गोदान उपन्यास की समस्या : ग्रामीण एवं शहरी | Godan Upnyas Ki Samasya PDF

गोदान उपन्यास की समस्या

मुंशी प्रेमचन्द सच्चे अर्थों में एक महान् साहित्यकार थे जिन्होंने ‘कलम का सिपाही’ बनकर देश की सेवा की थी। अपने युग के वे द्रष्टा थे और उसके पथप्रदर्शक भी। उन्होंने पराधीन भारत में रहकर एक ओर तो भारतीय स्वाधीनता में अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से सहयोग प्रदान किया था, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में परिव्याप्त अनेक समस्याओं को रेखांकित करके उनका पर्याप्त समाधान भी प्रस्तुत किया था।

उन्होंने अपने उपन्यासों में मानव जीवन के सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई आदि का सच्चा कलाकार बनकर चित्रण किया। यही कारण है कि उनके उपन्यासों में न केवल समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की समस्याएँ दिखाई पड़ती है अपितु उनके समाधान भी दिखाई पड़ते हैं। उनके प्रथम उपन्यास ‘सेवा सदन’ में यदि विशेष रूप से वेश्या समस्या को प्रस्तुत करके उसका समाधान किया गया है तो ‘वरदान’ में ग्राम्य-समस्या का चित्रण है।

गोदान’ उपन्यास उनकी प्रौढ़ रचना मानी जाती है जिसमें ग्राम्य कथा व शहरी कथा को एक सूत्र में पिरोकर प्रस्तुत किया गया है तथा ग्रामीण जीवन की समस्याओं के साथ-साथ, शहरी जीवन की समस्याओं का भी उल्लेख किया है।

‘गोदान’ उपन्यास की समस्याओं को दोनों कथाओं के माध्यम से अलग-अलग करके भी देखा जा सकता है जो इस प्रकार हैं-

(क) ग्राम्य जीवन की समस्याएं-

‘गोदान’ उपन्यास में ग्राम्य जीवन की कथा मूलतः होरी व धनिया के जीवन को केन्द्र में रखकर प्रस्तुत की गयी है। होरी एक छोटे से गाँव बेलारी का निवासी है जहाँ पर विभिन्न जाति के लोग रहते हैं। यह गाँव राय साहव अमरपाल सिंह की जमींदारी में आता है। इस गाँव में अधिकांश कृषक हैं।

बढ़ई, लुहार, साहूकार, ब्राह्मण, अहीर, चमार आदि अनेक जातियों व विभिन्न प्रकार का पेशा करने बाले लोग भी यहाँ रहते हैं। सम्पूर्ण उपन्यास में ग्रामीण जीवन की कहानी प्रमुख रूप से चित्रित है। उपन्यास के आधार पर प्रेमचन्द ने ग्राम्य जीवन की समस्याओं को इस प्रकार चित्रित किया है-

1. ऋण समस्या

‘गोदान’ में मूलतः दुखी व दरिद्र कृषक-जीवन पर प्रकाश डाला गया है। अतः अधिकांश विद्वान्, आलोचकों का कथन है कि ‘गोदान’ की मूल समस्या ऋण संबंधी समस्या है। ‘होरी जैसे भोले-भाले कृषक को जमींदार राय साहब दोनों हाथों से लूटते हैं। लगान, नजराना, बेगार, शगुन न जाने किस-किस प्रकार के विधान हैं जिनके माध्यम से जमींदार द्वारा किसानों को लूटा जाता है। वे बेचारे विवश होकर उन्हें धन प्रदान करते हैं। इसे अदा करने के लिए वे गाँव के छोटे-छोटे साहूकारों से ऋण लेते हैं।

इसी तरह सूद बढ़ता जाएगा तो एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जाएगा, उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता तो यह चिन्ता उसे एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी।’ होरी को ज्ञात था कि वह कर्ज से लदा हुआ है। परन्तु बेचारा क्या करे? भारतीय किसान के भाग्य में तो यही लिखा है कि वह ऋण में जन्म लेता है, ऋण में रहता है और ऋण में ही चल बसता है। होरी की भी यही दशा होती है।

वह ऋण को कैसे उतारे। उसकी आन्तरिक इच्छा न तो ऋणग्रस्त रहने की है और न किसी का धन मारने की है। वह पुराने ऋणों को तो उतार नहीं पाता कि कभी उसे दो-दो बार लगान देना पड़ता है, कभी बेदखली से बचने के लिए पैसों का प्रबंध करना पड़ता है। कभी जमींदार और उसके कारिन्दों के लिए नज़राना देने के लिए धन लेना पड़ता है।

