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ध्रुवस्वामिनी नाटक का सार
ध्रुवस्वामिनी जयशंकर प्रसाद कृत एक ऐतिहासिक नाटक है, जो ऐतिहासिक नाटक होकर भी समस्या नाटक बन गया है। कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से यह नाटक उनके तीन प्रमुख नाटकों; क्रमश- स्कन्दगुप्त’, ‘चन्द्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ में से एक है। इस नाटक की कथा का संबंध भारतीय इतिहास में स्वर्ण-युग कहलाने वाले काल तथा उसके गुप्त वंशीय शासक चन्द्रगुप्त मादित्य व उसकी वाग्दत्ता ध्रुवस्वामिनी से है।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन 380 ई. से 413 ई. तक रहा। इससे पूर्व उनके पिता सम्राट समुद्रगुप्त ने 335 ई. से 375 ई. तक मगध पर शासन किया तथा दूर-दूर तक अपने राज्य का विस्तार किया। उन्होंने अपने जीवन काल में अपने बड़े पुत्र रामगुप्त को कायर, अयोग्य, विलासी और निर्लज्ज देखकर छोटे पुत्र चन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
सम्राट समुद्रगुप्त की विजय यात्रा के समय ध्रुवस्वामिनी के पिता ने अपनी पुत्री ध्रुवस्वामिनी को गुप्तकुल की वधू बनाने के लिए समर्पित कर दिया था। चूंकि उस समय चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बनने का निश्चय था, इसलिए ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त की ही वाग्दत्ता (वचन से दिया हुआ एक प्रकार का विवाह) थी, किन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् महामंत्री शिखरस्वामी ने बड़े भाई के अधिकार के नियम की दुहाई देकर, छलपूर्वक रामगुप्त को सिंहासन पर बैठा दिया तथा इस विपरीत परिस्थिति में ध्रुवस्वामिनी का विवाह भी उसकी इच्छा के विरुद्ध रामगुप्त से कर दिया गया।
रामगुप्त ने 375 ई. से 380 ई. तक मगध पर शासन किया। रामगुप्त की विलासिता, आचरणहीनता, कायरता और अयोग्यता के कारण ध्रुवस्वामिनी उससे घृणा करती थी तथा धीर-वीर चन्द्रगुप्त से अपने हृदय में कहीं न कहीं प्रेमभाव भी रखती थी। इतिहास की इस विशद् पृष्ठभूमि में इस नाटक की कथा तीन अंकों में विभाजित है। नाटक का सार इस प्रकार है –
प्रथम अंक
अपनी विजय यात्रा का झूठा दिखावा करते हुए सम्राट रामगुप्त ने गिरिषय में शिविर डाल रखा था, किन्तु वह हर समय सुरा-सुंदरियों में मत्त रहता था। उसे ध्रुवस्वामिनी पर यह संदेह है कि वह चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है। इसलिए वह ध्रुवस्वामिनी के हृदय की बात जानने के लिए एक खड्गधारिणी दासी को नियुक्त करता है, जो गूँगी होने का अभिनय करती हुई चतुराई से ध्रुवस्वामिनी के मन का भाव जान लेती है और उसे रामगुप्त के सामने प्रकट कर देती है। ध्रुवस्वामिनी का चन्द्रगुप्त के प्रति प्रेमभाव जानकार रामगुप्त को इस बात का और भी भय हो जाता है कि कहीं चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी, दोनों मिलकर उसका राज्य न हड़प लें।
दूसरी ओर इसी समय रामगुप्त की विलासिता और अयोग्यता के कारण अवसर देख शकराज रामगुप्त के शिविर को घेर लेता है। यह सूचना पाकर भी रामगुप्त निर्लज्जतापूर्वक सुरासुंदरी में डूबा रहता है। रामगुप्त की कायरता को भांपकर शकराज संधि की दो शर्तें भेजता है-
- अपने लिए महादेवी ध्रुवस्वामिनी तथा
- अपने सरदारों के लिए मगध के सामंतों की स्त्रियाँ कायर और क्लीव रामगुप्त शकराज की शर्तें स्वीकार कर लेता है।
वह इन शर्तों को एक ही वार से बाहर के शत्रु (शकराज) और भीतर के शत्रु (ध्रुवस्वामिनी) दोनों से छुटकारा पाने का अवसर समझता है। वह अपने मंत्री शिखरस्वामी को साथ लेकर यह निर्णय सुनाने के लिए ध्रुवस्वामिनी के पास जाता है। ध्रुवस्वामिनी यह सुनकर क्रुद्ध और क्षुब्ध हो उठती है तथा पूछती है, ‘क्या गुप्त साम्राज्य स्त्री-सम्प्रदान से ही बड़ा है? ध्रुवस्वामिनी जानना चाहती है कि रामगुप्त ने सुख-दुःख में उसका साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा अग्निदेव के सामने क्यों की थी?
