आत्मपरिचय कविता सप्रसंग व्याख्या : हरिवंशराय बच्चन कविता

Aatmparichay Kavita Vyakhya

आज के इस पोस्ट में हम हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित आत्मपरिचय कविता की सप्रसंग व्याख्या लेकर आएं है। जैसा कि आप सभी जानते है यह कविता बाहरवीं कक्षा के सिलेबस में लगी हुई है तथा यह एक महत्वपूर्ण कविता भी है। आत्मपरिचय कविता से हर बार परीक्षा में सवाल पूछे जाते है। इसलिए आपको नीचे की व्याख्या को अच्छे से समझ कर कविता के अर्थ को ग्रहण कर लेना चाहिए।

आत्मपरिचय कविता सप्रसंग व्याख्या

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ!

शब्दार्थ- जग-जीवन = संसार का जीवन, सांसारिक जीवन झंकृत = बजाना। छूकर = स्पर्श करके।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित ‘आत्म परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है जिसके रचयिता ‘हरिवंशराय बच्चन’ जी हैं। इसमें कवि ने आत्म-परिचय का अंकन किया है।

व्याख्या – कवि बच्चन जी अपने जीवन का बोध कराते हुए कहते हैं कि मैं इस सांसारिक जीवन के भार को निरंतर वहन करता हुआ जीवन-यापन कर रहा हूँ। मेरे जीवन पर इस जग का बहुत भार है लेकिन मैं इस भार को देख दुःखी नहीं होता और न ही कभी विचलित होता हूँ। फिर भी मैं अपने जीवन में असीम प्यार लिए घूम रहा हूँ। अपने विगत जीवन का स्मरण करते हुए कवि कहते हैं कि मेरे जीवन में किसी ने पदार्पण किया था तथा प्रेम भरे हाथों से मेरी हृदय रूपी वीणा को झंकृत कर दिया था। आज मैं उनकी यादों के रूप में अपने साँसों के दो तार लिए जी रहा हूँ। कवि का कहने का अभिप्राय यह है कि एक प्रिया का मेरे जीवन में आगमन हुआ था। उसने मुझे प्यार से छुआ था लेकिन उसका साथ नहीं रहा। बस यादों के रूप में उसके कोमल हाथों से झंकृत सांसों के तार लिए जीवन जी रहा हूँ।

मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ
जग पूछ रहा उनको , जो जग की गाते
मैं अपने मन का गान किया का ध्यान करता हूँ,

शब्दार्थ – स्नेह-सुरा = स्नेह रूपी मदिरा, प्रेम रूपी शराब जग संसार। गान = बखान, कहना। 

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह- भाग-2’ में संकलित कवि ‘श्री हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित है। इसमें कवि ने आत्म-परिचय का बोध कराया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैं प्रेम रूपी मदिरा को पीने वाला हूँ। मैं इसी प्रेम रूपी मदिरा को पीकर इसी की मस्ती में डूबा रहता हूँ। मैं केवल अपने में मग्न रहता हूँ। मैं कभी भी संसार का ध्यान नहीं करता। कवि कहते हैं कि ये संसार स्वार्थी है। यह केवल उसको पूछता है, जो इसका बखान करते हैं और इसके अनुकूल कार्य करते हैं। अपने प्रतिकूल कार्य करने वालों को यह संसार कभी नहीं पूछता। कवि कहता है कि मैं तो अपनी मस्ती में डूबकर अपने मन का बखान करता हूँ अपने मन की भावनाओं तथा संवेदनाओं को सुनाता रहता हूँ।

मैं निज उर के उद्गार  लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!

शब्दार्थ – निज = अपना। उद्गार = भाव, अधीरता। भाता = अच्छा लगना । 

प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित है। इसके रचयिता ‘श्री हरिवंशराय बच्चन जी’ हैं। इस काव्यांश में कवि ने अपने हृदय के उद्गार व्यक्त किए

व्याख्या – कवि कहता है कि मैं अपने हृदय के भाव तथा उपहार लिए जीवन-यापन कर रहा हूँ। कवि का कहने का अभिप्राय यह है कि मैंने अपने हृदय में अनेक भाव उपहार स्वरूप संजो रखे हैं। इन्हीं भावों तथा उपहारों को लिए विचरण कर रहा हूँ । कवि कहता है कि यह संसार तो अपूर्ण है इसलिए इसकी अपूर्णता मेरे हृदय को अच्छी नहीं लगती। मैं तो इस संसार की उपेक्षा करके अपने ही सपनों का संसार लेकर जी रहा हूँ। मैं तो अपने ही स्वप्निल संसार में डूबा रहता हूँ।

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त वहा करता हूँ!