कभी बिरादरी और पंचों का कहा मानना पड़ता है। उसने गोवर की प्रेमिका झुनिया को घर में शरण दी थी तो इसके लिए उसे इतना आर्थिक दण्ड देना पड़ा कि सारी फसल गयी और घर भी गिरवी रखना पड़ा। यह ऋण निरन्तर बढ़ता जाता है। वह इन्हें चुकाता भी है। उसके तीन बच्चे दवा के अभाव में मर चुके हैं परन्तु वह सभी कुछ सहन करता है।

होरी अकेला ही ऋणग्रस्त नहीं है बल्कि गाँव के अन्य किसान भी इसी प्रकार ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। उनका भी ऋण निरन्तर बढ़ता जाता है। इसलिए ऋण की चिन्ता अकेले होरी की नहीं थी। उसे संतोष इस बात का है कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर पर न दी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और होरी को उससे (होरी से) अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे, मगर दोनों पर चार-चार सौ रूपये का बोझ लद गया था।

झींगुर दो हल की खेती करता है। पर उसे एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन मेहतो के घर भिखारी भीख नहीं पाता। लेकिन कर्जे का कोई ठिकाना नहीं, कृषक जीवन की यह बहुत बड़ी विडम्बना है होरी इस ऋण से इतना दब जाता है कि एक बार उसे बेदखली से बचने के लिए जब कहीं से भी रुपया उधार नहीं मिलता तो अपने बेटी रूपा को मानो बेचने के लिए तैयार हो जाता है। वह एक प्रौढ़ व्यक्ति रामसेवक से रूपा का विवाह कर उससे 200 रुपये ले लेता है उस समय उसकी दशा का चित्रण करते हुए लेखक लिखता है-

‘होरी ने रुपये लिए तो उसका हाथ कांप रहा था उसका सिर ऊपर न उठ सका, मुँह से एक शब्द न निकला जैसे अपमान के गड्ढे में गिर पड़ा हो और गिरता चला जाता हो। आज तीस साल तक जीवन से लड़ते। रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ कि मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया है, जो आता है, उसके मुँह पर थूक देता है।’

ऋण के कारण होरी को इतने बड़े अपमान का सामना करना पड़ा। वह ऋण के बोझ से लदकर खेतों, बैलों आदि से भी हाथ धो बैठता है। वह अन्त में ऋण से दबकर किसान से मजदूर बन जाता है।

वह अपने भाई हीरा से कहता है-

‘तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन है? मोटे वह होते है जिन्हें न रिन का सोच होता है, न इज्जत का।’

उसकी दुर्बलता का मूल कारण है उसके ऊपर लदा ऋण। यह ऋण समस्या कृषक जीवन का अभिशाप है। नगर में भी यह समस्या व्याप्त रहती है। राय साहब जमींदार हैं परन्तु नगर के महाजनों का ऋण उन पर है। ऋण होने पर भी उनके पास धन का अभाव नहीं बल्कि ऐशो-आराम की जिन्दगी और दिखावा है। मि. चन्द्र प्रकाश खन्ना बैंक के ऋणी हैं। इस प्रकार ‘गोदान’ में ऋण की समस्या प्रमुख रूप से दिखाई पड़ती है।

2. शोषण समस्या

जमींदारी प्रथा में शोषण बहुत बड़ा रोग था। दीन-हीन, निर्धन व बेवस व्यक्ति का चारों ओर से शोषण होता था। होरी गरीब है, ईमानदार है, धर्म से डरता है, मर्यादा का पालन करता है परन्तु सभी उसका शोषण करते हैं। होरी के अतिरिक्त शोभा, हीरा, धनिया, पुलिया, सिलिया आदि सभी का किसी न किसी प्रकार से शोषण होता है।

इसका मूल कारण है उनकी रूढ़िवादिता, आदर्श और मर्यादा किसान बेचारा रात-दिन, गर्मी-सर्दी व बरसात सभी के थपेड़े सहन कर खून-पसीना एक करके खेतों में अन्न पैदा करता है जिस अन्न से सभी पेट भरते हैं परन्तु उसका अन्न खेतों से ही उठ जाता है। जमींदार, पटवारी, पण्डित, दरोगा सभी तो उसको लूटते हैं।