Dhruvswamini Natak Saransh
कायर व भीरु रामगुप्त अपने उत्तरदायित्व को अस्वीकार करता हुआ कहता है कि उसने कोई प्रतिज्ञा नहीं की। विवाह के दिन तो वह मंदिरा में बेसुध था, पुरोहितों ने जाने क्या-क्या पड़ दिया होगा। कायर रामगुप्त का सहायक बना हुआ दुष्ट महामंत्री शिखरस्वामी भी व्यवस्था देता है
“राजनीति के सिद्धांत में राष्ट्र की रक्षा सब उपायों से करने का आदेश है उसके लिए राजा, रानी, कुमार, और 1 अमात्य, सबका विसर्जन किया जा सकता है; किन्तु राज-विसर्जन अंतिम उपाय है।”
यह सुनकर ध्रुवस्वामिनी पहले तो दोनों को फटकारती है, बाद में अपने पति कहे जाने वाले कापुरुष रामगुप्त से एकांत में अपनी रक्षा की भीख माँगती है, पर रामगुप्त उसकी प्रार्थना और समर्पण को ठुकरा देता है। ध्रुवस्वामिनी बहुत दुःखी होती है। वह पुनः रामगुप्त को फटकारती हुई कहती है,
‘निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीव!! ओह! तो मेरा कोई रक्षक नहीं? नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी!’
यह सुनकर ध्रुवस्वामिनी आत्महत्या के लिए कृपाण निकाल लेती है। रामगुप्त भयभीत हो जाता है कि कहीं वह उसकी हत्या न कर दे। अतः ‘हत्या ! हत्या ! दौड़ो !! दोड़ो! ! चिल्लाता हुआ भाग जाता है। इतने में ही तेजी से चन्द्रगुप्त वहाँ आता है। ध्रुवस्वामिनी उसके आने पर आत्महत्या करने। से रुक जाती है और सारा वृत्तांत चन्द्रगुप्त को बता देती है। क्षुब्ध होकर चन्द्रगुप्त घोषणा करता है कि
‘मेरे जीवित रहते आर्य समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्व को इस तरह पद दलित होना न पड़ेगा।’
इतने में ही रामगुप्त भी शिखरस्वामी को साथ लेकर एक बार फिर वहाँ आ जाता है। चन्द्रगुप्त उन दोनों की भर्त्सना करता है। पर शिखरस्वामी यह कहता है कि किसी भी तरह राजा और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए। मन्दाकिनी विरोध करती है कि जो राजा अपने राष्ट्र और अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता उसकी रक्षा कैसी? इस समस्या का अंत करने के लिए चन्द्रगुप्त कहता है-
“मैं ध्रुवस्वामिनी बनकर सामंतकुमारों के साथ शकराज के पास जाऊँगा। अगर सफल हुआ तो कोई बात नहीं, अन्यथा मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना वैसा करना।”
चन्द्रगुप्त का यह कथन सुनकर ध्रुवस्वामिनी प्रेम आवेश में चन्द्रगुप्त को अपनी भुजाओं में ले लेती है। वह स्वयं भी चन्द्रगुप्त के साथ जाती है। सामंतकुमारों के साथ दोनों प्रस्थान करते हैं।
द्वितीय अंक
उधर शक दुर्ग में शकराज अपने संधि-पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। उसकी प्रेयसी कोमा यौवन के इस मधुर अवसर पर प्रेम में चूकना नहीं चाहती, पर शकराज उसे अपनी विलास सहचरी ही मानता है और ऊपर से उसे फुसला कर अपनी वाग्दत्ता बनाकर रखता है। इतने में खिंगल आकर यह शुभ समाचार देता है कि रामगुप्त ने संधि प्रस्ताव मान लिया है, ध्रुवस्वामिनी शकराज के पास आने वाली है। शकराज खुशी से उछल पड़ता है। वह विजय उत्सव मनाता है। शकराज अब कोमा के प्रति उपेक्षा भाव जताता है। कोमा व्यथित हो जाती है। ध्रुवस्वामिनी के आगमन की सूचना पाकर वह शकराज को इस अनर्थ से रोकना चाहती है, अतः कहती है,
“मेरे राजा, आज तुम एक स्त्री को अपने पति से विच्छिन्न कराकर अपने गर्व की तृप्ति के लिए कैसा अन्याय कर रहे हो?”
