Contents
ध्रुवस्वामिनी का चरित्र चित्रण
ध्रुवस्वामिनी इस नाटक की सर्वाधिक प्रमुख पात्र है। सम्पूर्ण नाटक उसी के चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता है। वह चन्द्रगुप्त की वाग्दत्ता है, परंतु उसका विवाह छलपूर्वक अयोग्य रामगुप्त से हो जाता है। वह अपने वैवाहिक जीवन से पूर्णतः असंतुष्ट है तथा मन ही मन चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है। चन्द्रगुप्त की सहायता से ही वह अपनी समस्याओं से मुक्त होती है। नाटक के आधार पर उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विवशता व दुःख की शिकार
नाटक के आरंभ में ध्रुवस्वामिनी एक निरीह और विवश नारी के रूप में प्रकट होती है। वह अपने वैवाहिक जीवन की विडम्बना से दुखी है। उसे पति मिला तो मद्यप, विलासी, कायर और अयोग्य! उसका अनमेल राक्षस विवाह उसकी अंतरात्मा को कचोट रहा है, पर वह सब विवश भाव से सहती है। वह महारानी होते हुए भी सब अधिकारों से वंचित है। वह एक तरह से बंदी रखी गई है। अपनी विवशता व दुख को प्रकट करते हुए वह दासी से कहती भी है-
“चलूँगी क्यों नहीं? किंतु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण पिंजर है।”
2. पति द्वारा अपमानित
ध्रुवस्वामिनी का वाग्दान चंद्रगुप्त के लिए हुआ था, परंतु शिखरस्वामी के छल के कारण उसका विवाह रामगुप्त जैसे मद्यप, कायर और भीरु व्यक्ति से हो गया। वह यह समझता है कि ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से प्रेम करती है। अतः वह हमेशा उसकी उपेक्षा करता है, उससे बात तक नहीं करता, यहाँ तक कि शकराज के उस घृणित प्रस्ताव को भी सहर्ष स्वीकार कर लेता है जो उसने उसकी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को अपनी विलास सहचरी बनाने के लिए भेजा था। यही नहीं वह उसके चरित्र पर लांछन लगाकार कर भी सदैव उसका अपमान करता है।
3. पति-परायण अबला
पति की उपेक्षाओं व अपमानों की शिकार होने पर भी ध्रुवस्वामिनी एक भारतीय पति-परायण पत्नी है। वह अपने विषम जीवन से भी समझौता करना चाहती है। वह अपने पति के पाँव पड़कर अपने नारीत्व की रक्षा की भीख माँगने में भी संकोच नहीं करती। वह पूर्ण आत्म-समर्पण करने को प्रस्तुत हो रामगुप्त से कहती है-
“मेरी रक्षा करो। मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो। राजा, आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ। मैं स्वीकार करती हूँ कि आज तक मैं तुम्हारे बिलास की सहचरी नहीं हुई, किंतु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी।”
4. आत्मसम्मान की रक्षिका
हालांकि रामगुप्त से अपने नारीत्व की भीख माँगते समय ध्रुवस्वामिनी एक अबला नारी के रूप में प्रस्तुत होती है, परंतु जब घोर अपमान के साथ रामगुप्त उसकी याचना को ठुकरा देता है तो उसका आत्मसम्मान जाग्रत हो जाता है तथा वह स्वयं अपने आत्मसम्मान की रक्षा का भार वहन करने को तत्पर हो जाती है और कहती है-
“निर्लज्ज! मद्यप! क्लीव! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं ? (ठहरकर) नहीं, अपनी रक्षा में स्वयं करूँगी! मैं उपहार में देने की वस्तु शीतलमणी नहीं हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्म सम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूंगी।”
5. तर्कशीला
ध्रुवस्वामिनी एक तर्कशील स्त्री है। नाटक में वह अनेक स्थलों पर अपने तर्कशील होने का प्रमाण देती है। यथा जब रामगुप्त यह सुनकर कि पहले ध्रुवस्वामिनी का संबंध शकराज से ही स्थिर हुआ था, शकराज के प्रस्ताव को मानने की कोशिश करता है, तब वह तर्क करते हुए कहती है- “महाराज! किंतु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री संप्रदान से ही बढ़ा है।” इसी प्रकार उसकी तर्कशीलता कुछ अन्य स्थलों पर भी प्रकट होती है।
इन्हें भी पढ़े :-
