Contents
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग
भक्तिकाल : एक स्वर्ण युग साहित्य के संदर्भ में स्वर्ण युगीन साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से होता जिसका संबंध सार्वकालिक, सार्वभौमिक तथा सार्वदेशिक हो। जिसमें सभ्यता और संस्कृति का निचोड़ हो, जो अपने भावों विचारों तथा भाषा के द्वारा सर्वकालीन साहित्य से उत्कृष्ट हो । स्वर्णयुगीन साहित्य सदैव सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की त्रिवेणी में स्नान करता है। उसमें आदर्श और यथार्थ तथा भाव एवं कला का ऐसा आनुपातिक समन्वय रहता है, जो अपने आने वाले समय के लिए एक स्थायी मापदण्ड बन जाता है।
वस्तुतः हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के काव्य में यह सभी गुण हैं। सभी साहित्य लेखक और विद्वान् निर्विवाद रूप से इस काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण-युग मानते हैं।
डॉ. श्याम सुंदर दास का कथन है-
“जिस युग में कबीर जायसी, सूर, तुलसी जैसे सुप्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतया भक्ति युग कहते हैं-निश्चय ही यह हिन्दी साहित्य का स्वर्ण-युग है।”
स्वर्ण युगीन साहित्य का स्वरूप निर्धारित हो जाने के पश्चात् जब हम इसकी अन्य कालों से तुलना करते हुए इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं, तो निश्चित रूप से यह काल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाने को हकदार हो जाता है।
भक्तिकाल की अन्य कालों से तुलना-हिन्दी साहित्य में सं. 1375 से 1700 तक के कालखण्ड को भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है। जब हम इसकी तुलना हिन्दी साहित्य के अन्य कालों से करते हैं तो यह उन सबसे श्रेष्ठ काल साबित होता है। हिन्दी का आदिकाल वह काल है जिसमें लिखी रचनाएँ कुछ तो अप्रामाणिक हैं, कुछ अपभ्रंश भाषा में रचित हैं तो कुछ उस काल का ही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं।
यही नहीं उस काल के साहित्य में व्यापक राष्ट्रीयता तथा मानवीय भावनाओं का भी नितांत अभाव है। दूसरे, रीतिकाल केवल शृंगार काल है, यह भी भक्ति युग के आगे कहीं नहीं ठहरता, क्योंकि यहाँ कविता बाहरी प्रदर्शन की वस्तु होकर रह गई है तथा उसका भावपक्ष दब गया है। हाँ, आधुनिक काल अपनी व्यापक रचनाओं (गद्य, पद्य) के कारण अवश्य इसके समकक्ष आने की होड़ में है। परंतु उसमें भी विश्व साहित्य के भाव नहीं हैं। यह केवल विद्वानों के अध्ययन का ही विषय है। अतः यह भी भक्तिकाल से नीचे की श्रेणी में ही आता है।
1. स्वान्तः सुखाय काव्य
भक्तिकाल के कवि दरबारी कवि नहीं थे तथा न ही वे किसी को प्रसन्न करने के लिए काव्य रचना करते थे। उन्होंने जिस काव्य की रचना की वह स्वयं की प्रसन्नता के लिए की। परंतु उनका यह काव्य लोक मंगल और लोक प्रसन्नता का पर्याय बन गया, जिसने समाज को आनंद और उल्लास प्रदान किया।
2. भारतीय संस्कृति का काव्य
भक्ति-कालीन काव्य भारतीय संस्कृति का सुंदर चित्र प्रस्तुत करता है। इसमें धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, सगुण-निर्गुण, भक्ति, ज्ञान, कर्म, योग, उपासना, आध्यात्मिकता के भव्य चित्र समाहित हैं। भक्ति-कालीन साहित्य तत्कालीन जनता का उन्नायक, प्रेरक एवं उद्धर्ता है तथा भारतीय संस्कृति और आदर्श का उपदेष्टा है, जो आज भी हिन्दू जन-जीवन के लिए प्रातः स्मरणीय है।
3. समन्वय भावना
