बादल राग व्याख्या – Badal Raag Kavita Vyakhya : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

आज के इस पोस्ट में आप बदल राग कविता के बारे में पढ़ने जा रहें है। यहाँ पर हमने ‘बादल राग सप्रसंग व्याख्या’ को अच्छे से समझा दिया है। यह कविता आपकी बाहरवीं की परीक्षा के सन्दर्भ में बहुत ही उपयोगी है। इसीलिए आपको इसे अच्छे से पढ़ लेना चाहिए।

बादल राग व्याख्या

तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया—
जग के दग्ध ह्रदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया—
यह तेरी रण-तेरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन,भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के,आशाओं से
नवजीवन की,ऊँचा कर सिर,
ताक रहे हैं,ऐ विप्लव के बादल !
फिर-फिर 

प्रसंग—प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह-भाग 2’ में संकलित ‘बादल राग‘ नामक कविता से अवतरित किया गया है। जिसके रचयिता सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी हैं। ये छायावाद के प्रमुख स्तंभ और साम्यवादी चेतना से प्रेरित कवि माने जाते हैं। इस काव्यांश में कवि ने बादल को विप्लव और क्रांति का प्रतीक मानकर उसका आह्वान किया है। बादल क्रांति के रूप में धरती से शोषण समाप्त कर शोषित वर्ग के जनसामान्य को नवजीवन प्रदान करने का प्रयास करते है—

व्याख्या—कवि बादल का क्रांति के रूप में आह्वान करते हुए कहता है की हे क्रांति के दूत बादल ! वायु सागर पर उसी प्रकार तैरती रहती जिस प्रकार चंचल और स्थिर न रहने वाले सुखों पर दुःखों की छाया मंडराती रहती है। अर्थात मानव जीवन में सुख अस्थायी है। हवा के समान सुख चंचल और अस्थिर है। जीवन में सुखों पर सदैव दुःख रूपी बादल मंडराते रहते हैं। मानव जीवन में सुख-दुःख की छाया का आवागमन चलता रहता है। वे कभी भी स्थिर नहीं रहते। संसार के पूंजीपति लोगों के ह्रदय पर कठोर क्रांति का मायावी विस्तार फैला हुआ है।

जैसे क्रांति संसार के शोषण और दुखों को समाप्त कर सुख और अमन के वातावरण की सृष्टि कर देती है। उसी प्रकार क्रांति का प्रतीक बादल गर्मियों की प्रचंड गर्मी से परेशान और दुखी संसार को नवीन सुख और आंनद का संदेश देने आता है। कवि कहता है कि हे क्रांति के दूत बादल ! जैसे युद्ध की नौका अनेक हथियारों और युद्ध सामग्री से भरी हुई होती है उसी तरह तुझमें भी तेरी क्रांति में जनसामान्य की इच्छाएँ भरी हुई है। शोषित वर्ग के सामान्य लोग अपने मन में अनेक इच्छाएँ लेकर तुम्हारी क्रांति के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिस प्रकार युद्ध भूमि में युद्ध के नगाड़ों की ओजपूर्ण आवाज़ को सुनकर सोये हुए सैनिक जागृत हो जाते हैं और युद्ध लड़ने के लिए तैनात हो जाते है उसी प्रकार हे क्रांति के बादल ! तेरी अत्यधिक घनघोर गर्जना को सुनकर पृथ्वी के वक्षस्थल पर सोए हुए अंकुर सजग हो उठते हैं।

वे नवजीवन की आशाएँ लेकर अपना ऊँचा सिर करके तेरी और सहायता भरी नज़रो से बार-बार देख रहे हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पृथ्वी की सतह पर छिपे अंकुरों की आशा होती है की बादलों से वर्षा होगी और वे उसके पानी का पान करके खिल कर,बढ़कर हरे भरे होकर लहलहा उठेंगे उसी प्रकार क्रांति के प्रतीक बादल से शोषित वर्ग में भी ऐसे ही नवजीवन की आशा के भाग जागने लगते हैं। उन्हें विश्वास हो जाता है कि क्रांति आने से सदियों से पीड़ित,दलित जीवन स्वतंत्र हो जाएगा। वे भी समाज में सुखपूर्वक जीवन जी सकेंगे तथा अपने जीवन को प्रगति-पथ की और अग्रसर करेंगे। 

