जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं। नए-नए डिजाइन के परिधान बाजार में आ गए हैं। प्रतिदिन नए-नए डिज़ाइन आते हैं और पहले वाले परिधान व्यर्थ लगने लगते हैं। इसी प्रकार घड़ी का काम समय बताना है। चार-पाँच सौ रुपए की बड़ी भी यह काम करती है, किन्तु अपनी प्रतिष्ठा दिखाने के लिए पचास-साठ हजार रुपए की ही नहीं लाख, डेढ़ लाख रुपए की घड़ियाँ भी खरीदी जाती हैं।

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इसी प्रकार म्यूजिक सिस्टम और कंप्यूटर आदि वस्तुएँ भी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए खरीदी जाती हैं। यह बात उच्च वर्ग के लिए ही नहीं है, अपितु मध्य वर्ग के लोग भी पीछे नहीं रहते। अतः समाज में उपभोक्तावाद की संस्कृति के युग में अंधी होड़ से समाज में जीवन-स्तर भले ऊपर उठ रहा हो, किन्तु सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य नष्ट होते जा रहे हैं।

आज बात भोजन खाने की हो या फिर बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलवाने की हो, पाँच सितारा होटल या स्कूल का होना अनिवार्य है। बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में जाना भी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन है। इतना ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में तो स्वयं मरने से पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते हैं, किन्तु एक विशेष मूल्य चुकाकर आने वाले समय में यह कार्य भारत में भी हो सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप हो सकते हैं, भले ही वे हास्यास्पद ही क्यों न हो। यह उदाहरण विशिष्टजन समाज (धनी लोगों) का है, किन्तु साधारण व्यक्ति भी इसे ललचाई हुई दृष्टि से देखते हैं तथा अपने मन की शांति को खो बैठते हैं।

‘भारतवर्ष में धनी लोग अर्थात् सामंती संस्कृति के तत्त्व पहले भी रहे हैं, किन्तु आज सामंती संस्कृति के अर्थ बदल गए हैं। आज हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात भले ही करें, किन्तु सच्चाई यह है कि परंपराओं का अवमूल्यन हो रहा है और आस्थाएँ टूट रही हैं। हम पश्चिम की बौद्धिक दासला को तेज गति से अपनाने में लगे हुए हैं।

आज की नई संस्कृति केवल ढोंग है। यह तो अनुकरण संस्कृति है प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ में हम अपने को खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं, दिग्भ्रमितबी हो रहे हैं। हमारा समाज ही दूसरे से निर्देशित हो गया है। विज्ञापन और प्रसार के साधनों ने हमारी मानसिकता बदल डाली है।

लेखक ने इस संस्कृति के फैलाव व प्रसार के परिणाम के प्रति गंभीर चिंता व्यक्त की है। हमारे सीमित साधनों का अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधर सकती और न ही नए बहुविज्ञापित शीतल पेयों से आज उपभोक्तावाद 1 की संस्कृति के उदय के कारण आपसी दूरी बढ़ती जा रही है।

जीवन का बढ़ता हुआ स्तर मानव-जीवन में अशांति और आक्रोश को जन्म दे रहा है। दिखावे की संस्कृति से अशांति बढ़ेगी तथा सांस्कृतिक अस्मिता का विनाश होगा। हमारे विराट उद्देश्य धुंधले पड़ गए हैं तथा मर्यादाएं टूट रही हैं। नैतिकता पीछे छूटती जा रही है। स्वार्थ परमार्थ पर भारी पड़ता जा रहा है। भांग की कामनाएँ आकाश को छू रही हैं। इनकी कोई सीमा दिखाई नहीं देती।

गांधी जी ने कहा था कि स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी सामाजिक नींव को ही हिलाकर रख दिया है। यह हमारे लिए चिंता एवं चुनौती का विषय है।

उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है ?

उत्तर – लेखक ने सुख की व्यंग्यात्मक शैली में परिभाषित करते हुए कहा है कि आन उपभोग का भोग ही सुख है।

प्रश्न 2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ?

