बात सीधी थी पर व्याख्या | Baat Sidhi Thi Par Vyakhya

नमस्कार दोस्तों, आपका हिंदीशाला वेबसाइट पर एक बार फिर से हार्दिक स्वागत है। आज के इस ब्लॉग में हम ‘कुंवर नारायण‘ द्वारा रचित ‘बात सीधी थी पर’ कविता की व्याख्या को पढ़ने जा रहें है। बाहरवीं बोर्ड की परीक्षा के संदर्भ में यह कविता बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसलिए आपको इस सम्यक् रूप से पढ़ लेना चाहिए।

बात सीधी थी पर व्याख्या 

बात सीधी थी पर व्याख्या

बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए—
लेकिन इससे भाषा के साथ-साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई। 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘कुँवर नारायण‘ द्वारा रचित कविता ‘बात सीधी थी पर‘ से ली गई है।इस कविता में कवि ने कथ्य और माध्यम के दंवद्व को प्रस्तुत करते हुए भाषा के सहज प्रयोग पर बल दिया है।

व्याख्या :- कवि कहता है कि जब भी कभी अपनी सीधी-सादी भावना को व्यक्त करना चाहता है तो भाषा के चक्कर में फंस कर वह अपनी बात को सहज रूप से कह नहीं पाता बल्कि उसकी बात बिगड़ जाती है। वह बात अधिक कठिन हो गई। उसे सरल बनाने के लिए कवि ने भाषा में अनेक परिवर्तन किए जिससे भाव और भाषा में तालमेल बन जाए अथवा बात भाषा से बाहर निकल आए। 

परंतु भाषा के आडंबरपूर्ण प्रयोगों से उसकी बात स्पष्ट न होकर और अधिक उलझती गयी तथा उसे समझना और भी कठिन हो गया। वह बात को जितना अधिक सहज बनाना चाहता था, भाषा के जाल में उलझ कर वह और भी अधिक असहज हो गेई। अब वह पहले से भी अधिक पेचीदा हो गयी अर्थात उसका रूप बिगड़ गया।

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Bat Sidhi Thi Par Vyakhya

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेज को खोलने के बजाए 
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्योंकि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनो  की शाबाशी और वाह वाह। 
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
ज़ोर ज़बरदस्ती से 
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।  

व्याख्या :- कवि कहता है कि सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना ही वह बात को सहज और स्पष्ट करने की अपेक्षा उसे बिना नियमों के ही बदल रहा था क्योंकि यह कार्य करने पर मुझे तमाशा देखने वाले लोगों की शाबाशी और वाह-वाही साफ-स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी, अर्थात मेरे इस भाषा प्रयोग पर मुझे कथ्य एवं भाव को समझे बिना ही मूर्ख लोगों की शाबाशी तथा प्रशंसा सुनाई पड रही थी। 

अतंतः इसका वही दुष्परिणाम निकला जिसका डर था कि उस बात का प्रभाव खत्म हो गया। वह अर्थहीन बन गई और भाषा के लिए उसका कोई महत्व नहीं रहा तथा भाषा के लिए व्यर्थ सिद्ध हुई। वह मात्र शब्द जाल बन कर रह गई। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार जोर-जबरदस्ती करने से किसी पेंच की चूड़ी मर जाती है और वह पेंच बेकार हो जाता है।

कुंवर नारायण Kavita Vyakhya

हार कर मैंने उसे कल की तरह
उसी जगह ठोंक दीया। 
ऊपर से ठीक-ठाक
पर अंदर से
मैं तो उस में कसाव था
न ताकत।
बात ने,जो एक शरारती बच्चे की तरह 
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते देखकर पूछा—
क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बर्तना कभी नहीं सीखा?

व्याख्या :- कवि कहता है कि जब उससे उसकी बात स्पष्ट नहीं हो सकी, वह प्रभावहीन हो गई तथा और भी अधिक उलझती गई तो उसने उसे उसी स्थान पर वैसे ही छोड़ दिया जैसे पेंच की चूड़ियाँ मर जाने पर उसे कील की तरह उसी स्थान पर ठोंक दिया जाता है जहाँ से वह निकल नहीं पाता। ऐसी स्थिति मैं ऊपर से सब कुछ सुंदर और आकर्षक लगता है परंतु उसमें सहज रूप से कसाव और ताकत नहीं होती। आडम्बरपूर्ण शब्दावली से वाह-वाही तो मिल जाती है परंतु बात स्पष्ट नहीं हो पाती।

अब वह बात मेरी पकड़ में अर्थात समझ में नहीं आ रही थी। इसलिए जब मैं अपनी बात को स्पष्ट ना कर सका तो एक शरारती बच्चे के समान मुझसे खेलने वाली बात ने मुझे पसीना पोंछते देखकर मुझसे पूछा कि क्या मैंने भाषा को सहजता से व्यवहार मे लाना नहीं सीखा है? वह जानना चाहता था कि मैं शब्द जाल में फंस कर क्यों अपनी बात को उलझाता गया जबकि सहज, सरल भाषा में अपनी बात कह कर मैं सबको अपनी बात समझा सकता था।

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