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ध्रुवस्वामिनी नाटक तात्विक समीक्षा
‘ध्रुवस्वामिनी’ जयशंकर प्रसाद जी का एक श्रेष्ठ नाटक है। इस नाटक में प्रसाद जी की निर्दोष नाट्य कला के दर्शन होते हैं। यह नाटक रंगमंच एवं कलात्मकता दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ नाटक है। इस नाटक की कथा ऐतिहासिक होते हुए भी सरल एवं स्पष्ट है। नायिका के नाम पर नामित यह नाटक कल्पना और इतिहास का मिश्रण प्रस्तुत करता है। इस नाटक को पढ़ने के पश्चात् नाटक के तत्वों के आधार पर इसकी जो विशेषताएँ उभर कर आती हैं, इस प्रकार हैं-
1. कथानक
‘ध्रुवस्वामिनी’ का मूल कथानक ऐतिहासिक है, पर प्रसाद जी ने इसमें अपनी कल्पना के कई रंग भर दिए हैं। लेखक ने इसके कथानक का मुख्य आधार गुप्तवंश को बनाया है। साथ ही कल्पना द्वारा कई रोचक प्रसंगों की सृष्टि भी की है। नाटक के कथानक का आरम्भ गुप्त वधू ध्रुवस्वामिनी के युद्ध शिविर में प्रवेश से होता है। वहाँ वह अपनी दासी के समक्ष अपने पति रामगुप्त के प्रति उसकी दुष्प्रवृत्तियों के चलते उपेक्षा तथा कुमार चंद्रगुप्त के सहृदय व्यवहार के कारण उसके प्रति आकर्षण के भाव प्रकट करती है। उसी समय रामगुप्त को यह सूचना मिलती है कि शकराज ने उनको दोनों ओर से घेर लिया है तथा संधि के बदले वह ध्रुवस्वामिनी और अपने सामंतों के लिए मगध के सामन्तों की स्त्रियों को चाहता है।
कायर रामगुप्त शकराज का यह पूणित प्रस्ताव इसलिए मानने को तैयार है, क्योंकि इससे वह (अन्दर ध्रुवस्वामिनी और बाहर शकराज ) दोनों दुश्मनों से बच सकता है। परंतु चंद्रगुप्त जिसने पारिवारिक कलह के डर से अपने सभी अधिकार यहाँ तक कि अपनी वाग्दत्ता ध्रुवस्वामिनी को भी त्याग दिया था, इस अवसर पर न केवल ध्रुवस्वामिनी की मर्यादा की रक्षा करता है बल्कि शकराज को मार देता है तथा अपने अधिकारों की बात राजसभा में उठाता है। दूसरी ओर, इस घटना के पश्चात् ध्रुवस्वामिनी भी कायर रामगुप्त के साथ नहीं रहना चाहती। नाटक के अंत में धर्म-परिषद् के निर्णय के कारण दोनों का तलाक हो जाता है तथा चंद्रगुप्त व ध्रुवस्वामिनी एक हो जाते हैं। इस अवसर पर रामगुप्त एक सामन्त द्वारा मारा जाता है।
इस प्रकार इस नाटक का कथानक अत्यंत संक्षिप्त, कौतूहलपूर्ण एवं नाटकीय है। घटनाओं से भरपूर यह नाटक तीन अंकों में समाप्य है। इसकी कथा में हर समय हलचल और सक्रियता का बातावरण बना रहता है। लेखक ने इसमें इतिहास से इतर कुछ प्रसंगों जैसे खड्गधारिणी प्रसंग, मन्दाकिनी प्रसंग, शकराज कोमा प्रणय प्रसंग, सामन्त कुमार द्वारा रामगुप्त की हत्या, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी दोनों का शक दुर्ग में जाने का समावेश कर इसमें अपनी कल्पना के रंग भर दिए हैं, जिससे इसका कथानक और अधिक सजीव हो उठा है।
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2. पात्र और चरित्र चित्रण
किसी भी नाटक की सफलता में उसके पात्रों का बहुत बड़ा योगदान होता है। पात्रों के द्वारा ही नाटककार अपने भावों की अभिव्यक्ति पाठक तक पहुँचाता है। नाटक की सफलता के लिए नाटक में पात्रों की संख्या सीमित होनी चाहिए ताकि एक आम पाठक उसे समझ सके।
पात्रों की दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी एक सफल नाटक कहा जा सकता है। प्रसाद जी के अन्य नाटकों की भाँति इसमें पात्रों की भीड़ नहीं है। इस नाटक में कुल 8-9 पात्र हैं। इनमें मुख्य ध्रुवस्वामिनी, चंद्रगुप्त, रामगुप्त, शिखरस्वामी, शकराज, कोमा, मन्दाकिनी व मिहिरदेव आदि हैं। प्रसाद जी ने इन सबका चरित्र-चित्रण बहुत ही सजीव एवं स्वाभाविक तरीके से किया है। चूंकि यह नाटक