राम सेवक कहता है-

‘पाना, पुलिस, कचहरी, अदालत सब है हमारी रक्षा के लिए, लेकिन रक्षा कोई नहीं करता। चारों तरफ से लूट हैं जो गरीब है, बेबस है, उसकी गर्दन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। यहाँ तो जो किसान है सभी का नरम धारा है। पटवारी को नज़राना और दस्तूरी न दे तो गाँव में रहना मुश्किल। जमींदार के चपरासी और कारिन्दों का पेट न मरे तो निर्वाह न हो। बानेदार और कानिसिटियल तो जैसे उसके दामाद हैं। जब उनका दौरा गाँव में हो जाए किसानों का धर्म है कि वह उनका आदर-सत्कार करें, नजर-नयाज़ दें, नहीं तो एक रिपोर्ट में गाँव का गाँव बंप जाये।’

यह कटु सत्य है। होरी ने तो अपना सभी कुछ लुटा दिया था परन्तु शोषकों ने अन्य किसानों को भी नहीं छोड़ा था। शोषण का शिकार सभी थे। सभी की रोनी सूरत थी ‘मानो उनमें प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते-फिरते थे। काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। वस्तुतः यह शोषण चक्र इतना अधिक था कि ग्राम की दशा बहुत दुखद थी। यह समस्या प्रेमचन्द के युग से भी बहुत पुरानी थी।

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3. अछूत समस्या

छुआ-छूत की समस्या प्राचीन काल से चली आ रही है। जब से धनी निर्धन, बड़ी जाति, छोटी जाति का भेदभाव समाज में रहा तब से अछूत समस्या बढ़ती गयी। धार्मिक अंधविश्वास ने इस समस्या को और भी विकराल बना लिया था। ऐसे समय में अछूतों के लिए मन्दिर के दरवाजे बन्द थे। विभिन्न सार्वजनिक स्थानों-धर्मशालाओं छात्रावासों, बाग-बगीचों तथा भोजनालयों में ऐसे लोगों के लिए स्थान नहीं था।’ ‘गोदान’ में दातादीन ब्राह्मण है।

वह अपने ब्राह्मणत्व पर गर्व करता है वह कहता है-

“पीठ पीछे आदमी जो चाहे कहे, हमारे मुँह पर कोई कुछ कहे, तो उसकी पूँछ उखाड़ लूँ। कोई हमारी तरह नेमी बन तो तो कितनों को जानता हूँ, जो कभी संध्या वंदन नहीं करते, न उन्हें परम से मतलब न करम से, न कवा से मतलब न पुरान से।”

इतना हीं नहीं वह अछूतों के यहाँ पानी नहीं पीता। यद्यपि उसका बेटा मातादीन सिलिया चमारिन को रखे हुए है, फिर भी दातादीन ब्राह्मण होने का ढोंग करता है। वस्तुतः यह अछूत समस्या दिन पर दिन बढ़ रही थी।

प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में इस समस्या पर पर्याप्त विचार किया है। मातादीन ब्राह्मण है और सिलिया चमारिन । मातादीन सिलिया की मजबूरी का फायदा उठाकर उसे अपने प्रेम के जाल में फंसा लेता है। वह जनेऊ की शपथ खाता है और उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने का वादा करता है। सिलिया का सतीत्व लूटकर वह उसे काम करने की मशीन बना देता है।

परन्तु प्रेमचन्द ने इस समस्या को यहीं तक सीमित नहीं रखा। उनकी दृष्टि में ऐसे ब्राह्मणों को सबक अवश्य मिलना चाहिए था इसी कारण एक दिन सिलिया की मां के साथ कुछ चमार आते हैं और उसकी जनेऊ तोड़ देते हैं तथा इतनी दुर्गति करते हैं कि उसके मुँह में हड्डी का टुकड़ा डालकर उसका ब्राह्मणत्व नष्ट कर देते हैं। प्रेमचन्द का अछूत समस्या के प्रति बहुत बड़ा आक्रोश है। इसी कारण वे मातादीन की दुर्दशा का चित्रण करते हुए कहते हैं-

“मातादीन कर चुकने के बाद निर्जीव-सा जमीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गयी हो, मानो डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी खोज रहा हो. ..उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था…..आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जाएगा।’