शब्दार्थ – अग्नि = आग। दहा = जलना। जग = संसार। भव-सागर = संसार रूपी सागर। नाव = किश्ती। मौजों

पर = तरंगों पर, हिलोरों या लहरों पर।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित कवि ‘श्री हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने आत्म-परिचय का चित्रण करते हुए सुख-दुःखावस्था में एक समान रहने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मैंने अपने हृदय में वियोग रूपी अग्नि को जला रखा है जिसमें मैं निरंतर जलता रहता हूँ। मैं सुख और दुःख दोनों अवस्थाओं में मग्न रहता हूँ। मैं न तो सुख आने पर अत्यधिक खुश होता हूँ और न ही दुःख की प्रतिकूल परिस्थितियों में अधिक दुःखी बल्कि दोनों भावों को अपने जीवन में एक समान ग्रहण करता हूँ। कवि संसार को संबोधन करते हुए कहते हैं कि यह संसार इस संसार रूपी सागर को पार करने के लिए भले ही नाव का निर्माण करे पर मेरी संसार रूपी सागर को पार करने की कोई इच्छा नहीं है। मैं तो इस संसार की लहरों पर ही मस्ती में बहना चाहता हूँ। कवि का अभिप्राय यह है कि इस संसार रूपी सागर को पार करने अर्थात् मोक्ष कामना हेतु भले ही औरों को किसी अन्य सहारे रूपी नाव की आवश्यकता हो पर मुझे किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं और न ही मोक्ष प्राप्ति की कोई कामना है। मैं तो इसी संसार की लहरों पर बहना चाहता हूँ।

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!

शब्दार्थ – यौवन = जवानी। उन्माद = : जोश, मस्ती। अवसाद = दुःख, पीड़ा। बाहर = बाह्य रूप। भीतर =आंतरिक रूप ।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है जिसके रचयिता ‘हरिवंशराय बच्चन’ हैं। ये हालावाद के प्रवर्तक कवि माने जाते हैं। इस काव्यांश में कवि ने अपने जीवन की आंतरिक पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैं तो अपनी जवानी का जोश लिए जी रहा हूँ। मेरे हृदय में आज भी वह जवानी की मस्ती और जोश है जिसमें मस्त होकर मैं जीवन-यापन कर रहा हूँ। इसी जवानी के पागलपन में अनेकों दुःख समाये हुए हैं। कवि कहते हैं कि मैंने जवानी में किसी से प्रेम करके उसकी यादों को अपने हृदय में संजोया था। आज उसी की यादों को अपने हृदय में सजाकर फिर रहा हूँ। ये यादें मुझे बाह्य रूप से हँसा देती हैं लेकिन आंतरिक रूप से रुलाती हैं। मैं अपनी प्रिया की यादों को लेकर जीवन जी रहा हूँ। इस जहां को मैं बाहर से भले ही हँसता हुआ दिखाई दूँ लेकिन मैं हृदय से रोता रहता हूँ। उसकी यादें आज भी मुझे सताती रहती हैं।

Aatmparichay Kavita Vyakhya

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखें?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!

शब्दार्थ – यत्न = प्रयास। नादान नासमझ दाना अक्लमंद, समझदार मूढ़ = मूर्ख जग संसार | 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित कवि ‘श्री हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने ‘शाश्वत सत्य’ का वर्णन किया है ।

व्याख्या – कवि प्रश्न करते हुए पूछता है कि इस संसार में बड़े-बड़े महापुरुषों ने सत्य को जानने का प्रयास किया लेकिन आज तक कोई भी सत्य को नहीं जान पाया। सत्य (बम) की खोज करते-करते सब समाप्त हो गए फिर भी उसे नहीं जान पाए। कवि का अभिप्राय यह है कि इस संसार में आज तक कोई भी सत्य को पहचान नहीं सका ? वे कहते हैं कि समाज में जहां पर अक्लमंद या समझदार लोग रहते हैं, वहीं पर नासमझ या मूर्ख भी निवास करते हैं। संसार को संबोधन कर कवि कहते हैं कि यह बात जानकर भी यह संसार मूर्ख है जो इसके बावजूद भी सीखना चाहता है। मैं तो भूले हुए ज्ञान को सीखने का प्रयास कर रहा हूँ।

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता !

शब्दार्थ – वैभव = शान-ओ-शौकत, सौंदर्य, धन, ऐश्वर्य। प्रति-पग प्रत्येक चरण।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी का पाठ्य पुस्तक आरोह-भाग-2′ में संकलित कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने बताया है कि उसका इस संसार से कोई नाता नहीं है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मेरा इस संसार के साथ कोई संबंध नहीं है। मेरी और संसार की प्रकृति में बहुत अंतर है। मेरा स्वभाव कुछ और है संसार का कुछ और। मेरी कोई और मंजिल है तथा इस स्वार्थी संसार की कोई और। कवि कहता है कि मैं तो प्रतिदिन ऐसे अनेक संसार बना-बना कर खत्म कर देता हूँ। मैं हर दिन ऐसे अनेक संसार की कल्पना करता हूँ और फिर उसे मिटा देता हूँ। ये संसार धन-ऐश्वर्य से प्रेरित होकर जिस पृथ्वी पर धन-ऐश्वर्य तथा शान-ओ- शौकत जोड़ता है, मैं उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। ऐसी शानो-शौकत को मैं पग-पग पर ठुकराता चलता हूँ। जिस पृथ्वी पर यह संसार झूठे धन-ऐश्वर्य तथा शान और शौकत खड़ा करता है मैं ऐसी ऐश्वर्य से परिपूर्ण पृथ्वी को पग-पग पर ठुकरा देता हूँ। ये धन वैभव मुझे बिल्कुल भी विचलित नहीं कर सकता।