उत्तर – आजकी उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित कर रही है। एक और इस संस्कृति में उपभोग की वस्तुओं का अत्यधिक निर्माण हो रहा है जिससे आकृष्ट होकर हम उसे बिना सोचे-समझे खरीदते चले जा रहे हैं। इससे संतुष्टि की अपेक्षा अशांति एवं अधी होड़ की भावना बढ़ती है। दूसरी ओर, समाज के विभिन्न वर्गों में सद्भाव की अपेक्षा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। सीमित साधनों का अपव्यय हो रहा है। सांस्कृतिक मूल्यों का हास हो रहा है। हम पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने के कारण अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास से हमारी अपनी संस्कृति के मूल्य खतरे में पड़ गए हैं।

प्रश्न 3. गांधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है ?

उत्तर – गांधी जी सदा भारतीय संस्कृति के पुजारी रहे हैं। वे चाहते थे कि हम नए विचारों को अपनाएं, किन्तु अपनी संस्कृति की नींव से दूर न हटें अर्थात् अपनी संस्कृति का त्याग न करें। गांधी जी ने अनुभव कर लिया था कि उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। यह हमारे समाज के लिए खतरा है। इसलिए गांधी जी ने इसे समाज के लिए चुनौती कहा हैं।

प्रश्न 4. आशय स्पष्ट कीजिए-

(क) जाने-अनजाने आज के माहोल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।

(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे ये हास्यास्पद ही क्यों न हो।

उत्तर – (क) इस पंक्ति में लेखक ने उपभोक्तावाद की संस्कृति के विकास से उत्पन्न वातावरण के प्रभाव को चित्रित किया। है। जाने-अनजाने आज के वातावरण में हमारा चरित्र बदल रहा है अर्थात् हमारी सोच में परिवर्तन आ रहा है। हम जिन बातों या विचारों को पहले उचित नहीं समझते थे, आज उन्हीं को करने में सर्व अनुभव करने लगे हैं। हम अपने-आपको उत्पाद के प्रति समर्पित करते जा रहे हैं अर्थात् उत्पादन ही हमारा सब कुछ बन गया है, मानवीय मूल्य गौण होते जा रहे हैं।

(ख) इस पंक्ति में लेखक ने आज के दिखावे की प्रतिष्ठा पर करारा व्यंग्य किया है। लेखक ने बताया है कि हम अपनी प्रतिष्ठा अर्थात् मान-सम्मान को बनाने के लिए तरह-तरह के ढंग अपना रहे हैं, भले ही वे हास्यास्पद ही क्यों न हो कहने का तात्पर्य है कि हम साधनों की चिंता नहीं करते थे कैसे भी हो हमें तो अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखनी है।

Upbhoktavad Ki Sanskriti Question Answer

प्रश्न 5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी०वी० पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं, क्यों ?

उत्तर – आज के युग में किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए उसकी आवश्यकता का होना अनिवार्य नहीं है। कुछ वस्तुएँ ऐसी भी हैं, जिन्हें हम विज्ञापन देखकर इसलिए खरीदते हैं, क्योंकि उन वस्तुओं को खरीदने से हमारी हैसियत का पता चलता है और समाज में प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। अतः स्पष्ट है कि हम दिखावे की ज्ञान को बनाए रखने के लिए ऐसी वस्तुओं को खरीदने के लिए तालायित होते हैं।

प्रश्न 6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।

उत्तर – हमारे अनुसार किसी भी वस्तु को खरीदने का प्रमुख आधार उसकी गुणवत्ता एवं उपयोगिता होनी चाहिए, न कि विज्ञापन। यदि हम केवल विज्ञापन को देखकर किसी वस्तु को खरीदते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि उसमें वे सभी गुण होंगे, जो हम चाहते हैं। इसलिए हमें किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए उसके गुणों को देखना चाहिए। यही उचित एवं सार्थक होगा। विज्ञापन में तो केवल चमक-दमक से अधिक दिखाई जाती है।