नायिका प्रधान नाटक है, और घुवस्वामिनी इसकी नायिका है तथा वही इस नाटक में आदि से अंत तक छाई रहती है, अतः लेखक ने उसके व्यक्तित्व में सुंदरता, सुकुमारता, कोमलता, नारी की विवशता, नारी का स्वाभिमान, साहस- वीरता आदि नायिकोचित गुणों को उभारा है। इसी प्रकार लेखक ने चंद्रगुप्त के चरित्र को भी बहुत सुंदर व्यक्तित्व प्रदान किया है तथा उसे नायक के रूप में चित्रित किया है। यही वह पात्र है, जो ध्रुवस्वामिनी के ऊपर आई हुई मुसीबत को दूर करता है। इसके अलावा शिखरस्वामी, रामगुप्त व शकराज को प्रसाद जी ने खलनायक के रूप में चित्रित किया है। साथ ही प्रस्तुत नाटक में लेखक ने दो काल्पनिक पात्रों-कोमा और मन्दाकिनी को भी जीवन्तता प्रदान की है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि चरित्र चित्रण के आधार पर भी यह एक सफल नाटक है।
3. कथोपकथन
संवाद नाटक का महत्त्वपूर्ण तत्त्व होते हैं। संवादों के माध्यम से ही लेखक अपने कथानक को गति प्रदान करता है तथा पात्रों का चरित्र विश्लेषण भी करता है।
जब हम ध्रुवस्वामिनी नाटक का संवादों के माध्यम से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि इस दृष्टि से यह नाटक अत्यंत सफल है। इस नाटक के संवाद अत्यंत सरल, सहज एवं स्वाभाविक हैं। प्रसाद जी ने छोटे छोटे रोचक संवाद लिखे हैं। सभी संवाद भावानुकूल एवं पात्रानुकूल हैं। लेखक ने कहीं भी संवादों का विस्तार नहीं किया। हाँ, लेखक ने एक दो जगह लंबे स्वगत दिए हैं, परंतु ये स्वगत वास्तव में पात्रों के अंतर्द्वन्द्व को स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध हुए हैं। जैसे द्वितीय अंक के प्रारंभ में कोमा का स्वगत भाषण उसके आंतरिक भावों तथा उसकी परिस्थितियों को स्पष्ट करता है।
नाटक के कुछ संवाद दृष्टव्य हैं-
शिखरस्वामी – वह और भी कुछ चाहता है। रामगुप्त क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है?
शिखरस्वामी – (गंभीरता से नहीं देव, वह बहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना कर रहा है?
4. देशकाल और वातावरण
देशकाल और वातावरण नाटक का एक प्रमुख तत्व होता है। लेखक समय और स्थान के यथायोग्य वर्णन के द्वारा ही नाटक को प्रभावशाली बनाता है। इससे ही नाटक में सजीवता आती है। देशकाल और वातावरण के अंतर्गत लेखक नाटक के समय, नाटक के पात्रों की वेशभूषा, उनकी भाषा, उनके रहन-सहन, तत्कालीन रीति-रिवाज, आवागमन के साधनों इत्यादि का वर्णन करता है। ऐतिहासिक नाटकों में देशकाल और वातावरण का वर्णन करते समय लेखक को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है क्योंकि इसकी कथा, समय व स्थान का पाठक को पूर्वज्ञान होता है।
प्रसाद जी का यह नाटक गुप्त वंश से संबंधित है जिसका समय सन् 375 ई. से 380 ई. है। इस नाटक में लेखक ने उस युग के दाँव-पेचों के अतिरिक्त धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं और राजपरिवारों की आंतरिक कलह का वर्णन किया है। लेखक ने नाटक में तत्कालीन वातवारण की सृष्टि करने हेतु गुप्तकालीन शब्दावली, वेशभूषा, शिविरों की सजावट, युद्ध शिविर, पात्रों के नाम, उनके अस्त्र-शस्त्र, रीति-रिवाज आदि का वर्णन किया है। इससे तत्कालीन वातावरण सजीव हो उठा है।
5. संकलनत्रय
