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श्री बालमुकुंद गुप्त जीवन परिचय
‘श्री बालमुकुंद गुप्त’ द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वह भारतेंदु युग और द्विवेदी युग को जोड़ने वाली कड़ी है। अच्छी कवि है, अनुवादक, निबंधकार और कुशल संपादक थे। उनका जन्म वर्ष 1865 ई. में रेवाड़ी जिले के गुड़ियानी गांव में लाला पूरनमल के यहां हुआ। अब यह गांव जिला झज्जर में आता है। गुप्त जी की आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। छात्रावस्था में वे बड़े ही अध्ययन शील एवं सहनशील थे। परंतु दादा तथा पिता के देहांत के बाद उनको अपनी शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ी।
जब बाद में अध्ययन आरंभ किया तो 21 वर्ष की आयु में में केवल मिडिल की परीक्षा ही पास कर सके। शीघ्र ही गुप्त जी ने उर्दू भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था। फलत: वे ‘अखबार-ए-चुनार’ के संपादक नियुक्त हो गए। इसके साथ साथ वे ‘ कोहिनूर’ तथा ‘ जमाना’ जैसे अखबारों के संपादकीय विभाग से भी जुड़े रहे। इसके बाद उनका रुझान हिंदी भाषा की ओर हुआ। ‘ भारत प्रताप’ पत्र के साथ जुड़ने के बाद उनके हिंदी लेखन में काफी सुधार हुआ। 1907 ई. में 42 वर्ष की अल्पायु में यह स्वर्ग सिधार गए।
बालमुकुंद गुप्त जी की संक्षिप्त जीवनी
नाम | बालमुकुंद गुप्त |
जन्म | 14 नवंबर 1865 ई. |
जन्म स्थान | गांव गुड़ियानी, झज्जर जिला (हरियाणा) |
पिता का नाम | पूरणमल गोयल |
सम्पादित पत्रिकाएँ | हिन्दोस्तान, हिन्दी बंग वासी, भारत मित्र |
प्रमुख रचनाएँ | शिव शंभू के चिट्ठे चिट्ठे और खत खेल तमाशा |
निधन | सन् 1907 ई. |
जीवंत आयु | 42 वर्ष |
प्रमुख रचनाएं
बालमुकुंद गुप्त समय के जिस संधि बिंदु पर खड़े थे, वहां इन्हें भारत का अतीत और वर्तमान पारदर्शी सत्य के समान साफ साफ दिखाई देता था और भारत का भविष्य अपने निर्णय की प्रतीक्षा में था। इसलिए इनके विपुल साहित्य में भारत के स्वर्णिम भविष्य और संभावनाओं का ध्वनि संकेत शब्द-शब्द में मुखरित हुआ।
‘शिव शंभू के चिट्ठे’ तथा ‘ चिट्ठे और खत’ इनके सर्वाधिक लोकप्रिय व्यंग्यात्मक, सामाजिक और राजनीतिक निबंधों के संग्रह हैं। वर्ष 1905 में ‘बालमुकुंद गुप्त निबंधावली’ शीर्षक से इनके निबंधों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ। इसमें 50 निबंध संकलित है। निबंधों के साथ इनके कुछ काव्य-संग्रह भी प्रकाशित हुए।
साहित्यिक विशेषताएं
श्री बालमुकुंद गुप्त मूलतः संपादक थे और उनकी प्रवृत्ति धार्मिक थी। वे देश की पराधीनता के प्रति सदैव चिंतित रहते थे। उन्होंने अपने साहित्यिक निबंधों, संपादकीय लेखों और काव्य में परतंत्रता के विरुद्ध आवाज उठाई थी। गुप्त जी ने प्रायः राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत साहित्य की रचना की है। उनके अधिकांश निबंधों में ब्रिटिश सरकार के अन्याय तथा अत्याचार पर करारा प्रहार देखने को मिलता है। वस्तुतः उन्होंने अपने लेखों द्वारा स्वाधीनता संग्राम में खुलकर भाग लिया और बड़ी निर्भयता से ब्रिटिश सरकार की आलोचना की। कहीं-कहीं वे भारतीयों की बेबसी, दुःख और लाचारी पर भी प्रकाश डालते हैं।
लेखक ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और उनकी निरंकुश नीतियों की आलोचना करते हुए भारतवासियों को जाग्रत किया तथा उनमें स्वतंत्रता की अदम्य भावना भरी। इन्होंने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन को अपने शिवशंभु के चिट्ठों के माध्यम से जी भरकर कोसा। इन्होंने अनस्थिरता शब्द की शुद्धता को लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी से काफी लंबी बहस की। हास्य एवं व्यंग्य भी इनके साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग रहा तथा इन्होंने तत्कालीन शासकों, उनकी नीतियों पर बड़े करारे व्यंग्य किए। इनकी मृत्यु पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था-“अच्छी हिंदी बस एक व्यक्ति लिखता था।”
इनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) देश प्रेम की भावना
