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ध्रुवस्वामिनी नाटक का उद्देश्य
ध्रुवस्वामिनी एक उद्देश्यपूर्ण नाटक है, जिसमें जयशंकर प्रसाद जी ने ऐतिहासिक कथानक लेते हुए अपने उद्देश्य को स्पष्ट किया है। स्वयं उसके अनुसार- ‘मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को पथ दिखाने में बहुत प्रयत्न किया है।’ जब हम नाटककार के इस कथन को ध्यान में रखते हुए इसका विवेचन करते हैं तो इस नाटक में प्रसाद जी के निम्नलिखित उद्देश्य उभर कर हमारे सामने आते हैं-
साहसी राष्ट्राध्यक्ष की स्थापना
प्रसाद जी प्रस्तुत नामक के माध्यम से देश में एक शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष की स्थापना करना चाहते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने एक ऐतिहासिक कथा को नाटक के रूप में पिरोया है। नाटककार जिस प्रकार इस कथा में कायर, मद्यप, विलासी, अयोग्य व नीच शासक रामगुप्त को हटाकर चंद्रगुप्त जैसे साहसी, वीर तथा योग्य व्यक्ति के हाथ में देश की बागडोर सौंपता है, उसी प्रकार वह अपने समकालीन परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजों के शासन को समाप्त कर चंद्रगुप्त के समान शक्तिशाली तथा वीर भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की स्थापना करना चाहता है। नाटककार की मान्यता है कि यदि हमारे देश के शासक चंद्रगुप्त जैसे होंगे तो शकराज जैसे विदेशी आक्रमणकारी हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकेंगे।
नारी समस्या को उजागर करना
प्रस्तुत नाटक के माध्यम से लेखक ने तत्कालीन नारी समस्या को उजागर किया है। लेखक के अनुसार भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज है, जिसमें स्त्रियाँ अपनी सुरक्षा के लिए हमेशा पुरुषों पर आश्रित रहती हैं। पुरुष स्त्रियों को पशुओं से अधिक कुछ नहीं समझता। वह स्त्रियों पर तरह-तरह से अत्याचार करता है और उनका मनमाना शोषण करता है। इस नाटक में लेखक ने रामगुप्त के द्वारा ध्रुवस्वामिनी तथा शकराज के द्वारा कोमा के प्रति किए गए अत्याचारों का विवरण देकर नारी समस्या को उठाया है। परंतु साथ ही लेखक ने ध्रुवस्वामिनी द्वारा अपनी रक्षा का भार स्वयं लेने की बात कहला कर नारी उत्थान की प्रेरणा भी दी है। लेखक के अनुसार यदि ध्रुवस्वामिनी की तरह आज की नारी अपनी रक्षा का भार स्वयं उठाने में सक्षम हो तो उसकी आधी से अधिक समस्याएँ स्वयं ठीक हो सकती हैं।
विवाह की समस्या
लेखक ने इस नाटक के माध्यम से होने वाले विवाह के समय युवक-युवती की आपसी सहमति न होने की समस्या को उठाया है। ध्रुवस्वामिनी का पिता सम्राट समुद्रगुप्त को वीर तथा शक्तिशाली जानकर उन्हें अपनी पुत्री को गुप्त कुल की वधू बनाने के लिए समर्पित कर देते हैं। राजा समुद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी का विवाह अपने योग्य पुत्र चन्द्रगुप्त से करना चाहते हैं परंतु समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् परिस्थितियों में परिवर्तन आता है और महामंत्री शिखरस्वामी तथा रामगुप्त के छल-कपट के कारण रामगुप्त न केवल राजा बन जाता है, अपितु ध्रुवस्वामिनी से विवाह भी कर लेता है।
परंतु वह ध्रुवस्वामिनी से प्रेम नहीं करता है तथा समय आने पर वह उसे शकराज को उपहार स्वरूप देने को भी तैयार हो जाता है। इस बात का ध्रुवस्वामिनी कड़ा विरोध करती है और चंद्रगुप्त की सहायता से शकराज को मारकर अलग हो जाती है। साथ ही चंद्रगुप्त से विवाह कर लेती है। इस घटना के माध्यम से लेखक आधुनिक सन्दर्भ में यह बताना चाहता है किमाता-पिता को अपने बच्चों का विवाह न तो छोटी उम्र में तय करना चाहिए और न ही उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह करना चाहिए, अन्यथा उसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं।
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ध्रुवस्वामिनी नाटक की तात्विक समीक्षा
