कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ / कृष्ण काव्य की विशेषताएं

Krishna Kavya Ki Visheshtayen

कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ

सगुण-कृष्ण भक्ति-सगुण कृष्ण भक्ति काव्य से अभिप्राय उस काव्य से है जिसमें कवियों ने ईश्वर का रूप श्रीकृष्ण में देखकर अपने काव्य की रचना की। कवियों ने इस काव्य में श्रीकृष्ण के बाल रूप से लेकर उनके ईश्वरमय रूप तक की वंदना की है। कृष्ण भक्ति के प्रणेता वल्लभाचार्य हैं। उन्होंने पुष्टि-मार्ग का प्रतिपादन किया, जिसमें उन्होंने आठ कवियों (सूरदास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, छीत स्वामी, नंददास, चतुर्भुजदास और गोविंद स्वामी) को दीक्षित किया। रसखान एवं मीराँबाई भी कृष्ण काव्य के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। सूरदास इस काव्य-परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन सभी कवियों के काव्य के आधार पर कृष्ण काव्य की जो मुख्य प्रवृत्तियाँ उभर कर हमारे सामने आती हैं, इस प्रकार हैं। 

कृष्ण-लीला गान

मध्यकालीन कृष्ण भक्त कवियों ने लोकरंजनकारी कृष्ण की लीलाओं का उन्मुक्त गान किया है। कृष्ण भक्त कवियों की लीला का एकमात्र प्रयोजन अखण्ड आनंद में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यंजना करना था। इस लीला के उन्होंने अनेक रूप कल्पित किए। बालगोपाल की वात्सल्यपूर्ण-लीलाएँ, सख्य रूप में लीलाएँ तथा माधुर्य भावपूर्ण लीलाएँ आदि समस्त मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य में व्याप्त हैं। सूरकाव्य में कृष्ण लीलाओं का सबसे अधिक विस्तार है। सूरदास ने कृष्ण के प्रणय-लीला वर्णन में एक निश्चित विवेक और निश्चित अध्यात्म भावना से काम लिया था, जो बाद में कृष्ण भक्त कवियों द्वारा भुला दिया गया, जिसकी परिणति रीतिकाल में घोर लौकिक शृंगारिकता में हुई।

भक्ति-भावना

कृष्ण भक्ति का मूल आधार भगवद् भक्ति है। पात्रों के भाव के अनुरूप इसकी परिणति वात्सल्य, सख्य, दास्य और माधुर्य भाव में हो जाती है। स्वामी वल्लभाचार्य ने जिस पुष्टिमार्गीय भक्ति का प्रतिपादन किया है, उसके लिए भगवान् का अनुग्रह अपेक्षित है। इसके लिए नवधा भक्ति का विधान मिलता है। वैसे कृष्ण भक्ति के सभी संप्रदायों ने माधुर्य भक्ति को अधिक महत्ता प्रदान की है । 

हालांकि कृष्ण काव्य के कवियों की भक्ति भावना निर्गुण और सगुण दोनों पर प्रकाश डालती

हैं, परंतु फिर भी उनका अनुराग सगुण भक्ति की तरफ अधिक है तथा वे स्थान-स्थान पर निर्गुण का खंडन भी करते हैं, क्योंकि वह मन, वाणी और कर्म से अगम्य है। 

“अविगत गति कछु कहत न आवै।
रूप-रेख, गुण, जाति, जुगति बिनु, निरालम्ब मन चक्रत यावे।
सब विधि अगम विचारहिं तातें, सूर सगुन लीला पद गावै।।”

भ्रमरगीत वर्णन

कृष्ण काव्यधारा के प्रायः सभी कवियों ने अपने भाव प्रकट करने के लिए भ्रमरगीत रचे। इस प्रकार के गीतों का प्रसंग विरह-वर्णन शीर्षक में अधिक हुआ है। विरह दग्ध गोपियों उद्धव को खरी-खोटी सुनाने के उद्देश्य से एक भौर को संबोधित कर अपने मन के भाव प्रकट कर देती हैं। इस प्रकार गोपियाँ भ्रमर का आश्रय लेकर उद्धव एवं श्रीकृष्ण को भला-बुरा कहकर अपने मन की बातें कह डालती हैं। हिन्दी में यह परंपरा भ्रमर गीत के नाम से प्रसिद्ध है। कृष्ण भक्त कवियों ने इसका बड़ी तन्मयता एवं कुशलता से चित्रण किया है।

चरित्र-चित्रण 

इस काव्य में राधा-कृष्ण तथा उनके विविध मित्रों का चरित्र-चित्रण किया गया है। इन पात्रों के चित्रण की एक विशेषता है-प्रतीकात्मकता। राधा माधुर्य भाव की भक्ति की प्रतीक है। कृष्ण परमात्मा है और गोपियाँ जीवात्माएँ। वे निरंतर प्रेम में व्याकुल होकर परम आनंद धाम कृष्ण में लीन होने के लिए व्याकुल रहती हैं।

प्रकृति-चित्रण

इस काव्य धारा के कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति का उद्दीपन और आलंकारिक रूप में विशेष चित्रण किया है। उद्दीपन रूप में उन्होंने यमुना की तरंगों, वन-उपवन आदि का अपूर्व वर्णन किया है।