तभी कोमा के संरक्षक पिता मिहिरदेव भी जाते हैं और उसे चेतावनी देते हैं कि इस प्रकार अपनी वाग्दत्ता के साथ अन्याय करने के परिणाम को भुगतना पड़ेगा, पर कामुक शकराज उनकी एक नहीं सुनता और ध्रुवस्वामिनी से मिलने को आतुर हो उठता है। मिहिरदेव आकाश में विचर रहे नीललोहित रंग के धूमकेतु की ओर संकेत करके उसके अमंगल की भविष्यवाणी कर चले जाते हैं। कोमा भी उनके पीछे-पीछे चली जाती है। ध्रुवस्वामिनी के आने की सूचना पाकर शकराज एकांत में उससे मिलता है। एक के स्थान पर दो-दो सुन्दरियों को देखकर वह चकित सा रह जाता है। स्त्री-पेश में चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी, दोनों अपने को ध्रुवस्वामिनी कहते हैं, तभी चंद्रगुप्त स्त्री-वेश का त्याग कर शकराज को द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता है। शकराज मारा जाता है। बाहर सामंतकुमार युद्ध करते हैं। वे अंदर प्रवेश कर चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी को घेरकर ‘ध्रुवस्वामिनी की जय हो!’ का नारा लगाते हैं।
तृतीय अंक
तीसरे अंक के प्रारंभ में शक दुर्ग के एक प्रकोष्ठ में ध्रुवस्वामिनी चिंता में बैठी है। सैनिक आकर समाचार देता है कि विजय का समाचार सुनकर राजाधिराज रामगुप्त भी आ गए हैं और महादेवी से मिलना चाहते हैं। मन्दाकिनी भी विजय की बधाई देती हुई ध्रुवस्वामिनी के पास आती है। तभी उपद्रवों के शांत होने पर शांतिकर्म के लिए पुरोहित आता है, परंतु ध्रुवस्वामिनी से रामगुप्त की क्लीवता की बात सुनकर तथा उसकी हृदय विदारक परिस्थिति से क्षुब्ध होकर धर्मशास्त्र का विधान पुनः देखने चला जाता है। इतने में मिहिरदेव के साथ कोमा ध्रुवस्वामिनी के पास आती है और अपने प्रिय शकराज के शव को ले जाने की याचना करती है।
ध्रुवस्वामिनी उन्हें शव ले जाने देती है। बाहर दुष्ट रामगुप्त उन दोनों को मरवा देता है। ध्रुवस्वामिनी की आज्ञा के बिना निरीह कोमा और मिहिरदेव के संहार से सामंतकुमार रामगुप्त पर क्रुद्ध हो उठते हैं। वे उसकी आलोचना करते हैं। तभी विरोध के शब्द सुनता हुआ अपने सैनिकों के साथ रामगुप्त भी वहाँ आ पहुँचता है। रामगुप्त के सैनिक उसके संकेत पर सामंतकुमारों और चंद्रगुप्त को बंदी बना लेते हैं ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त को प्रतिवाद करने की प्रेरणा करती है। इसी बीच पुरोहित भी धर्म-शास्त्रों का विधान सुनाने आ जाता है। ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त का प्रचंड विरोध करती है, तो रामगुप्त उसे भी बंदी बनाने का आदेश देता है।
सैनिक ध्रुवस्वामिनी की ओर बढ़ते ही हैं कि चंद्रगुप्त लौह-श्रृंखला को तोड़ कर मुक्त हो जाता है। वह अपने अधिकार की माँग करता है तथा सैनिकों को डाँटकर सामंतकुमारों को मुक्त करने का आदेश देता है।
अंत में शिखरस्वामी परिषद् बुलाता है। परिषद् रामगुप्त को अधिकारच्युत कर चंद्रगुप्त को सम्राट् घोषित करती है। पुरोहित भी धर्म-शास्त्र के आधार पर क्लीव रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष अर्थात् आज की भाषा में तलाक की आज्ञा दे देता है।
धर्म-शास्त्रों पर आधारित पुरोहित के वक्तव्य तथा परिषद् के निर्णय को सुनकर और शिखरस्वामी को भी अपने विपरीत देखकर रामगुप्त खीझ जाता है। वह पीछे से अकस्मात् कटार निकाल चंद्रगुप्त की हत्या करना चाहता है, पर एक सामंतकुमार पहले ही रामगुप्त पर प्रहार करके उसे धराशायी कर देता है और चंद्रगुप्त की रक्षा करता है। सब सामंतकुमार तथा परिषद् के लोग ‘राजाधिराज चंद्रगुप्त की जय!’ ‘महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय’ के नारे लगाते हैं।
इसी के साथ नाटक समाप्त हो जाता है।