ध्रुवस्वामिनी नाटक का सार/सारांश
त्याग और उदारता की भावना को बल
इस नाटक के द्वारा लेखक लोगों को अपने में त्याग एवं उदारता की भावना को विकसित करने की प्रेरणा देता है। इस नाटक के अनुसार राजा समुद्रगुप्त ने अपने मरने से पूर्व अपने छोटे राजकुमार चंद्रगुप्त को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया था, परंतु उनके मरने के पश्चात् चंद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई रामगुप्त जिसे उसके पिता अयोग्य समझते थे, के लिए अपना राज्याधिकार इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वह अपने ही घर में कलह नहीं करना चाहता था। इस घटना से चंद्रगुप्त के त्याग और उसकी उदारता का परिचय मिलता है। लेखक यही भावना समाज में भी भरना चाहता है।
प्रेम भावना का विस्तार
लेखक इस नाटक के माध्यम से लोगों में प्रेम भावना का विस्तार करना चाहता है। लेखक के अनुसार मनुष्य का जीवन बहुत छोटा होता है तथा उसमें भी युवावस्था तो और भी छोटी होती है। अतः लेखक के अनुसार मनुष्य का यह छोटा-सा जीवन प्रेममय होना चाहिए। साथ ही युवावस्था में तो यह और भी अधिक प्रकट होना चाहिए।
लेखक ने अपने इस मन्तव्य को अपने काल्पनिक पात्र कोमा के द्वारा प्रकट किया है। यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि जहाँ लेखक ने मनुष्य के हृदय में प्रेम के भावों का विस्तार करने की प्रेरणा दी है, वहीं मनुष्य की विलासिता का घोर विरोध भी किया है।
अत्याचार एवं दुष्प्रवृत्तियों की समाप्ति
इस नाटक का एक उद्देश्य यह है कि लेखक इस नाटक के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज में फैले हुए अत्याचारों एवं दुष्प्रवृत्तियों की समाप्ति करना चाहता है। इस नाटक में लेखक ने शकराज, रामगुप्त एवं शिखरस्वामी के अत्याचारों एवं बुराइयों को चंद्रगुप्त द्वारा समाप्त करवाकर एक शांतिप्रिय समाज की स्थापना पर बल दिया है। वे वर्तमान भारतीय समाज को एक ऐसे समाज के रूप में देखना चाहते हैं, जिसमें भाई का भाई के प्रति प्रेम हो तथा समाज में कोई किसी पर अत्याचार न करे।
प्राचीन इतिहास की जानकारी
इस नाटक के अन्य सभी उद्देश्यों के साथ लेखक का यह भी प्रमुख उद्देश्य है कि वह इसके माध्यम से भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिहास की जानकारी देना चाहता है। प्रस्तुत नाटक में लेखक ने उस भारतीय इतिहास का वर्णन किया है जिसे भारत के इतिहास में स्वर्ण काल कहा जाता है। साधारणतया इतिहास के कुछ कठिन तथा जटिल होने के कारण न तो कोई इसे पढ़ता है न समझता है। परंतु लेखक की मान्यता रही है कि इतिहास वह शिक्षक है जिससे शिक्षा पाकर हम न केवल अपने वर्तमान अपितु अपने भविष्य को भी उज्ज्वल बना सकते हैं। इसीलिए उन्होंने भारतीय इतिहास की एक स्वर्णिम घटना को नाटक के रूप में लिखकर, एक सरल एवं रोचक रचना बनाकर पाठक के सामने प्रस्तुत किया है ताकि इससे वह कुछ सीख सके।
देशभक्ति की भावना जाग्रत करना
यह नाटक एक ऐतिहासिक नाटक है। इसमें भारतीय इतिहास की एक स्वर्णिम घटना को लिया गया है। जिस समय यह नाटक लिखा गया उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था। उस समय के लगभग प्रत्येक कवि और लेखक का यह फर्ज था कि वह अपने साहित्य के द्वारा लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने का प्रत्यन करे। इसलिए प्रसाद जी ने इस समाज के प्रति उच्च भावनाओं को दिखाकर पाठक को शकराज और रामगुप्त जैसे देशद्रोही एवं विदेशी आक्रान्ताओं के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया है।
निष्कर्ष
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह नाटक एक उद्देश्यपूर्ण रचना कृति है, जिसमें लेखक ने प्राचीन इतिहास के नवीन प्रस्तुतीकरण के माध्यम से देशभक्ति, अखंड, राष्ट्रीयता, नारी सम्मान तथा सामाजिक बुराइयों का अंत करने का अमर सन्देश दिया है।