“बिन गोपाल बैरिन भई कुंजै
तब ये लता लागति अतिशीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।”

गीति एवं मुक्तक काव्य-कृष्ण काव्य गीति काव्य तथा मुक्तक काव्य होने के साथ ही संगीतात्मक है। कृष्ण काव्य में राग-रागनियों का सुंदर संयोजन है। सूर-मीरा, हित हरिवंश, हरिदास आदि भक्त कवियों के पदों में गीति तत्व की प्रधानता के साथ संगीत की अपूर्व छटा है। प्रायः समस्त काव्य मुक्तक है, जिसका एक-एक पद एक-दूसरे से पूर्ण निरपेक्ष है। कृष्ण काव्य के ये मुक्तक आज भी संगीत के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान रखते हैं।

मौलिक उद्भावनाएँ

कृष्ण काव्य का मूलाधार भागवत् पुराण है, परंतु इन कवियों ने इससे प्रेरित होते हुए भी अपने काव्य में कुछ मौलिक उद्भावनाएँ जैसे-कृष्ण का रसिया रूप दिखाना, जबकि भागवत् के कृष्ण गोपियों के बार-बार आग्रह पर ही उनकी और उन्मुख होते हैं, कृष्ण का, लौकिक रूप दिखाना जबकि भागवत् के कृष्ण अलौकिक परब्रह्म है, राधा पात्र की सृष्टि, जबकि भागवत् में राधा नाम का कोई पात्र नहीं है, हाँ, एक गोपी का जिक्र जरूर है। भागवत् में गोपियों के प्रेम की 1 पवित्रता निष्कलंक नहीं रहती-कृष्ण की अनुपस्थिति में बलराम, मदिरा पीकर, उनके साथ विहार करते हैं; जबकि कृष्ण भक्त कवियों ने गोपियों की एकमात्र कृष्णोन्मुखता ही दिखाई है।

रस योजना

कृष्ण काव्य का मूल रस ‘भक्ति’ ही है। हाँ, इस रस का पर्यवसान वात्सल्य, श्रृंगार तथा शांत रस में हो गया है। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण रस वात्सलय है। इसी प्रकार कृष्ण भक्त कवियों ने शृंगार के दोनों पक्षों-संयोग एवं वियोग का भी बड़ा सजीव वर्णन किया है। संयोग की इनका वियोग-वर्णन उत्कृष्ट बन पड़ा है। इन रसों के अतिरिक्त वीर, अद्भुत तथा हास्य रसों का भी कृष्ण भक्त कवियों ने सरस चित्रण किया है।

अलंकार योजना

कृष्ण भक्त कवियों ने अपने साहित्य में अलंकारों का प्रयोग बड़े स्वाभाविक और सजीव रूप में किया है। इनके काव्य में अलंकार साधन बनकर आए हैं, न कि साध्य बनकर। वैसे इनके काव्य में उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, उपमा आदि अलंकार विशेष रूप से प्रयुक्त छंद हैं।

छंद-विधान

इस काव्य धारा के कवियों ने प्रमुख रूप से तो अपने काव्य में पद-छंद का प्रयोग किया है, परंतु इसके अतिरिक्त चौपाई, सार, सरसी, दोहा, रोला, कवित्त, सवैया, छप्पय, कुंडलियाँ, गीतिका, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है।

भाषा-शैली

शैली इस काव्य के सभी कवियों ने श्रीकृष्ण की लीला स्थली की भाषा, ब्रज भाषा को अपनाया है। वैसे ब्रजभाषा अपनी सरसता के लिए प्रसिद्ध है ही, इन कवियों ने उसकी सरसता में चार चांद लगा दिए हैं। इन कवियों ने अपने काव्य में प्रसाद तथा माधुर्य गुणों, सभी शब्द-शक्तियों, लोकोक्तियों, मुहावरों आदि का खुलकर प्रयोग किया है। इनके हाथों में पड़कर भाषा का रूप निखर उठा है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह सहज ही कहा जा सकता है कि कृष्ण भक्ति साहित्य आनन्द और उल्लास का ही साहित्य है। हाँ, यह केवल ब्रज संस्कृति का ही कोष नहीं है, बल्कि समग्र भारतीय संस्कृति का निरूपक काव्य है। डॉ. हरिशचन्द्र वर्मा के अनुसार, “काव्य में भारतीय सांस्कृतिक जागरण की रूपरेखा निहित है।

यह काव्य सामंती संस्कृति के विरुद्ध जनतांत्रिक लोक-संस्कृति के उन्मेष की समस्त अभिव्यक्ति है। इस काव्य में लोक-रुचि और मानवीय रागों के उदात्तीकरण की प्रक्रिया निहित है। यह काव्य औपचारिकताओं, विधि विधानों, ज्ञान-ध्यान, कुण्ठाओं, वर्जनाओं, मिथ्या-मर्यादाओं, दबावों, तनावों से मुक्त करके मानव को आशा, आस्था, उल्लास और आनन्द की उच्च मनोभूमि पर प्रतिष्ठित करता है।”

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