इस नाटक में स्थान, समय और कार्य के संकलन का पूर्ण निर्वाह किया गया है। इस नाटक की सभी घटनाएँ या तो गुप्त सम्राट के शिविर में घटित होती या शकराज के दुर्ग में और यह सम्पूर्ण घटनाक्रम एक दिन-रात में ही सम्पन्न हो जाता है। इस नाटक का मुख्य कार्य ध्रुवस्वामिनी की रामगुप्त से मुक्ति तथा चंद्रगुप्त का सिंहासन पर बैठना है।
6. उद्देश्य
ध्रुवस्वामिनी नाटक एक उद्देश्य पूर्ण रचना है। इसमें प्रसाद जी ने एक और तो देश के कर्णधार के रूप में रामगुप्त जैसे-विलासी, मद्यप, पतित और कायर व्यक्ति के स्थान पर चंद्रगुप्त जैसे वीर, साहसी, कर्तव्यपरायण, उदार, निस्वार्थ व त्यागी राष्ट्रनायक की कामना की है, जो राष्ट्र को विदेशी आक्रमण और संकट से मुक्त कराने तथा उसे और शक्तिशाली बनाने की क्षमता रखता है।
दूसरी ओर उन्होंने नारी की स्वतंत्रता का नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करके आधुनिक नारी के उत्थान की कामना की है। ध्रुवस्वामिनी की समस्या आधुनिक नारी का समस्या है। इस दृष्टि से ध्रुवस्वामिनी नाटक में आधुनिकता भी दिखाई देती है। इसके साथ ही प्रसाद जी ने छल-कपट, विलासिता, कायरता, हिंसा, नारी अत्याचार आदि बुरी प्रवृत्तियों के स्थान पर पवित्रता, वीरता, साहस, उदारता, त्याग, नारी के सम्मान की रक्षा आदि मानवीय प्रवृत्तियों को जगाया है।
7. अभिनेयता
नाटक की वास्तव में के लिए ही की जाती है। अभिनेयता की दृष्टि से प्रसाद जी के अधिकांश नाटक इसलिए दोपयुक्त होते थे कि उनमें लंबी कथा के साथ-साथ वे उसे कई अंकों में लिखते थे तथा उनमें पात्रों की संख्या भी अधिक होती थी। यही कारण था कि उन नाटकों को मंच पर मंचित करना मुश्किल हो जाया करता था।
परंतु प्रस्तुत नाटक अभिनेयता की दृष्टि से एक सफल नाटक है। इस नाटक में प्रसाद जी ने एक तो छोटी-सी कथा को लिया है, साथ ही तीन अंकों और सीमित पात्रों की योजना की है। इस नाटक में लेखक ने संकलनत्रय का भी पूर्ण निर्वाह किया है। छोटे-छोटे संवाद लिखे हैं तथा सरल भाषा का प्रयोग किया है। उनके अन्य नाटकों की तरह भाषा में कहीं पर भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया। लेखक ने इस नाटक में चार गीतों की भी रचना की है। इस प्रकार से नाटक रंगमंच की दृष्टि से सफल बन पड़ा है।
8. भाषा-शैली
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में लेखक ने संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया है। चूंकि प्रसाद जी का संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था। अतः नाटक में तत्सम् शब्दों का खुलकर प्रयोग हुआ है। इस नाटक की भाषा में प्रसाद गुण के अतिरिक्त ओज गुण एवं माधुर्य गुण भी सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। ध्रुवस्वामिनी के संवादों में जहाँ ओजगुण का प्रयोग हुआ है, वहीं कोमा द्वारा प्रयुक्त भाषा में माधुर्य गुण का प्रयोग हुआ है।
इस नाटक में लेखक ने वीर, श्रृंगार, बीभत्स व करूण आदि रसों का प्रयोग किया है। नाटक में लेखक ने स्थान-स्थान पर काव्यात्मक व अलंकृत शैली एवं गीतों का प्रयोग कर अपने कवि होने का भी परिचय दिया है। प्रसाद जी के अन्य नाटकों की अपेक्षा इस नाटक की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक तथा पात्रानुकूल है।
इनकी भाषा नाटक के पात्रों की मनोवृत्ति, उनके भावों-विचारों और कार्य-व्यापारों के सर्वथा अनुकूल है। लेखक ने अपनी भाषा को छोटे-छोटे वाक्यों तीनों शब्द शक्तियों, लोकोक्तियों, मुहावरों, आप्तवाक्यों आदि के प्रयोग से अत्यंत रोचक एवं रमणीय बना दिया है। इस प्रकार नाटक के तत्वों के आधार पर यह एक सफल नाटक कहा जा सकता है।