आज की इस पोस्ट में हम तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली की व्याख्या को पढ़ने जा रहें है। यह रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड से अवतरित है। NCERT 12th Class के लिए यह कविता बहुत ही मत्वपूर्ण है, इसलिए आपको इसे अवश्य ही पढ़ लेना चाहिए।
कवितावली व्याख्या
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है अगि पेटकी ॥
प्रसंग – प्रस्तुत कवित्त हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित ‘कवितावली’ कविता से लिया गया है। इसमें कवि ने अपने समय के समाज का यथार्थ अंकन किया है। जहाँ संसार के अच्छे-बुरे सभी प्राणियों का आधार पेट की आग का गहन यथार्थ है जिसको कवि राम रूपी घनस्याम के कृपा-जल से समाधान करने की प्रार्थना करते हैं।
व्याख्या – इस संसार में मजदूर, कृषक, व्यवसायी, वैश्य, भिक्षुक, भाट, नौकर-चाकर, चंचल नर, चोर, दूत, जादूगर सभी लोग अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के कार्यों को करते हैं। वे अनेक करिश्मों को करते हैं-यहाँ तक कि पर्वतों पर चट्ट हैं। वे बड़े-बड़े कठिन कार्यों को करते हैं, घने जंगलों में पर्वतों पर चढ़ जाते हैं। शिकारी के रूप में सारा दिन भटकते र हैं। पेट ऐसी ही बला है जिसके लिए लोग दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं। उचित-अनुचित कार्य करने में भी रहते हैं। वे नहीं हिचकिचाते हैं। धर्म-अधर्म की भावना लोगों में नहीं रह गई है। यहाँ तक कि अपने इस पेट को भरने के लिये अपने को भी बेच डालते हैं। यह पेट की अग्नि समुद्र की आग से भी कहीं बढ़कर सिद्ध हो रही है। अब ऐसी विषण अग्नि को शांति मेघ रूपी श्रीराम से ही हो सकती है अर्थात् प्रभु राम की कृपा हो जाये तो यह भूख, जिसको शांत करने के लिए लोग भटक रहे हैं, शांत हो सकती है।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहें एक एकन सों कहाँ जाई, का करी ?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सर्वे पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद- दसानन दबाई दुनी, दुनी, दीनबंधु
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश ‘आरोह भाग-2′ में संकलित कवि ‘तुलसीदास’ द्वारा रचित कवितावली से लिया गया है। इसमें कवि ने प्रकृति और शासन की विषम से अपनी गरीबी और बेकारी की पीड़ा का यथार्थपरक चित्रण किया है तथा प्रभु राम से इसे दूर करने की प्रार्थना की है।
व्याख्या – तुलसी जी समकालीन समाज में व्याप्त गरीबी और बेकारी का यथार्थ चित्रण करते हुए प्रभु राम को संबोधन करके कहते हैं कि हे दीनबंधु समाज में हर तरफ गरीबी और बेकारी का बोलबाला है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। किसान के पास खेती करने के लिए उचित साधन नहीं हैं जिससे वह खेती पैदा नहीं कर सकता। भिखारी को भीख नहीं मिलती। कोई संपन्न व्यक्ति नहीं जो भीख दे सके। व्यापारी के पास कोई व्यापार नहीं है जिससे उसकी आजीविका चल सके। नौकरों तथा कार्य करने वाले लोगों को नौकरी या काम नहीं मिल पाता। समाज में किसी के पास भी आजीविका चलाने का कोई साधन नहीं है।
वे सब बेकारी के कारण शोक वश दुःखी हैं। समाज का प्रत्येक वर्ग दोनहीन एवं दुखी है। दुखी होकर वे आपस में एक-दूसरे को यहीं कहते हैं कि अब कहाँ जाएं और क्या करें ? जिससे जीवन-यापन हो सके कवि कहते हैं कि हे राम! वेदों और पुराणों में कहा गया है और संसार में भी ऐसा देखा गया है कि भीषण संकट की स्थिति में सांवले प्रभु राम ही कृपा करते हैं। अतः हे प्रभु! आप सभी पर अपनी कृपा करें। आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति पीड़ित है। हे दीन-दुखियों की रक्षा करने वाले दीनबंधु इस समय संपूर्ण समाज को गरीबी रूपी रावण ने दबा रखा है अर्थात् दुनिया में हर कहीं गरीबी रूपी रावण का साम्राज्य है। चारों तरफ गरीबी फैली हुई है। तुलसी जी प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि है दरिद्रता को जला देने वाले प्रभु! आप तो कष्टों का नाश करने वाले हो अतः आप ही हमें इस गरीबी से निकालिए। आप ही दुनिया से गरीबी को दूर करें।
Kavitawali Vyakhya
धूत कहाँ, अवधूत कहाँ, रजपूत कहाँ, जोलहा कहाँ कोऊ ।
काहूकी बेटीसों बेटा न व्याहब, काहूकी जाति बिगार ना सोक ॥
तुलसी सरनाम गुलाम है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगी के खैबो, मसीतको सोइयो, लैबोको एक न दैबको दोउ।
प्रसंग – प्रस्तुत सवैया ‘आरोह भाग-2’ में संकलित कवि तुलसीदास द्वारा रचित कवितावली से लिया गया है। इसमें भक्त हृदय के आत्मविश्वास का चित्रण है तथा कवि ने समाज में व्याप्त जातिवाद और धर्म का खंडन किया है।
व्याख्या – भक्त तुलसीदास जो आत्मविश्वास को प्रकट करते हुए कहते हैं कि समाज मुझे चाहे कोई त्यागा हुआ कहे प संन्यासी, कोई जाति का राजपूत कहे या जुलाहा मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर मैंने किसी की बेटी से बेटे की शादी नहीं करनी जिससे किसी की जाति बिगड़ जाएगी।
तुलसी जी जाति धर्म का खंडन करते हुए कहते हैं कि मैं तो केवल प्रभु राम का दास हूँ फिर जिसे जो अच्छा लगे वह कहता रहे। मुझे किसी की जाति धर्म से कोई सरोकार नहीं है। तुलसी जी कहते हैं कि मुझे किसी से कोई लेना-देना नहीं है। मैं तो भीख माँग कर पेट भरता हूँ और मस्जिद में सोता हूँ। मैं तो पूर्ण रूप से प्रभु राम की शरण में समर्पित हो गया हूँ। मुझे संसार से कोई मतलब नहीं है।
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