प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में इस समस्या का पूर्णरूप से समाधान तो नहीं किया परन्तु नोहरी व पण्डित नोखेराम की कहानी तथा विधवा झुनिया के प्रति पण्डित का काम वासना संबंधी रूझान दिखाकर यह सिद्ध कर दिया है कि एक और ब्राह्मण निम्नवर्ग को अछूत समझता है तो दूसरी ओर, उनकी जवान बहू-बेटियों पर बुरी निगाहें रखता है।

4. अंतर्जातीय विवाह की समस्या

प्रेमचन्द ने कुछ उपकथाओं के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह की समस्या को भी उजागर किया है। क्योंकि उस समय इस प्रकार का विवाह समाज को मान्य न था जो एक जाति का दूसरी जाति में होता था। समाज इस प्रकार का विवाह करने चालों का हुक्का पानी बंद कर देता था।

अंतर्जातीय विवाह करने वालों को या तो समाज से निकाल दिया जाता था उन्हें इसका बड़ा भारी प्रायश्चित करना पड़ता था। गोवर मेहतो है तथा झुनिया अहीरन। जब गोबर व झुनिया का परस्पर प्रेम हो जाता है और गोबर गर्भवती झुनिया को माता-पिता के पास छोड़कर शहर भाग जाता है। तब एक बार तो होरी व धनिया भी झुनिया को रखने को तैयार नहीं थे। वे भी कहते हैं कि इस प्रकार का अंतर्जातीय विवाह समाज व बिरादरी को मान्य नहीं है।

परन्तु दोनों दया के सागर व मृदुल हृदय होकर झुनिया को शरण देते हैं तो इसका भयंकर परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता है। पहले तो उन्हें जाति से अलग कर दिया जाता है फिर पंचों द्वारा उस पर 100 रुपये नकद तथा तीस मन अनाज का दंड लगाया जाता है जिसको सहन करना होरी के लिए अत्यन्त कठिन है फिर भी होरी बिरादरी की मर्यादा के लिए उसे स्वीकार कर लेता है और धनिया के विरोध करने पर भी अदा करता है।

वास्तव में, गाँव में अंतर्जातीय विवाह, अनमेल विवाह, विधवा-विवाह आदि इस कारण होते थे कि एक ओर तो अशिक्षा, गरीबी व असमर्थता के कारण युवावस्था में भी विवाह नहीं होता था। दूसरी ओर, समाज में अनैतिकता थी। जो धनवान था वह चाहे जैसे कुकृत्य करता था, उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता था।

पटेश्वरी, गौरी मेहतो, मातादीन, झिंगुरी सिंह धन व तन के बल पर विवाह या अवैध प्रेम करते हैं। गरीबी के कारण होरी अपनी बेटी रूपा का विवाह एक अधेड़ व्यक्ति से कर देता है। वह बेचारा क्या करे, उसकी विवशता है ये अंतर्जातीय विवाह उस समय की प्रथा के अनुसार असामाजिक थे फिर भी यह समस्या विकट थी। क्योंकि ये समझौते विवाह कम थे, विवशता अधिक थे।

‘गोदान’ के ग्रामीण परिवेश में यद्यपि ये समस्याएँ प्रमुख थी परन्तु इसके अतिरिक्त भी अनेक समस्याएँ थी जो प्रायः समाज में व्याप्त थी। शिक्षा की समस्या, आर्थिक अभाव की समस्या, सरकारी कार्यकर्ताओं द्वारा उत्पीड़न, जमींदार के कारिन्दों का अन्याय, खेती के साधनों की कमी, धार्मिक अंधविश्वास, ढोंगी ब्राह्मणों का अन्याय, बिरादरी का भय आदि अनेक समस्याएँ थीं जो प्रायः समाज में व्याप्त थी। गोबर का नगर में जाकर रहना व झुनिया को अपने साथ रखना परिवार के विघटन की समस्या है। इस प्रकार ग्रामीण कथा गोदान में अनेक समस्याओं लेकर चलती है।

(ख) शहरी जीवन की समस्याएँ

नागरिक जीवन में प्रेमचन्द ने प्रमुख रूप में दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता प्रो. मेहता, डॉक्टर मिस मालती, अवध प्रान्त के जमींदार रायसाहब अमरपाल सिंह, मिल मालिक मि. खन्ना, पत्रकार ओंकार नाथ, अमीर मिर्जा खुर्शेद आदि पात्रों की मण्डली का विशेष रूप से उल्लेख किया है। ये सभी पात्र अपने-अपने पेशे में अलग-अलग हैं। परन्तु परस्पर मित्रता होने के कारण मिलते-जुलते रहते हैं। इन सभी के जीवन को प्रेमचन्द ने पर्याप्त रूप में प्रस्तुत किया है यद्यपि इनकी कथा गौण है फिर भी पर्याप्त विस्तृत है। इनके माध्यम से प्रेमचन्द ने शहरी जीवन की निम्नलिखित समस्याओं को चित्रित किया है-