गुप्त जी में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने अपने निबन्धों के द्वारा तत्कालीन भारतवासियों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने का प्रयास किया और इस सन्दर्भ में राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया। द्विवेदी युग के अन्य साहित्यकारों के समान उन्होंने केवल देशभक्ति की भावना पर ही बल नहीं दिया बल्कि व्यंग्यात्मक शैली द्वारा ब्रिटिश सरकार की भारत विरोधी नीतियों पर भी प्रहार किया। वे देशप्रेम से बढ़कर और कुछ भी प्रिय नहीं समझते थे लेकिन इनकी राष्ट्रीय भावना जातीयता पर आधारित थी। उन्होंने तत्कालीन जनता की हीनभावना को यथासम्भव दूर करने का प्रयास किया। विशेषकर, गुप्त जी ने ऐसे लोगों को आड़े हाथों लिया जो पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर रहे थे।
एक स्थल पर वे लिखते भी हैं-
“श्रम में, बुद्धि में, विद्या में, काम में, वक्तृता में, सहिष्णुता में, किसी बात में देश के निवासी संसार में किसी जाति के आदमियों से पीछे रहने वाले नहीं हैं वरंच एक दो गुण भारतवासियों में ऐसे हैं कि संसार भर में किसी जाति के लोग उनका अनुसरण नहीं कर सकते।”
(ii) गाँधीवादी विचारधारा का प्रतिपादन
गुप्त जी के साहित्य पर गाँधीवाद का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। वे गाँधी जी के अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि सिद्धान्तों में पूर्ण विश्वास करते थे, लेकिन कहीं-कहीं वे उनका विरोध भी करते हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा कि हमें विदेशी माल को ठुकराकर स्वदेशी माल का प्रयोग करना चाहिए। लघु तथा कुटीर उद्योगों की स्थापना पर ध्यान देना चाहिए।
अपनी कविता ‘आशीर्वाद’ में वे लिखते भी हैं-
“अपना बोया आप ही खावें, अपना कपड़ा आप बनायें।
बढ़े सदा अपना व्यापार, चारों दिस हो मौज बहार।
माल विदेशी दूर भगावें, अपना चरखा आप चलावें।
कभी न भारत हो मुँहताज, सदा रहे टेसू का राज।”
(iii) ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध
गुप्त जी ने अपने निबन्धों के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भी सर्वत्र विरोध किया है। वे अपने जीवन काल में अनेक समाचारपत्रों के सम्पादक रहे और उन्होंने हमेशा ब्रिटिश की भारत विरोधी नीतियों का खण्डन किया। उनका विचार था कि ब्रिटेन में भले ही कोई भी राजनीतिक दल हो, लेकिन उनका लक्ष्य एक ही है-भारतवासियों का शोषण करना। ‘सच्चाई’, ‘विदाई संभाषण’ तथा ‘पीछे मत फेंकिए’ आदि निबन्धों में गुप्त जी ने ब्रिटिश सरकार को आड़े हाथों लिया। अपनी एक कविता ‘पॉलिटिकल होली में अपनी निर्भीकता का परिचय देते हुए उन्होंने लॉर्ड कर्जन पर भी करारे व्यंग्य किए हैं।
‘सच्चाई’ नामक कविता में वे लिखते भी हैं-
है कानून जबान हमारी, जो नहीं समझे वे अनाड़ी।
हम जो कहें वही कानून, तुम तो हो कोरे पतलून।।
(iv) समाज सुधार पर बल
द्विवेदी युगीन साहित्यकार होने के कारण गुप्त जी ने भी अन्य साहित्यकारों के समान समाज सुधार पर अधिक बल दिया। सही अर्थों में वे लोक जागरण के निबन्धकार हैं। उन्होंने अपने निबन्धों और सम्पादकीय लेखों में देश की गुलामी के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों और जड़-परम्पराओं का डटकर विरोध किया है। वे सम्पूर्ण भारतवर्ष को स्वतन्त्र देखना चाहते थे, क्योंकि उनका विचार था कि ब्रिटिश शासक कभी भी भारतवासियों का भला नहीं कर सकते। एक धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने धार्मिक आडम्बरों का पर्दाफाश किया। उनका विचार था कि देश की स्वतन्त्रता के साथ-साथ सामाजिक जागरण भी नितान्त आवश्यक है। इस सन्दर्भ में उन्होंने नारी सुधार पर बल दिया और सामाजिक कुरीतियों पर करारे व्यंग्य किए।
(v) इतिवृत्तात्मकता
गुप्त जी ने द्विवेदी युगीन साहित्यकार होने के कारण पूर्णतया इतिवृत्तात्मक शैली को अपनाया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य लगभग शृंगार रस से हीन है। इनके साहित्य में आदर्शवादिता, सात्विकता और सामाजिक जागरण आदि प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं। इनमें श्रृंगार के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने सीधी-सादी शब्दावली में इति वृत्तात्मकता शैली अपनाते हुए काव्य रचना भी की है। अपनी कविता ‘पॉलिटिकल होली’ में वे लिखते हैं-
