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हिंदीशाला के इस पोस्ट में हम हिंदी के बहुत ही प्रसिद्ध कवि कबीरदास की भक्ति भावना के बारे में पढ़ने जा रहें ही। यदि आप हिंदी के विद्यार्थी है तो निश्चित तौर पर आपने कबीर के बारे में पढ़ा और सुना होगा। यहाँ आज हम उनके काव्य की भक्ति भावना पर प्रकाश डालने जा रहें है।
कबीर की भक्ति भावना
कबीर दास एक सच्चे समाज सुधारक, साधक एवं उत्कृष्ट चिंतक थे। इससे बढ़कर वे एक उच्च कोटि के भक्त भी थे। परंतु उनकी भक्ति किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं है। उस समय सभी लोग अपने अपने धर्म, संप्रदाय के संकुचित क्षेत्र में रहने के लिए ही विवश थे। कबीरदास जी ने ऐसे समय में एक ऐसी विराट भक्ति-पद्धति का प्रचलन किया जिसमें ऊंच-नीच सभी लोग भाग ले सकते थे, जिसके लिए कोई साधन यथा – मूर्ति, तीर्थ-यात्रा, तिलक-माला, मंदिर-मस्जिद आदि की आवश्यकता नहीं थी। कबीरदास की भक्ति भावना को निम्नलिखित वर्गों में बांटकर उसका अध्ययन किया जा सकता है :-
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कबीरदास का जीवन परिचय
कबीर के राम संबंधी विचार
1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल
यद्यपि कबीरदास जी ने अपने आराध्य के लिए राम रहीम आदि शब्दों का प्रयोग किया है। परंतु वास्तव में उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के लिए ही इन प्रचलित नामों का प्रयोग किया है ताकि जनसाधारण उनके विचारों को सहजता के साथ ग्रहण कर सके। उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि उनका राम न तो दशरथ के अवतार लेता है और न ही लंका के राजा रावण को मारता है।
ना दशरथ घरि ओतरि आवा।
ना लंका का राव सतावा।।
कबीरदास जी का राम निर्गुण-निराकार, सर्वव्यापी, कल्पनातीत, कालातीत अगम, अगोचर है। वह किसी मंदिर मस्जिद में निवास नहीं करता बल्कि वह तो मनुष्य के मन में ही रहता है। कबीरा इसी निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने पर बल देते हैं जो कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ही है।
निरगुन राम जपहुं रे भाई।
अविगत की गति लखि न जाई।।
2. निष्काम भक्ति पर बल
कबीरदास जी निष्काम की भक्ति को ही महत्व देते हैं सका मथुरा किसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए की गई भक्ति काव्य विरोध करते हैं। अपने इष्ट देव अर्थात निर्गुण ब्रह्म के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तैयार हैं। यहां तक कि वे राम की भक्ति के समक्ष स्वर्ग के आनंद को भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने आराध्य को केवल प्रेम के बल पर प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए वे कहते हैं –
नैनन की कर कोठरी पुतली पलंग बिछाय।
पलकन की चिक डारि कै पिय को लेऊं रिझाय।।
3. अच्छी संगति का महत्व
कबीरदास भक्तों के लिए अच्छी संगति को अनिवार्य मानते हैं। साधु संतों की संगति में रहकर ही भक्त अपने आराध्य के प्रति विशेष श्रद्धा भाव उत्पन्न कर सकता है तथा साधु संतों एवं सज्जनों के निकट रहकर ही वह अच्छा आचरण कर सकता है। कबीरदास जी साधु संतों की सेवा को ईश्वर सेवा से अलग नहीं मानते। वह तो स्पष्ट घोषणा करते हैं कि साधु संतों की सेवा एवं ईश्वर की सेवा एक ही है, इसमें लेश मात्र भी अंतर नहीं है।
जा घर साध न सेवियेही, हरि की सेवा नाहिं।
ते घर मरहट सारखे, भूत बसहिं तिन माहिं।।
Kabir Das Ki Bhakti Bhavna
4. गुरु का महत्व
कबीरदास जी ने ईश्वर प्राप्ति में गुरु को महत्वपूर्ण साधन माना है। केवल गुरु ही भक्तों को ईश्वर से मिला सकता है। गुरु ही भक्तों को पहले कुमार्ग से सन्मार्ग पर लाता है, उसे मोह-माया से दूर करता है और अंत में उसे ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताता है।
गूँगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान।
पाँवु थैं पंगुल भया, सतगुर मारया बान।।
जब भगत ईश्वर के दर्शन करता है तो उसे ईश्वर के साथ गुरु भी दिखाई देता है। ऐसी दशा में कबीर पहले गुरु के पाव छूने के लिए कहते हैं क्योंकि उन्होंने ही उसे ईश्वर से मिलाया है। अंततः कबीरदास जी ने गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर बताया है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
5. मोह-माया का विरोध
कबीर दास जी ने भगत के लिए मोह-माया आदि को त्याग देने योग्य बताया है क्योंकि यह भगत के लिए ईश्वर प्राप्ति में बाधक सिद्ध होती है। यह माया ही सभी दोषों की जननी है। जब तक मनुष्य माया का त्याग नहीं करता तब तक वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए कबीर दास जी मोह-माया का विरोध करते हुए कहते भी हैं कि –
माया महा ठगनी हम जानि ।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरी बानी।।
6. नवधा भक्ति पर बल
कबीरदास जी भक्ति भावना में नवधा भक्ति के सभी भेद यथा – नाम स्मरण, कीर्तन, श्रवण, वंदना, अर्चना आदि देखने को मिल जाते हैं। इन सभी में उन्होंने नाम स्मरण पर ही विशेष बल दिया है। परंतु वे नाम स्मरण में पाखंड का विरोध करते हैं।
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं।
मनवा तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमरिन नाहिं।।
निष्कर्ष
कबीरदास जी वास्तविक अर्थों में एक सच्चे साधक एवं भगत थे। वे जिस निर्गुण-निराकार, परम-पिता परमात्मा की बात अपने दोहों में कहते हैं ठीक उसी प्रकार से उनका आचरण भी प्रतीत होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कबीर की भक्ति भावना में किसी प्रकार का दिखावा नहीं था। वह मोह-माया, छल-कपट बाहरी-आडंबर आदि सभी से कोसों दूर नजर आती है। कबीर दास की भक्ति भावना ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों को खत्म करके लोगों को एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
अंततः कहा जा सकता है कि कबीरदास की भक्ति भावना अद्वितीय हैं। दोस्तों हमने इस ब्लॉग पोस्ट में कबीरदास की भक्ति-भावना का विस्तार से वर्णन किया है। यदि आपको इस प्रश्न से संबंधित किसी भी प्रकार की अन्य जनकारी लेनी हो तो आप हमें कमेंट करके पूछ सकते है। साथ ही यदि आपको यह आर्टिकल पसंद आया हो तो आप अपने कीमती विचार हमसे साँझा कर सकते है। इसी तरह के अन्य ब्लॉग पोस्ट के लिए हिंदीशाला वेबसाइट के साथ बने रहें।