1. जमींदार वर्ग की समस्या

उपन्यास में रायसाहब अमरपाल सिंह अवध प्रान्त के सेमरी गाँव के रहने वाले हैं। बहुत बड़े जमींदार हैं। उनके अधीन सभी किसान उनका कहा मानते हैं। रायसाहब के कारिन्दे नोखेराम आदि हैं जो लगान, नजराना आदि किसानों से समय-समय पर वसूल करते रहते हैं। किसानों से इतना अधिक वसूल किया जाता है कि जितना उन्हें खेती से नहीं मिलता। अतः सभी कृषक अत्यन्त दुखी हैं। उनके लिए शोषण सहनीय नहीं है।

उपन्यास का नायक होरी कथा के प्रारम्भ में ही कहता है-

‘गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आई, किस पर कुड़की नहीं आई। जब दूसरे के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल ‘है।’

होरी का गाँव बेलारी है जहाँ के सभी कृषक रायसाहब के असामी हैं। सभी किसान बड़े दुःखी हैं। रायसाहब भी यह बात जानते हैं। प्रेमचन्द ने शोषण की कथा रायसाहब से ही होरी के समक्ष कहलवा दी है।

रायसाहब कहते हैं– 

“हम इतने बड़े आदमी हो गए हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में निःस्वार्थ और परम आनन्द मिलता है…….ये रुपये तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं, माले की नोक पर ।” 

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जमींदार वर्ग कृषकों का शोषण करता था परन्तु उन्हें भी अपने ऑफिसरों को प्रसन्न करना पड़ता था। डालियाँ और रिश्वतें देनी पड़ती थीं। उनकी प्रत्येक मनोकामना पूरी करनी पड़ती है। वे भी इसके लिए परेशान रहते थे। उनके दौरे पर आने से या शिकार खेलने पर जमींदार उनके पीछे लगे रहते थे।

जितनी राशि वे चाहते थे वह सभी असामियों से वसूल की जाती है चाहे उनके पास इतना धन हो अथवा न हो। कहने के लिए तो रायसाहब के पास महल, गाड़ियों, नौकर, जमींदारी आदि सभी कुछ है परन्तु रायसाहब अन्तःकरण से दुःखी हैं क्योंकि उसकी वास्तविक स्थिति को गाँव के किसान नहीं जानते।

स्वयं रायसाहब कहते हैं-

” जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दुःख पर सब हंसे और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरे के पैरों के नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को भूल गया हो, जो हुक्काम के तलुए चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है।” 

जिस प्रकार रायसाहब दूसरों का शोषण करता हैं उसी प्रकार रायसाहब जैसे जमींदारों का भी शोषण होता है। रायसाहब भी उसी प्रकार दुःखी हैं जैसे कृषक वर्ग ।

प्रेमचन्द ने इस समस्या का समाधान भी संकेत रूप में प्रस्तुत किया है कि यदि जमींदारी व्यवस्था समाप्त हो जाये तो, न तो जमींदारों को कष्ट होगा और न कृषक वर्ग का शोषण रायसाहब का विचार है-

‘अगर सरकार हमारे इलाके छीनकर हमें अपनी रोजी के लिए मेहनत करना सिखा दे तो हमारे साथ महान् उपकार करे…..लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है।’

वस्तुतः कृषक जीवन की विडम्बनाएँ तभी मिट सकती हैं जबकि उनका शोषण रुक जाए। वे स्वतन्त्र रूप से अपने खेतों के स्वामी बनकर खेती कर सकें। अतः जमींदार वर्ग की समस्याएं समाप्त होने पर कृषक वर्ग को भी लाभ पहुँचेगा।