टोरी जायें लिवरल आयें होती है, भई होती है।
भारतवासी खैर मनावें। होली है, भई होली है।
लिबरल जीते टोरी हारे हुए मार्ली सचिव हमारे।
भारत में तब बजे नगारे। होली है, भई होली है।
(vi) अनुवाद कार्य
गुप्त जी एक सफल अनुवादक के रूप में भी जाने जाते हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने युग के सभी साहित्यकारों को प्रेरित किया था कि वे बंगला, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शेष साहित्य का हिन्दी में अनुवाद अवश्य करें। अतः गुप्त जी भी द्विवेदी जी से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने जहाँ एक ओर संस्कृत की नाटिका ‘रत्नावली’ का हिन्दी में अनुवाद किया वहीं दूसरी ओर बंगला की ‘बडेल भगिनी’ का भी हिन्दी में अनुवाद किया। इसके लिए उन्होंने प्रायः वर्णन प्रधान इतिवृत्तात्मक शैली को ही अपनाया।
(vii) व्यंग्य का प्रयोग
गुप्त जी के निबन्धों में सर्वत्र व्यंग्य देखा जा सकता है। अपनी व्यंग्यात्मक शैली द्वारा उन्होंने ब्रिटिश सरकार की कूटनीतियों का पर्दाफाश किया। इस सन्दर्भ में ‘शिव शम्भू का चिट्ठा’ उनका ख्याति प्राप्त संग्रह है जिसमें काफी तीखें व्यंग्य लेख संकलित हैं। ‘पीछे मत फेंकिए’ निबन्ध में वे अंग्रेजी सरकार पर करारा व्यंग्य करते हुए उसकी तुलना रावण के साथ करते हैं।
“इस घराधाम में अब अंग्रेजी प्रताप के आगे कोई उंगली उठाने वाला नहीं है। इस देश में एक महाप्रतापी राजा का वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इन्द्र उसके यहाँ जल भरता था, पवन उसके यहाँ चक्की चलाता था, चाँद-सूरज उसके यहाँ रोशनी करते थे, इत्यादि। पर अंग्रेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया है। समुद्र अंग्रेजी राज्य का मल्लाह है, पहाड़ों की उपत्यकायें बैठने के लिए कुर्सी, मूढ़े, बिजली कलें चलाने वाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़ने वाली दूती, इत्यादि।”
एक अन्य स्थल पर गुप्त जी ने मांस मदिरा का सेवन करने वालों पर भी व्यंग्य करते हुए लिखा है-
एक ही गाओ एक ही हयाओ, करो उसी का ध्यान ।
जो बोतल में सो होटल में निराकार भगवान ।।
उसी का ध्यान लगाओ, उसी में मन भटकाओ।
वही है मक्खन, बिस्कुट, वही है मुर्गी कुक्कट ।।
अगल बगल में बिस्कुट मारो बोतल रखो पास।
आँख मूँद कर ध्यान लगाओ छः रितु बारह मास ।।
गुप्त जी की भाषा शैली
बालमुकुन्द गुप्त ने सहज, सरल एवं व्यावहारिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है। वस्तुतः उनकी भाषा तत्कालीन हिन्दी भाषा है। जिसे हम परिष्कृत हिन्दी भाषा नहीं कह सकते। कारण यह है कि उनके निबन्धों में उर्दू तथा सामान्य बोलचाल वाले शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है फिर भी उन्होंने खड़ी बोली को साहित्यिक रूप प्रदान करने का भरसक प्रयास किया। कुल मिलाकर उनकी भाषा में तत्सम्, तद्भव, अंग्रेजी तथा उर्दू के शब्दों का मिश्रण देखा जा सकता है। वस्तुतः उनकी भाषा एक सम्पादक की भाषा है। इसे शुद्ध साहित्यिक हिन्दी भाषा नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने प्रायः विचारात्मक, व्यंग्यात्मक तथा नवीन विवेचनात्मक शैलियों का सफल प्रयोग किया है। व्यंग्य के लिए तो वे एक विख्यात निबन्धकार माने जाते हैं। उनका एक प्रसिद्ध निबन्ध ‘आशा का अंत’ में भी उन्होंने इसी शैली का प्रयोग किया है।
प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनकी भाषा शैली के बारे में उचित ही लिखा है –
“गुप्त जी की भाषा बहुत चलती, सजीव और विनोदपूर्ण होती थी। किसी प्रकार का विषय हो, गुप्त जी की लेखनी इस पर विनोद का रंग चढ़ा देती थी। वे पहले उर्दू के एक अच्छे लेखक थे। इससे उनकी हिन्दी बहुत चलती और फड़कती हुई थी, वे अपने विचारों को विनोदपूर्ण वर्णनों के भीतर ऐसा लपेटकर रखते थे कि उनका आभास बीच-बीच में मिलता था। उनके विनोदपूर्ण वर्णनात्मक विधान के भीतर विचार और भाव लुके-छिपे से रहते थे। यह उनकी लिखावट की बड़ी विशेषता थी।”
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