प्रश्न 7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति पर विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर – प्रस्तुत पाठ में आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही दिखावे की संस्कृति का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम इस संस्कृति से हमारे धन का अपव्यय बढ़ा है। हम अधिकाधिक वस्तुओं को खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं। इस संस्कृति के विकास से भारतीय संस्कृति के मूल्यों को आघात पहुंचा है। हम उपभोक्तावाद के चक्कर में फँसकर अथवा छूटी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए मानवीय मूल्यों से दूर हटते जा रहे हैं।

लेखक का यह भी मानना है कि उपभोक्तावादी युग में समाज के विभिन्न वर्गों की दूरियाँ कम होने की अपेक्षा बढ़ी है। सामाजिक सद्भावना व सहयोग की भावना की अपेक्षा अधी प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ है जिसमें दया, सहिष्णुता, ममता आदि सद्भावों के लिए कोई स्थान नहीं है।

प्रश्न 8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।

उत्तर – आज की उपभोक्ता संस्कृति न केवल हमारे दैनिक जीवन को, अपितु हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को भी प्रभावित कर रही है। इससे पूर्व रीति-रिवाज व त्योहार एक महान उद्देश्य की पूर्ति हेतु मनाए जाते थे उनसे आपस में प्रेम, सद्भाव, मेल-जोल आदि भावों का विकास होता था। यही उनका मुख्य लक्ष्य भी था, किन्तु आज उपभोक्ता संस्कृति के आने पर हम रीति-रिवाजों व त्योहारों पर अनेकानेक वस्तुएँ खरीदते हैं और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए महंगे-महंगे उपहार देते हैं

दिखावे के लिए अनावश्यक वस्तुओं को खरीदते हैं। इससे समाज के लोगों में होड़ की भावना उत्पन्न होती है और धन का अपव्यय होता है। उदाहरणार्थ, दीपावली दीपों एवं सद्भावना का त्योहार है। हम दीप जलाने की अपेक्षा महंगे पटाखे बम आदि चलाते हैं। अपने संबंधियों व पड़ोसियों को महंगे-महंगे तोहफे देते हैं। हम इस त्योहार के वास्तविक उद्देश्य से भटककर दिखावे की भावना में फँस जाते हैं। इस प्रकार उपभोक्ता की संस्कृति का हमारे रीति-रिवाजों व त्योहारों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

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परीक्षोपयोगी अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ शीर्षक पाठ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ नामक इस निबन्ध में लेखक का उद्देश्य यह बताना है कि आज के बदलते युग की नवीन जीवन-शैली के साथ-साथ उपभोक्तावादी संस्कृति भी पनप रही है आज उपभोक्तावादी जीवन-दर्शन में सुख की परिभाषा बदल गई है। मानव का चरित्र भी बदल रहा है। लेखक ने मानव को विलासिता की वस्तुओं व दिखावे का जीवन न जीने का उपदेश दिया है। विज्ञापनों की चकाचौंध में न आकर अपनी आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए।

भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं के अवमूल्यन के प्रति भी हमारा ध्यान आकृष्ट करना लेखक का प्रमुख लक्ष्य है। दिखावे की संस्कृति से निरन्तर अशांति बढ़ती है, इसलिए दिखावे को त्यागकर सत्य का दामन थामना चाहिए उसी से ही शांति मिल सकती है। लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के प्रति चिंता व्यक्त की है तथा हमें उसके प्रति सचेत किया है। यह इस निबन्ध का परम लक्ष्य है।

प्रश्न 2. आधुनिक युग में आम आदमी के जीवन में विज्ञापन का क्या महत्त्व है ?