2. मिल मजदूरों की समस्याएँ

मुंशी प्रेमचन्द के समय ही चीनी मिलों आदि का निर्माण हो चुका था तथा बड़े-बड़े कारखाने व कम्पनियाँ तैयार हो रही थी। अपने उपन्यास ‘रंगभूमि’ में इनका विरोध प्रेमचन्द ने किया। है। ‘गोदान’ में भी मि. खन्ना का चीनी का मिल है जहाँ पर मजदूरों के वेतन को लेकर हड़ताल होती है। मि. खन्ना मजदूरी कम देते हैं तो हड़ताल भयंकर रूप धारण कर लेती है और मिल में आग लग जाती है, जिसका प्रभाव मिल मालिक मि. खन्ना पर भी पड़ता है और मजदूरों पर भी मजदूरों की नौकरी चली जाती है।

गोबर की नौकरी तो जाती ही है साथ में बहुत चोट भी लगती है। वस्तुतः उस समय गाँव के मजदूरों का शहर में पलायन होने लगा था क्योंकि गाँव में मजदूरी नहीं मिलती थी। वस्तुतः मजदूर अशिक्षित रहते हैं। नगर में रहने वाले मेहता जैसे सिद्धान्तवादी भी मजदूरों को बहका देते हैं अतः मजदूर बहकावे में आकर कभी हड़ताल तो कभी भूख-हड़ताल कर बैठते हैं, जिनका परिणाम कभी-कभी बड़ा भयानक निकलता है।

3. नारी शिक्षा

प्रेमचन्द के समय से पूर्व ही भारतीय नारियाँ विदेशी शिक्षा प्राप्त करने लगी थीं क्योंकि उच्च शिक्षा की प्राप्ति विदेशों में ही सम्भव थी। मिस मालती इंग्लैण्ड में जाकर पढ़ी है तथा वहाँ उसने एम. बी.बी.एस. की परीक्षा पास करके डॉक्टर बन गई है परन्तु वह पाश्चात्य सभ्यता में रहने वाली व उसी सभ्यता को अपनाने वाली नारी है। प्रेमचन्द नारी-शिक्षा के विषय में पाश्चात्य प्रभाव को स्वीकार नहीं करते थे। वे नारी शिक्षा के विरोधी नहीं थे परन्तु नारियों के लिए ऐसी शिक्षा भी नहीं चाहते थे जिससे वे पैसा कमाने वाली या विलासप्रिय हो जाएं।

वे चाहते थे कि नारी समाज को स्वतन्त्रता और शिक्षा तो प्राप्त हो परन्तु वे पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण न करें। इसीलिए उन्होंने मालती की पाश्चात्य संस्कृति को बदल दिया था उसकी शिक्षा को नहीं। वह बाद तक भी डॉक्टर का पेशा करती है।

प्रेमचन्द नहीं चाहते थे कि नारियाँ दफ्तरों में कार्य करें या वकालत करें या नेता बनें। वे तो नारी को शिक्षित बनाकर भी पाश्चात्य संस्कृति और उद्देश्य से बचाकर उसे सेवा और त्याग की मूर्ति बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि नारियाँ शिक्षित होकर भी घर में रहें ताकि अपने घर परिवार व बच्चों की देखभाल और परवरिश बेहतर ढंग से कर सकें।

4. नारी स्वतन्त्रता और अधिकारों की समस्या

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में नारियाँ भी भाग लेकर चोटों की राजनीति से व्यस्त हो गई थी। वे अपना अधिकार चाहती थी, तथा नारी स्वतन्त्रता पर जोर दे रही थी परन्तु प्रेमचन्द नारी का कार्य क्षेत्र प्रमुख रूप से घर मानते थे। हाँ, समाज कल्याण में नारियों का सहयोग वे औचित्यपूर्ण समझते थे।

यद्यपि नारी-स्वतन्त्रता महात्मा गाँधी को भी मान्य थी परन्तु नारियाँ उस समय पुरुषों के बराबर अपना अधिकार चाहती थी। इसका मूल कारण था कि पुरुषों ने नारियों का शोषण किया था। प्रेमचन्ट नारी की स्वतन्त्रता के पक्षपाती थे। परन्तु उन्हें वे अधिकार देना न चाहते थे जो पुरुषों को प्राप्त हैं।

वे नहीं चाहते थे कि नारी पाश्चात्य सभ्यता से परिपूर्ण हो। वे नारी-स्वतन्त्रता का अर्थ नारी की पति व संतति के प्रति सेवा भाव मानते थे। मि. खन्ना की पत्नी गोविन्दी समझदार भारतीय नारी है वह पति द्वारा तिरस्कार को प्राप्त है परन्तु प्रो. मेहता उसे न्यायालय में जाने के लिए नहीं कहते बल्कि उसे गृहस्थ जीवन को सार्थक बनाने का उपदेश देकर पुनः घर में भेज देते हैं। मेहता नारी को पुरुषों से अधिक पूजनीय मानता है परन्तु उसका क्षेत्र उनका अधिकार पुरुषों के समान स्वीकार नहीं करता।

