नमस्कार दोस्तों ! आज के इस लेख में हम भक्तिकाल के आधार स्तंभ माने जाने वाले कवि कबीरदास के उन दोहों को आपके साथ साँझा करने जा रहें है जो तत्कालीन सत्तारूढ़ राजाओं और धार्मिक पाखंडता को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देते हुए नजर आते है।
कबीरदास जिस समय में हुए उस समय राजनीतिक वातावरण पूर्ण रुप से विषाक्त हो चुका था। इस राजनीतिक परिवेश के संचालन की प्रेरणा में काफी हद तक मुल्ला और पुजारी भागीदारी रखते थें। हिंदू- मुसलमानों के भीतर भी निरंतर ईर्ष्या और द्वेष का बोलबाला था। तत्कालीन समृद्ध धर्मों बौद्ध, जैन, शैव एवं वैष्णवों के अंदर विभिन्न प्रकार की शाखाएँ निकल रही थी। सभी धर्मों के ठेकेदार आपस में लड़ने एवं झगड़ने में व्यस्त थे।
इस क्रूर स्थिति में कबीरदास जी ने अपनी वाणी के बल पर समाज में अराजकता फैलाने वाले धार्मिक पांखण्डियों और राजाओं पर कड़ा प्रहार करने का काम किया था। कबीरदास जी ने किसी भी दुराचारी राजा और धार्मिक कट्टरता को स्वीकार नहीं किया और वे जीवन प्रयंत बेबाक रहें।
1. दर की बात कहो दरवेसा बादशाह है कौन भेसा
कहाँ कूच कर हि मुकाया, मैं तोहि पूछा मुसलमाना
लाल जर्द का ताना- बाना कौन सुरत का करहु सलामा ।।
बादशाह तुम्हारा वेश क्या है ? और तुम्हारा मूल्य क्या है ? तुम्हारी गति कहाँ है ? किस सूरत को तुम सलाम करते हो ? इस प्रकार राजनीतिक अराजकता तथा घोर अन्याय देखकर उनका हृदय वेदना से द्रवित हो उठता है। धार्मिक कट्टरता के अंतर्गत मनमाने रुप से शासन तंत्र चल रहा था, जिसमें साधारण जनता का शोषण बुरी तरह हो रहा था। कबीर के लिए यह स्थिति असहनीय हो रही थी।
2. राजा देश बड़ौ परपंची, रैयत रहत उजारी
इतते उत उतते इतरहु, यम की सौ-सजय़ सवारी ।
घर के खसम बधिक वे राजा
परजा क्या छोंकौं, विचारा ।।
कबीर के समय में ही शासको की नादानी के चलते, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद और पुनः दौलताबाद से दिल्ली बदलने के कारण अपार धन और जन को हानि हुई थी तथा प्रजा तबाह हो गई थी।
महात्मा कबीर साहब ने इस जर्जर स्थिति एवं विषम परिस्थिति से जनता को उबारने के लिए एक प्रकार जेहाद छेड़ दिया था। एक क्रांतिकारी नेता के रुप में कबीर समाज के स्तर पर अपनी आवाज को बुलंद करने लगे। काजी, मुल्लाओं एवं पुजारियों के साथ- साथ शासकों को धिक्कारते और अपना विरोध प्रकट किया, जिसके फलस्वरुप कबीर को राजद्रोह करने का आरोप लगाकर तरह- तरह से प्रताड़ित किया गया।
3. आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ।।
कबीरदास जी जन्म और मृत्यु के संदर्भ में राजा, रंक और फ़क़ीर को एक ही तराजू में तोलते हुए कहते है कि एक दिन सबको इस मिथ्या संसार का त्याग करके जाना होगा। कोई फिर राजा हो या रंक या हो फ़क़ीर कोई शास्वत नहीं है।
4. इक दिन ऐसा होइगा, सब लोग परै बिछोई ।
राजा रानी छत्रपति, सावधान किन होई ।।
कबीरदास जी अपने दोहे के माध्यम से कहते है कि परिवर्तन संसार का नियम है। शासन करने वाला राजा भी कोई स्थाई नहीं है, उसे भी एक दिन इस राजगद्दी का त्याग करना होगा और मरण को स्वीकार करना होगा। अतः राजभोग प्राप्त करके गर्व नहीं करना चाहिए, अत्याचार नहीं करना चाहिए।
5.भये निखत लोभ मन ढाना, सोना पहिरि लजावे बाना।
चोरा- चोरी कींह बटोरा, गाँव पाय जस चलै चकोरा ।।
कबीरदास जी कहते है कि लोगों को गलत बातें ठीक लगती थी और अच्छी बातें विष। सत्य की आवाज उठाने का साहस किसी के पास नहीं है।
6. ऐसा लोग न देखा भाई, भुला फिरै लिए गुफलाई ।
महादेव को पंथ चलावै ऐसे बड़ै महंत कहावै ।
हाट बजाए लावे तारी, कच्चे सिद्ध न माया प्यारी ।7. दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया ।
मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय ।।
कबीरदास जी कहते है कि लोग दिन में रोजा का व्रत रखते है और रात में गाय की हत्या करते है। एक ओर खून जैसा पाप और दूसरी ओर इश बंदगी। इससे भगवान कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार एक गरीब कामगार कबीर ने शोषक वर्ग के शिक्षितों साधन संपन्नों के खिलाफ एक जंग को बिगुल बजाया।
8. कुष्टी होवे संत बंदगी कीजिये ।
हो वैश्या के विश्वास चरण चित दीजिये ।।9. कहा हमार गढि दृढ़ बांधों, निसिवासर हहियो होशियार ।
ये कलि गुरु बड़े परपंची, डोरि ठगोरी सब जगमार ।।
कबीर चाहते थे कि सभी व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार अपनी आँखों से करे। धर्म के नाम पर मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई खोदने वालों से कबीर साहब को सख्त नफरत होती थी। उन्होंने ऐसे तत्वों को बड़ी निर्भयता से अस्वीकार कर दिया था।
10. सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप ।
ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप ।।
भक्त कबीदास जी कहते है कि राजाओं की गलत और दोषपूर्ण नीति के कारण देश जर्जर हो गया और प्रजा असह्य कष्ट उठाने को बेबश थी। राज नेता धर्म की आड़ में अत्याचार करते थे। कबीर की दृष्टि में तत्कालीन शासक यमराज से कम नहीं थे।
11. कबीर, मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय ।
जो कोई यह खात है, ते नर नरकहिं जाय ।।
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