इन्हें भी पढ़ें :-

बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार
ह्रदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।
अशनि-पात से शयति उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पद्र्धा धीर।
हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार—
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते। 

व्याख्या—कवि बादल को संबोधन कर कहता है की हे क्रांति के बादल ! तुम बार-बार तेज गर्जना करते हो और मूसलधार अर्थात घनघोर वर्षा भी करते हो। सारी धरती पर पानी ही पानी हो जाता है तुम्हारी व्रजरूपी कठोर गर्जना को सुन-सुनकर सम्पूर्ण संसार अपना ह्रदय थाम लेती है; अर्थात भयभीत हो उठता है। तुम्हारी बिजली के गिरने से उन्नति के शिखर पर चढ़े हुए सैंकड़ो हज़ारो वीर पुरुष पृथ्वी पर गिर जाते हैं। पर्वत के समान विशालकाय धैर्यवान लोग पूँजीपति भी जिनमें आकाश को छूने की निरंतर होड़ लगी है।

तुम्हारी गर्जना सुनकर या तो घायल हो जाते है या फिर मर जाते हैं। कवि का मत है कि हे क्रांति के दूत बादल तुम्हारी क्रान्तिपूर्ण वज्र रूपी गर्जना को सुनकर ये विशालकाय पूंजीपति अर्थात शोषक वर्ग के लोग जो अत्यंत धैर्य के साथ निरंतर ऊँचे ही ऊँचे जाना चाहता है घायल होकर नष्ट हो जाते हैं। कवि कहता है की हे क्रांति के बादल ! तुम्हारी वज्र रूपी घनघोर गर्जना का प्रतिकूल प्रभाव केवल पूंजीपति वर्ग के शोषकों पर ही इस क्रांति से भयभीत हो उठते हैं,अपना धैर्य खो देते हैं लेकिन इस क्रांति से ये निम्न वर्ग के शोषित लोग तनिक भी भयभीत नहीं होते। ये शोषित समाज के लोग तो तुम्हारी घनघोर गर्जना को सुन-सुनकर हँसते रहते हैं।

आनदमग्न हो उठते हैं। जब तुम भयंकर गर्जना करके बरसते हो बड़े-बड़े वृक्ष तो धरती पर आ जाते हैं। लेकिन छोटे से भार को धारण किए हुए छोटे-छोटे पौधे खिल उठते हैं। वे अपार हरियाली से युक्त होकर प्रसन्नता से हिल-हिलकर खिलखिलाते हुए हाथ हिला कर तुझे बुलाते रहते हैं। कवि का अभिप्राय यह है कि निम्न वर्ग सदा क्रांति से आनंदित हो उठता है। उसे क्रांति के स्वरों से डर नहीं लगता। फिर क्रांति की गर्जना से छोटे ही अर्थात जनसामान्य वर्ग के गरीब लोग ही शोभा प्राप्त करते हैं। क्रांति का सबसे अधिक लाभ निम्न वर्ग के शोषितों को ही प्राप्त होता हैं। 

Badal Raag Kavita Vyakhya

अट्टालिका नहीं है रे
आतंक-भावन
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।  

व्याख्या—कवि क्रांति के बादल आह्वान करते हुए कहता है कि हे क्रांति के दूत बादल! पूंजीपति या शोषक वर्ग के ये ऊँचे-ऊँचे विशाल भवन तेरी क्रांति आ जाने से ऐशो-आराम या राग-रंग के महल नहीं रह गए हैं बल्कि ये तो आंतक और भय के स्थान बन गए हैं। तुम्हारी क्रांति पूर्ण गर्जना को सुनकर सुविधा भोगी वर्ग के लोग अपने विशाल महलों में भी भयभीत हो रहे हैं। अब इन्हें मिटा दे। बाढ़ का विनाशकारी प्रभाव जिस प्रकार सदैव कीचड़ पर होता है उसी प्रकार क्रांति का फूल से पानी सदा छलकता रहता है।