समन्वय की प्रवृत्ति भक्तिकाल की प्रमुख विशेषता है। इस युग में निर्गुणोपासक संत यदि हिन्दू-मुसलमानों में भावात्मक एकता पैदा करके राष्ट्रीय समस्या का समाधान खोज रहे थे, तो सूफी कवि विभिन्न भारतीय धर्म-साधनाओं की अवधारणाओं को ग्रहण करके, भारतीय जनता को उदारता-पूर्वक अपनाते हुए, आत्म प्रसार के लिए व्यापक समन्वय के मार्ग को अपना रहे थे।
इसी प्रकार सगुणोपासक राम भक्त कवि (विशेष-तुलसीदास) निर्गुणसगुण, ज्ञान-भक्ति, स्वर्ण-शूद्र, द्वैत-अद्वैत का समन्वय करने में लगे हुए थे। वहीं कृष्ण भक्त सूरदास एक ऐसे भक्ति सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे थे जहाँ राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष, स्वामी सेवक, ब्राह्मण-शूद्र, ज्ञानी-अज्ञानी, कुलीन-अकुलीन आदि के भेदभाव अपने आप समाप्त हो जाएँ। इस प्रकार समस्त भक्तिकालीन साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा को फलीभूत करता है।
4. आदर्श समाज की स्थापना
भक्तिकालीन साहित्य का महत्त्व सामाजिक दृष्टि से भी है। तत्कालीन समाज, जो टोने-टोटकों, विभिन्न आडम्बरों, जाति-पाति के भेदभाव के कारण विकृत हो चुका था, संत कवियों ने अपनी अक्खड़ता से उसकी बुराइयों को दूर किया, सूफी कवियों ने प्रेम की पीर काव्य के द्वारा हिन्दू-मुस्लिमों के भेदभाव को मिटाया, सूरदास ने समाज का रंजन किया। यहीं नहीं तुलसीदास ने तो अपने रामचरितमानस के द्वारा एक ऐसे समाज की स्थापना की, जो पूर्ण-रूपेण आदर्श था। उनका यह महाकाव्य भाई-भाई के आदर्श, पति-पत्नी के आदर्श, माता-पिता पुत्र के आदर्श तथा मर्यादाओं का विराट रूप प्रस्तुत कर एक आदर्श समाज की स्थापना करता है।
5. उच्चकोटि का साहित्य
भक्तिकालीन साहित्य केवल भक्ति से ही सम्बद्ध नहीं है, अपितु इस युग का काव्य अपने विभिन्न काव्य रूपों की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है। तुलसी का रामचरितमानस रामभक्ति का प्रतिपादक ग्रंथ होने के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। सूरदास का ‘सूरसागर बल्लभाचार्य द्वारा बताए गए पुष्टिमार्ग की महिमाओं का निबंधन करने के साथ एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य भी है। कबीर का काव्य बेशक अटपटी वाणी में है, परंतु मुक्तक काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। पद्मावत हिन्दी साहित्य का पहला महाकाव्य माना जाता है। इस प्रकार इस काल में काव्य के जो रूप देखने को मिलते हैं, वे भी निश्चित रूप से इसे स्वर्ण-युगीन काव्य होने का अधिकारी बनाते हैं।
6. भावपक्ष और कलापक्ष का संयोग
इस काल के काव्य में भाव और कला का मणिकाञ्चन संयोग देखने को मिलता है। यह संपूर्ण काव्य संगीतमय है। संगीतमयता के लिए जिस आत्मविश्वास, तीव्र अनुभूति, सहज स्फूर्ति और अंतःप्रेरणा की आवश्यकता होती है, भक्त कवियों वह पर्याप्त है। इनके काल की भाषा इनके काव्य रूपों के अनुकूल है।
कबीर, सूर, मीरा के गीतों में भाषा का भावात्मक रूप देखने को मिलता है। इसके अलावा जायसी, तुलसी एवं सूर को अवधी तथा ब्रज भाषा का उन्नायक काव्य कहा जा सकता है। साथ ही इस काल का काव्य छंद, अलंकार, शैली, रस आदि की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इस काल के काव्य में नवरसों, दोहा, चौपाई, पदों का सायास तथा अलंकारों का सायास व अनायास भव्य प्रयोग हुआ है।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इस युग का न केवल अपने से पहले तथा बाद के साहित्य से श्रेष्ठ है, अपितु यह काव्य ऐसे कवियों के द्वारा रचित है, जो किसी के आश्रित नहीं हैं। इसलिए वे जो कुछ लिखते हैं समाज को सुखी बनाने का आधार लेकर लिखते हैं। इसलिए स्वतः ही यह काव्य स्वर्ण युग की विशेषताओं से विभूषित हो जाता है।