उत्तर – आधुनिक युग में आम आदमी का जीवन अत्यंत व्यस्त हो गया है। हर वस्तु की जाँच-पड़ताल करना उसके लिए असंभव हो गया है। इसलिए वह अपनी इस कमी को विज्ञापन की सहायता से पूरा करता है। वह विज्ञापन के द्वारा वस्तुओं के गुणों, उनके प्रयोग आदि की जानकारी हासिल करता है।

विज्ञापन ही जाम व्यक्ति के सामने वस्तुओं के कई-कई विकल्प प्रस्तुत करता है जिससे वह अपनी पसंद की वस्तु प्राप्त कर सकता है। विज्ञापन आम आदमी के लिए कई बार हानिकारक भी सिद्ध होता है। वह आम आदमी के मन में नई वस्तुओं के लिए लालच उत्पन्न करता है तब उसे पुरानी वस्तुएँ व्यर्थ लगने लगती हैं। इससे फिजूलखर्ची बढ़ती है।

प्रश्न 3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है ?

उत्तर – लेखक का मानना है कि हम नए विचारों को अपनाने के साथ-साथ अपनी संस्कृति की नींव से दूर न हटे अर्थात अपनी संस्कृति का त्याग न करें। परन्तु उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है। आपसी दूरी बढ़ती जा रही है। नैतिकता पीछे छूटती जा रही है। स्वार्थ परमार्थ पर भारी पड़ता जा रहा है। यह हमारे समाज के लिए खतरा है। इसलिए लेखक ने इसे समाज के लिए चुनौती कहा है।

प्रश्न 4. हम भारतीय लक्ष्य-भ्रम की पीड़ा से पीड़ित हैं। कैसे ?

उत्तर – प्राचीनकाल से भारत के लोगों का उच्च विचार साधारण जीवन-शैली में विश्वास था। इस प्रकार हर व्यक्ति शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता था। किन्तु आज हम आधुनिकता की चमक दमक में फँस गए हैं। हम अपने जीवन का लक्ष्य भूल गए हैं। भारतीय जीवन के पुराने संस्कार जो हमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि के लिए जीना सिखाते थे, हम उन्हें पूरी तरह भूल चुके हैं। हम पश्चिमी जीवन के उपभोक्तावाद के समर्थक बन बैठे हैं जिसमें कही संतुष्टि व शांति नहीं है। इस दिखावे व चमक-दमक के छलावे में फंसकर जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित हो गए हैं। हर समय दिखावे व उपभोक्तावाद की भावना से ग्रसित रहने के कारण हमारे जीवन में अशांति व दुःख ही छाए रहते हैं। इसलिए हम लक्ष्य-भ्रम की पीड़ा से पीड़ित रहने लगे हैं।

प्रश्न 5. उपभोक्तावादी युग में विशिष्ट जन समाज का सामान्य जन पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

उत्तर – उपभोक्तावादी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार-प्रसार से समाज का हर वर्ग प्रभावित हुआ है। जिनके पास अधिक धन है वे उपभोक्तावादी समाज के उच्च वर्ग के लोग हैं। इन्हें ही विशिष्ट जन भी कहते हैं। इस वर्ग के लोगों के सुख व वैभवपूर्ण जीवन को देखकर सामान्य जन भी उनका अनुकरण करने लगता है। वह भी उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर लालायित हो उठता है। किन्तु उनकी आय सीमित होती है। ये उपभोक्तावादी संस्कृति में अपने आपको चाहते हुए भी सम्मिलित नहीं कर सकते इसलिए तनावपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं।

प्रश्न 6. भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास कौन और क्यों कर रहा है? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।

उत्तर – प्रस्तुत पाठ में बताया गया है कि भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास करने में सामंती संस्कृति का योगदान रहा है। भारत में भले ही सामंत बदल गए हैं, किन्तु उनके गुण व आदतें अब तक वहीं हैं। इसके अतिरिक्त पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता का अंधानुकरण भी उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है। विज्ञापन का प्रचार-प्रसार भी उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास का एक प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त आधुनिकता और दिखावे की अंधी दौड़ भी कुछ हद तक उपभोक्तावादी संस्कृति को प्रोत्साहित करने के लिए जिम्मेदार है।

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