उस पर कोई बुरा प्रभाव नहीं होता न ही वह बाढ़ से विचलित होता है। रोग और दुःखों में भी बच्चे का सुकोमल शरीर सदा हँसता-मुस्कुराता रहता है। ठीक ऐसे ही विनाशकारी क्रांति आ जाने पर सर्वहारा वर्ग के लोग भी हँसते-मुस्कुराते रहते हैं। क्रांति का उनके जीवन पर कोई विनाशकारी प्रभाव नहीं होता। क्रांति से पूंजीपति शोषक ही भयभित होते हैं। क्योंकि उन्हें अपने साम्राज्य के नष्ट होने का खतरा बना रहता है। सर्वहारा या शोषित वर्ग उससे तनिक भी भयभीत नहीं होते। वे तो विपरीत आनंदित होते हैं।   

रुद्ध कोष है,क्षुब्द तोष
अंगना-अंग से लिपटे भी
आंतक अंक पर काँप रहे हैं।
धनी,वज्र-गर्जन से बादल !
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।
जीर्ण बाहु,है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ए विप्लव के वीर !
चूस लिया है उसका सार,
हाड़-मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार !

व्याख्या— कवि क्रांति के प्रतीक बादल को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे क्रांति के दूध बादल ! पूंजीपति एवं  शोषक वर्ग ने शोषित वर्ग के निम्न एवं निर्धन लोगों का शोषण कर करके अपने खजाने भर लिए हैं। उन्होंने गरीबों के धन एवं उनकी संपदा पर अपना अधिकार कर लिया है। लेकिन अभी भी धन इकट्ठा करने की उनकी इच्छा समाप्त नहीं हुई। खजाने भरे होने पर भी इन धनी लोगों को संतोष नहीं है अर्थात  इनकी इच्छाएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस पर निम्न वर्ग क्रांति कर उठा है। कवि कहता है कि हे क्रांति के दूत बादल ! तेरी क्रांति की वज्र रूपी घनघोर गर्जना को सुनकर यह पूंजीपति वर्ग के लोग अपनी प्रेमिकाओं के अंग से लिपटे रहने पर भी भय से कांप रहे हैं।

निर्धन वर्ग की क्रांति के विद्रोह को देखकर अब पूंजीपति के धनिक लोग इतने भयभीत हो गए हैं कि उन्हें अपनी प्रेमिकाओं की गोद में भी डर लगता है। इस प्रकार यह शोषक वर्ग के लोग बादलों की वज्र रूपी हुंकार यह सुनकर तथा उससे डर कर अपनी आंखें और मुंह ढक रहे हैं। वह अपने को कहीं छुपाने का प्रयास कर रहे हैं। कवि कहता है की है क्रांति के वीर बादल ! यह शक्तिहीन और व्याकुल किसान तेरा आह्वान कर रहा है अर्थात तुझे सहायता हेतु पुकार रहा है। जिसकी भुजाएं पूंजीपति के शोषक के कारण जर्जर हो चुकी है और उसका सारा खून पूंजीपति ने चूस लिया है।

इसलिए अब उसका शरीर निर्बल हो गया है। पूंजीपति वर्ग के लोगों ने इस किसान का समस्त जीवन का रक्त रूपी सार चूस लिया हैऔर वह अब ढांचा मात्र शेष रह गया है। कवि कहता है कि हे जीवन के सागर ! तुम इन्हें नवजीवन प्रदान करने वाले हो। अर्थात तुम ही इन्हें शोषक वर्ग के अत्याचार से मुक्त करके नया जीवन दे सकते हो।

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