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।

शब्दार्थ – निज = अपना। रोदान = रोना, दुःख। भूपो के राजाओं के प्रासाद = महल। निछावर = अर्पण, = न्यौछावर खंडहर = टूटा-फूटा महल। भाग = अंश।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने आत्मीय पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि मैं अपने आँसुओं में भी प्रेम भरा गीत छिपाए फिरता हूँ। जिसे संसार मेरा रोदन समझता है उसमें मेरे अनेक गीत छिपे हुए हैं और मैं अपनी अश्रुओं की धारा के माध्यम से अपने प्रेम गीतों का बखान करता चलता हूँ। मेरे हृदय में वाणी अत्यंत शीतल और कोमल है लेकिन मैं इस शीतलता में भी क्रोध रूपी आग छिपाये हूँ। कवि जग को संबोधन करते हुए कहता है कि मैं उस खंडहर का अंश लिए हूँ जिस पर महान् प्रतापी राजा अपने महलों को न्यौछावर कर देते हैं। मेरे पास उस खंडहर का अंशमात्र है जिसके सामने बड़े-बड़े राजाओं के आलीशान… महलों का भी कोई मूल्य नहीं है अर्थात् कवि का प्रिया से वियोग होने पर हृदय विच्छिन हो गया, जो खंडहर की भांति पड़ा है लेकिन फिर भी उसका मूल्य अनमोल है। वह इतना सुंदर है कि उसकी शोभा के समक्ष बड़े से बड़े राजा का आलीशान महल भी नगण्य है।

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया  दीवाना !

शब्दार्थ – फूट पड़ा = जोर से रोया। छंद बनाना = कविता लिखना या कहना। दीवाना = प्रेम करने वाला। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित तथा कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म-परिचय’ से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने हृदय की पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि संसार को संबोधन करते हुए कहता है कि मैं दुःख में अत्यंत दुःखी होकर रोया था लेकिन तुम मेरे रोने को भी गीत समझ रहे हो। हृदय में अपार वेदना के कारण मैं तो ज़ोर-ज़ोर से रोया लेकिन इसे भी तुम कविता कहना समझते रहे। कवि का कहने का अभिप्राय यह है कि यह संसार तो बिल्कुल अजीब है। यह किसी की आंतरिक भावनाओं को नहीं समझ सकता। मैं जब साधारण रूप से रोया था तो उसे यह मेरा गीत गाना समझ रहे थे लेकिन जब असीम पीड़ा के कारण मेरा हृदय जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगा तो उसे इसने मेरा कविता करना मान लिया। इस प्रकार यह हृदयहीन संसार मेरी आंतरिक पीड़ा को नहीं समझ रहा है। कवि पुनः इस जग को संबोधन कर कहते हैं कि यह संसार मुझे एक कवि मानकर क्यों अपनाना चाहता है। मैं एक कवि नहीं हूँ बल्कि मैं तो इस जहां का एक नया प्रेमी हूँ। एक नया दीवाना हूँ जो अपनी प्रेमवाणी का बखान कर रहा हूँ।

मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

शब्दार्थ – मादकता = नशा, उन्माद। निःशेष = बिल्कुल थोड़ा-सा, समाप्त।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह-भाग-2’ में संकलित तथा ‘हरिवंशराय बच्चन’ द्वारा रचित ‘आत्म-परिचय’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने संसार को प्रेम और मस्ती का संदेश दिया है जिसमें यह संसार झूम उठे तथा लहराने लगे।

व्याख्या – कवि का कथन है कि मैं इस संसार में प्रेम में पागल प्रेमियों का रूप लेकर जीवन यापन कर रहा हूँ अर्थात् मैंने अपने हृदय में एक प्रेमी को बिठाकर उसी का वेश धारण कर लिया है। मेरे हृदय में अभी भी थोड़ी सी मादकता का नशा बाकी है और उसी मादकता में डूब कर मैं जी रहा हूँ। कवि कहता है कि मैं इस हृदयहीन और दुःखी संसार को एक ऐसा मस्ती का संदेश देना चाहता हूँ जिसको सुनकर यह संपूर्ण दुःखी संसार झूम उठेगा और मस्ती में डूब कर लहराने लगेगा तथा इस मस्ती के आगे झुक जाएगा।

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