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गलता लोहा पाठ का सार
गलता लोहा शेखर जोशी की कहानी कला का प्रतिनिधि उदाहरण है। समाज में जातिगत विभाजन पर कई कोणों से टिप्पणी करने वाली यह कहानी इस बात की गवाह है कि शेखर जोशी के लेखन में अर्थ की गहराई का दिखावा और बड़बोलापन जितना कम है, वास्तविक अर्थ गांभीर्य उतना ही अधिक है। कहानी में लेखक ने जातिगत भेदभाव की प्रथा को गलत एवं सारहीन बताया है। वास्तव में झूठे जातिगत भेदभाव को त्यागकर आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना ही कहानी का प्रमुख लक्ष्य है।
कहानी का सार इस प्रकार है:-
मोहन एक निर्धन पुरोहित श्री वंशीधर का होनहार बेटा है। पुरोहित जी अपनी पुरोहिताई से अपने परिवार का गुजारा चलाने में असमर्थ हैं। उन्हें अपने बेटे मोहन से बहुत आशाएं थीं। मोहन बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाला विद्यार्थी था। स्कूल के अध्यापक का भी यही कहना था कि मोहन एक दिन अवश्य ही बड़ा आदमी बनेगा वह स्कूल का नाम रोशन करेगा प्राइमरी स्कूल की परीक्षा में छात्रवृति प्राप्त करके उसने अपने बुद्धिमान होने का प्रमाण दे दिया था। मोहन के पिता चाहते थे कि वह आगे भी पढ़े।
किंतु उनके गाँव के आस-पास कोई स्कूल नहीं था जो स्कूल पास था यह गाँव से चार मील दूर या दो मील की चढ़ाई चढ़ने के अतिरिक्त मार्ग में पड़ने वाली नदी भी एक बड़ी समस्या थी। इस समस्या के कारण ही मोहन के पिता ने नदी पार के गाँव में अपने एक यजमान के यहीं मोहन के रहने का प्रबंध कर दिया था। किंतु एक बार नदी में बाद जाने पर पुरोहित जी अपने बेटे मोहन को घर से आए उसके पश्चात् उन्हें निरंतर अपने बेटे के भविष्य की चिंता सताने लगी।
उन्हीं दिनों रमेश नाम का युवक लखनऊ से गाँव में आया हुआ था यह पुरोहित बिरादरी से था और लखनऊ में नौकरी करता था। मोहन के पिता ने मोहन की पढ़ाई के विषय में रमेश के सामने चिंता व्यक्त की। रमेश ने उसके साथ सहानुभूति व्यक्त की और मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाने के लिए सहमति व्यक्त की। उसने कहा जहीं घर में चार प्राणी है वहीं पांचवा भी रह लेगा।
मोहन के पिता वंशीधर को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्हें भगवान मिल गया हो। उन्होंने मोहन को लखनऊ भेज दिया। मोहन लखनऊ में सहमा सहमा रहा। उससे नौकरों की तरह काम लिया जाता था। बहुत कहने पर एक साधारण से स्कूल में उसे दाखिल करवा दिया गया। घर के काम के बोझ के कारण वह जैसे-जैसे पास होता रहा। गर्मी की छुट्टियों में भी उसे लखनऊ में ही रखा आता ताकि रमेश की घर-गृहस्थी सुख-सुविधा से चल सके। मोहन ने भी जीवन में समझौता करना सीख लिया था। यह सच्चाई बताकर पिता को दुःखी नहीं करना चाहता था।
आठवीं पास करने के पश्चात् रमेश ने उसे आगे नहीं पढ़ाया और कहा कि बी०ए०, एम०ए० करके लोग बेरोजगार घूमते हैं। अतः उसे तकनीकी स्कूल में भर्ती करवा दिया गया। घर की दिनचर्या पूर्ववत चलती रही। डेढ़-दो साल के पश्चात् यह तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके फैक्ट्रियों के चक्कर काटने लगा।
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उधर वंशीधर मोहन के विषय में यही बताता था कि वह बड़ा अफसर बनकर लौटेगा। किंतु अंततः जब वास्तविकता का पता चला तो उसे गहरा दुःख पहुंचा। धनराम ने उससे मोहन के बारे में पूछा तो यह झूठ बोल गया। धनराम ने भी यही कहा कि मोहन बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाला है। अंत में मोहन गाँव में आकर रहने लगा और अपने पिता के कामकाज में हाथ बंटाने लगा।
एक दिन मोहन खेत के किनारे की कांटेदार झाड़ियों को काटने के उद्देश्य से घर से निकला। उसने देखा कि हतुवे की धार सेज नहीं है। उसकी धार तेज करवाने के उद्देश्य से वह अपने सहपाठी धनराम लोहार के आफर पर गया। धनराम गाँव की लोहार जाति से संबंध रखता था और मोहन ब्राह्मण जाति का था। मोहन धनराम के आफर पर काफी देर तक बैठा रहा। धनराम मोहन के हँसुवे की धार तेज करने के पश्चात् एक मोटी छड़ को गोलाकार बनाने लगा। किंतु वह उसमें सफल नहीं हो रहा था।
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तभी मोहन अपने स्थान से उठा और उसने लोहे की छड़ को पकड़कर स्थिर किया और धनराम के हाथ से हथौड़ा पकड़कर नपी-तुली चोट लोहे पर की। उसके बाद उसने लोहे को दुबारा भट्टी में गर्म किया और निहाई पर रखकर ठोक-पीटकर लोहे को सुघड़ गोले का आकार दे दिया। यह सब मोहन ने इतनी कुशलता से किया कि धनराम भी हैरान होकर खड़ा हो गया। वह पुरोहित खानदान के एक युवक के द्वारा भट्टी पर बैठकर हाथ डालने पर हैरान था। दूसरी और मोहन अपने द्वारा बनाए हुए लोहे के गोले की त्रुटिहीन गोलाई देखकर संतुष्ट था। उसकी आंखों में सर्जक की चमक थी तथा वह जातिगत भेदभाव से कोसों दूर था।
गलता लोहा कहानी का शीर्षक
‘गलता लोहा’ कहानी में दो सहपाठियों घनराम लोहार और मोहन (ब्राह्मण पुत्र) के आपसी व्यवहार को व्यक्त किया गया है साथ ही उनके जीवन पर भी संक्षिप्त रूप में प्रकाश डाला गया है। इस कहानी में दर्शाया गया है कि तेरह का पहाड़ा न सुना पाने के कारण धनराम से मास्टर जी कहते थे कि तेरे दिमाग में तो लोहा भरा हुआ है।
विद्या का ताप इसे कैसे गलाएगा। इसके साथ ही यह भी दिखाया गया है कि मोहन एक ब्राह्मण पुत्र होने के बावजूद धनराम लोहार के पास आकर न केवल बैठता ही है, अपितु उसके साथ मिलकर लोहे की छड़ को सही गोलाई में मोड़ डालने का काम अत्यंत कुशलता से करता है और इस कार्य के लिए वह अपने मन में किसी प्रकार का भेदभाव या हीन भावना महसूस नहीं करता, अपितु गवं अनुभव करता है। इस प्रकार मन में बनी जाति-पाति रूपी तोहे की दीवार भी पिघल जाती है। अतः ‘गलता लोहा कहानी का यह शीर्षक उचित एवं सार्थक है।