चन्द्रगुप्त का चरित्र-चित्रण PDF
ध्रुवस्वामिनी नाटक का नायकत्व
“किंतु क्या धूर्त होने से ही मनुष्य भूल नहीं कर सकता। आर्य समुद्रगुप्त के पुत्र को पहचानने में तुमने भूल तो नहीं की। सिंहासन पर भ्रम से किसी दूसरे को तो नहीं बिठा दिया।”
6. विद्रोहिणी
चंद्रगुप्त का सहारा पाकर ध्रुवस्वामिनी का विक्षोभ मुखर हो जाता है। वह न केवल आत्महत्या का विचार बदल देती है, अपितु वीरतापूर्वक चंद्रगुप्त के साथ शकराज के पास जाती है और शकराज को मारने में चंद्रगुप्त की सहायिका बनती है। वह जीवन-संघर्ष से घबराती नहीं है। वह पुरोहित को फटकारती है-
“रोष? हाँ में रोष से जली जा रही हूँ। इतना बड़ा उपहास-धर्म के नाम पर स्त्री की आत्मीयता की यह पैशाचिक परीक्षा मुझसे बलपूर्वक ली गई है। पुरोहित! तुमने जो मेरा राक्षस विवाह कराया है उनका उत्सव भी कितना सुंदर है।”
7. चंद्रगुप्त की प्रेरक
ध्रुवस्वामिनी न केवल स्वयं विरोध और विद्रोह का स्वर प्रकट करती है, अपितु चंद्रगुप्त जब अब अपने भाग्य की विडम्बना से मौन रहता है, तो वह उसे भी विरोध के लिए प्रेरित करती हुई कहती है-
“कुमार! मैं कहती हूँ कि तुम प्रतिवाद करो। किस अपराध के लिए यह दण्ड ग्रहण कर रहे हो ?… झटक दो इन लौह-श्रृंखलाओं को यह मिथ्या ढोंग कोई नहीं सहेगा- तुम्हारा क्रुद्ध दुर्दैव भी नहीं!”
8. सहृदय व करुणामयी
जहाँ ध्रुवस्वामिनी अपनी व्यक्तिगत विडम्बनाओं से पीड़ित एक क्षुब्ध नारी के रूप में प्रकट होती है, वहीं उसमें सहृदयता एवं करूणा भी कम नहीं है। हालांकि अपने क्षोभ के कारण पहले कोमा को शकराज का शव देने से इंकार कर देती है, परंतु उसके द्वारा प्रेम की दुहाई देने पर थोड़ी झल्लाहट के साथ वह उसे शव ले जाने की आज्ञा दे देती है।
“जलो, प्रेम के नाम पर जलना चाहती हो, तो तुम शव को ले जाकर जलो, जीवित रहने पर मालूम होता है कि तुम्हें अधिक शीतलता मिल चुकी है। अवश्य तुम्हारा जीवन धन्य है। (सैनिक से) इसे ले जाने दो।”
इसी प्रकार निरीह मिहिरदेव और कोमा की रामगुप्त द्वारा निर्मम हत्या पर वह शोक करती है। इन प्रसंगों से उसके सहृदय एवं करूणामयी होने का पता चलता है।
9. चतुर
ध्रुवस्वामिनी चतुर तथा बुद्धिमान स्त्री है। वह अपनी चतुराई से सामंतकुमारों को ठीक समय पर उचित शब्दों के प्रयोग से अपने पक्ष में कर लेती है, पुरोहित की सहानुभूति अपने प्रति बना लेती है तथा चंद्रगुप्त को प्रेरित कर विद्रोह कराती है। शक दुर्ग में स्थिति को सतर्कता से संभाल लेती है। दुर्ग की स्वामिनी बनकर नेतृत्व करती है।
10. सच्ची प्रेयसी
ध्रुवस्वामिनी का हृदय एक सच्ची प्रयेसी का हृदय है। वह चंद्रगुप्त की वाग्दत्ता है तथा उसके प्रति उसका सहज अनुराग है। वह अनेक स्थलों पर उसके प्रति अपने अनुराग का प्रदर्शन भी करती है। जब चंद्रगुप्त अकेला ही शक-शिविर में जाने की बात कहता है तब वह उसे अपनी भुजाओं में पकड़कर कहती है-
“नहीं में तुमको न जाने दूँगी। मेरे क्षुद्र निर्बल, नार जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं।”
यह कथन उसकी सच्ची प्रणय भावना को ही प्रकट करता है।
उसका पति क्लीव-कायर है। ऐसी अस्वाभाविक स्थिति में वह पति से मोक्ष चाहती है। उसके मन में अंतर्द्वन्द्व चलता है कि क्या यह पाप है? क्या अपने पति से घृणा करना और चंद्रगुप्त में अनुराग रखना उसके मन का कलुष है? पर वह इस परिस्थिति में पाप नहीं समझती। वह धर्म-शास्त्र की व्यवस्था द्वारा रामगुप्त से मोक्ष प्राप्त कर दम लेती है।
इस प्रकार ध्रुवस्वामिनी के उपर्युक्त गुणों और विशेषताओं के आलोक में कहा जा सकता है कि ध्रुवस्वामिनी इस नाटक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र है जो नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र को प्रेरित करके कथा के फल की प्राप्ति करती है। वस्तुतः वह ही इस नाटक का नायक सिद्ध होती है।