उत्साह निबंध का सार | Utsah Nibandh Ka Saar : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

उत्साह निबंध का सार

‘उत्साह’ निबंध के लेखक रामचंद्र शुक्ल जी है। उनके द्वारा लिखा गया यह एक मनोवैज्ञानिक निबंध है। लेखक ने मानव मन में उत्पन्न होने वाली साहसपूर्ण आनंद की उमंग को ‘उत्साह’ कहा है। वस्तुतः कर्म-सौंदर्य की उपासना ही साहस की मूल चेतना है। दुःख के वर्ग में भय की जो स्थिति है वही आनंदवर्ग में उत्साह की है। केवल कष्ट सहन करना साहस हो सकता है परंतु यह स्थिति उत्साह तभी कहला सकती है जब आनंद का योग हो। उदाहरणार्थ अनुसंधान के लिए पर्वतारोहण, क्रूर जंगली जातियों के बीच भयावह जंगलों में प्रवेश को ‘उत्साह ही कहा जाएगा क्योंकि इन कार्यों में आनंदपूर्ण तत्परता का संयोग रहता है।

वस्तुतः उत्साह मनुष्य का एक श्रेष्ठ गुण है। उत्साह में प्रयत्न और कर्म संकल्प के साथ आनंद की उमंग विद्यमान रहती है। उत्साह में बुद्धि की तत्परता के साथ-साथ शारीरिक तत्परता भी आवश्यक है। शारीरिक तत्परता के अभाव में केवल बुद्धि की तत्परता को उत्साह नहीं कहा जा सकता। जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबको उत्साह के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के तीन भेद किए जा सकते हैं- युद्धवीर, दानवीर, दयावीर आदि। दयावीर में आत्म-त्याग का साहस आवश्यक है। तभी तीनों क्षेत्रों में उत्साह का संरचण हो सकता है।

सामान्यतः कर्म करने का आनंद तीन रूपों में दृष्टिगोचर होता है-

(अ) कर्म भावना से उत्पन्न। 

(आ) फल भावना से उत्पन्न। 

(इ) आगन्तुक विषयान्तर से प्राप्त आनंद। 

सच्चे वीरों का आनंद मुख्यतः कर्म भावना से ही सम्बद्ध रहता है। इसमें साहस की मात्रा अधिक होती है। वस्तुतः फल भावना से उत्पन्न कर्म में साहसपूर्ण आनंद की मात्रा अधिक होती है।

Utsah Nibandh Ka Saar

प्रयत्नशील व्यक्ति को कई बार कर्म में सफलता नहीं मिलती परंतु वह पश्चात्ताप का अनुभव नहीं करता। कर्म या प्रयत्न में आनंद का अनुभव करने वाला व्यक्ति फल प्राप्ति होने पर भी सुख प्राप्ति नहीं करता अपितु कर्म की अवधि में ही वह सुख का अनुभव करने लगता है। कई बार आनंद का संबंध किसी अन्य विषय में रहता है परंतु व्यक्ति में आनंद के कारण ऐसी स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह अन्य कार्यों में भी उत्साह का प्रदर्शन करने लगता है। उत्साह के अतिरिक्त अन्य मनोविकारों में भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है।

प्रस्तुत निबंध ‘उत्साह’ जैसे अमूर्त भाव का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होते हुए भी मनोविश्लेषणात्मक निबंधों की भांति नीरस व शुष्क नहीं है। इसमें जीवन व साहित्य का रस है। इसमें लेखक का व्यक्तित्व मौलिक चिंतक के रूप में उभरकर आया है। विषय प्रतिपादन की मौलिकता, चिंतन की गहनता, स्वतः सम्पूर्णता, मर्यादित आकार आदि इस निबंध की विशेषताएं हैं। भाषा संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित एवं परिष्कृत है। इसमें लेखक ने निगमन शैली का प्रयोग किया है। विचारों व भावों को सूत्र रूप में प्रस्तुत करके उदाहरणों व तर्कों के द्वारा उसे पुष्ट किया है। 

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