प्रो. मेहता का कथन है कि

“नारी के अधिकारों के सामने बोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है कि हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं। जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर बिलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं…. २…भोग की विदग्ध लालसा ने उन्हें उच्छृंखल बना दिया है।”

अतः प्रेमचन्द नारी स्वतन्त्रता को चाहते हुए भी पाश्चात्य संस्कृति से उन्हें दूर रखना चाहते थे। वे नारी को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिलाना चाहते थे। 

5. स्वच्छन्द प्रेम की समस्या

प्रेमचन्द ने गोदान में विशेषतः नागरिक जीवन में स्वच्छन्द प्रेम का विरोध किया है। मिस मालती एक पाश्चात्य सभ्यता में पत्नी शिक्षित नारी है ‘गात कोमल, पर चपलता से कूटकूट कर भरी हुई, झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेकअप में प्रवीण, बला की हाजिरजबाब, पुरुष मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्त्व समझने वाली, तुमाने और रिझाने की कला में निपुण’ वह विदेशी शिक्षा के कारण तितली बनकर रहती है।

मिल मालिक मि. खन्ना उस पर लट्टू है। यह पत्रकार ओंकारनाथ को भी उल्लू बना देती है। पठान पर फिदा हो जाती है। दिल से प्रो. मेहता को चाहती है।

वह स्वयं मि. खन्ना से कहती है-

‘मैं रूपवती हूँ। तुम भी मेरे चाहने वालों में से एक हो।’

परन्तु प्रेमचन्द इस प्रकार की नारी को भारतीय नारी के गुणों से परिपूर्ण स्वीकार नहीं करते। स्वच्छन्द प्रेम उन्हें उचित प्रतीत नहीं होता। वे मालती के जीवन में परिवर्तन कर उसे सेवा तथा त्याग की प्रतिमा बना देते हैं। उसे विलासिनी से त्यागशील बना देते हैं। उनकी दृष्टि में सेवा और त्याग नारी के सबसे बड़े कर्तव्य हैं। अतः प्रेमचन्द ने मालती का प्रेम-सम्बन्ध प्रो. मेहता के साथ भी नहीं कराया है।

निष्कर्ष

इस प्रकार प्रेमचन्द ने गोदान में अनेक समस्याओं की ओर संकेत किया है, कुछ समस्याओं को विस्तार दिया है तो कुछ को संक्षिप्त रूप। उन्होंने सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं किया, क्योंकि अब वे यथार्थवादी अधिक थे। वे अब समस्याओं का आदर्शवादी समाधान नहीं चाहते थे। ‘सेवा सदन’ बनाकर नारी का उद्धार करना उन्हें स्वीकार्य न था। वे समझ गये थे कि मूलतः ग्राम्य वातावरण में आर्थिक अभाव है या ऋण की समस्या है। उसके समाधान के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन ही अवश्यंभावी है। इस विषय में डॉ. रामाश्रय मिश्र का कथन है-

‘उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द का ‘गोदान’ सर्वश्रेष्ठ सामाजिक उपन्यास है। समाज के विभिन्न पहलुओं का जैसा पदार्थ, सजीव, आकर्षक और हृदयस्पर्शी चित्रण गोदान में बन पड़ा है वैसा अन्यत्र किंचित् दुर्लभ है। यदि एक तरफ किसानों की आदर्श उदार भावना को चित्रित किया गया है, तो दूसरी तरफ साहूकारों और धनिक वर्ग की शोषण पद्धति को।

यदि एक तरफ शहरी समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है, तो दूसरी तरफ गाँव की समस्याओं को। एक तरफ पुरुष वर्ग की समस्याओं को दर्शाया गया है, तो दूसरी तरफ नारी वर्ग की समस्याओं को। समाज में उस समय समस्याएं ही समस्याएँ दिखाई पड़ती थी जिसके कारण ‘गोदान’ उपन्यास समस्याओं से भर गया है। यदि इसे यथार्थ के साथ समस्या प्रधान उपन्यास कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी।’

Godan Upanyas Samasya PDF

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