लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से अवतरित प्रसंग है। इस पोस्ट के अंदर आप इस कविता की व्याख्या को पढ़ सकते है। यह कविता 12th कक्षा की आरोह भाग – 2 में लगी हुई है। इसीलिए यह कविता बोर्ड की परीक्षा के संदर्भ में काफी उपयोगी है। यहाँ हमने लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप की प्रसंग सहित व्याख्या की हुई है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप व्याख्या
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहवं नाथ तुरंत
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलत हनुमंत
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार
शब्दार्थ – तव = तुम्हारा। प्रताप = बल। उर = हृदय। राखि = रखकर । जैह = जाऊँगा। तुरंत = इसी समय, अभी। अस = ऐसा, इस तरह। आयसु = आज्ञा। पद = चरण, पैर, पाँव। बंदि = बंदना। बाहुबल = भुजाओं की शक्ति। सील = शील। गुन = गुण। पद = पैर। प्रीति = प्यार। अपार = असीम, अनंत। महुँ = में सराहत = बड़ाई कर रहे हैं। पुनि-पुनि =बार-बार, फिर-फिर। पवनकुमार = पवन पुत्र अर्थात् हनुमान।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ नामक प्रसंग से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा प्रसंग का करुण चित्रण प्रस्तुत किया है। हनुमान जी मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लेकर जा रहे थे तो उन्हें राक्षस समझ कर भरत ने तीर मारा था हनुमान जी राम-नाम लेकर मूर्छित हो गए। भरत जी ने उन्हें स्वस्थ किया और उनसे सब विवरण जान कर पछताने लगे। समय बीतता देखकर भरत जी ने हनुमान जी को अपने बाण पर चढ़ा कर राम जी की ओर प्रस्थान करने के लिए कहा।
व्याख्या – हनुमान जी भरत जी से कहते हैं कि हे प्रभो। मैं आप का प्रताप अपने हृदय में रख कर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कह कर और भरत जी से आज्ञा प्राप्त कर उन के चरणों की वंदना कर हनुमान जी चले भरत जी के बाहुबल, शील, गुण और प्रभु राम के चरणों में उन के अपार प्रेम की मन-ही-मन बार-बार सराहना करते हुए पवनपुत्र हनुमान जी चले जा रहे हैं।
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले वचन मनुज अनुसारी
अर्ध राति गइ कपि नहिं आय। राम उठाइ अनुज उर लायउ
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु विपिन हिम आतप बाता
शब्दार्थ – उहाँ = वहाँ। लछिमनहि = लक्ष्मण को निहारी = देखा। मनुज-अनुसारी = मनुष्य के अनुसार। अर्ध = आधी राति = रात। कपि = वानर अर्थात् हनुमान। आयउ = आए। अनुज = छोटा भाई लक्ष्मण। उर = हृदय। लायड = लगाया। सकहु = सके। दुखित = दुखी। मोहि = मुझे। बंधु = भाई। तव = तुम्हारा। मृदुल = कोमल। सुभाऊ = स्वभाव। यम = मेरा। हित = भला। लागि = तथा। तजेहु = छोड़ दिया। सहेहु = सहन किया। हिम = बर्फ सर्दी। आतप = गर्मी। याता = वायु, आंधी।
प्रसंग – यह काव्यांश तुलसीदास रचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से लिया गया है। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्रीराम चंद्र की करुण दशा का मार्मिक चित्रण किया है।
व्याख्या – प्रभु राम की करुणावस्था का चित्रांकन करते हुए कवि जी कहते हैं कि युद्ध क्षेत्र में हुए लक्ष्मण को देखकर एक साधारण मनुष्य के अनुसार बोलने लगे अर्थात् कवि का आशय यह है कि लक्ष्मण के मूर्छित होने पर श्रीराम का हृदय इतना व्याकुल हो उठा कि वे एक साधारण मानव की तरह विलाप करने लगे। वे लक्ष्मण को देखकर करुण दशा में बोल पढ़े कि आधी रात व्यतीत हो गई है लेकिन अभी तक हनुमान जी औषधि लेकर नहीं आए। यह कहकर राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को नीचे से उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। कहने का भाव है कि हनुमान के न आने पर श्रीराम जी बहुत ज्यादा व्याकुल हो गए और उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर हृदय से लगा लिया।
श्रीराम चंद्र लक्ष्मण को याद करते हुए व्याकुल होकर कहते हैं कि हे भाई तुम्हारा स्वभाव सदा से ही बहुत कोमल है इसलिए तुम मुझे कभी भी दुखी नहीं देख सके अर्थात् सदैव तुमने दुःखों में मेरी सहायता की है। श्रीराम विलाप करते हुए कहते हैं कि हे भाई । मैं तुम्हारी महानता का कहाँ तक बखान करूँ। तुमने तो मेरी भलाई के लिए अपने माता-पिता को भी छोड़ दिया तथा अयोध्या के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन को छोड़कर तुम मेरे साथ जंगलों में चले आए। यहाँ तुमने जंगलों की भयानक सर्दी, गर्मी, आँधी और तूफानों को सहन किया। अर्थात् हे भाई । तुमने मेरे लिए अपने सुखों का त्यागकर सदैव मेरा द किया।
सो अनुराग कहां अब भाई उठहु न सुनि मम बच बिकलाई
जाँ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू पिता बचन मनते नहिं ओहू
सुत बित नारि भवन परिवारा होहिं जाहिं जग बारहिं बारा
अस विचारि। जियँ जागहु ताता। मिलड़ न जगत सहोदर भ्राता
शब्दार्थ – सो = वह। अनुराग = प्रेम, प्रीति, लगाव। उठहु = उठो। मम = मेरा, मेरे। बच = वचन। बिकलाई = व्याकुल। जाँ = यदि। जनतेउँ = जानता। बंधु = भाई अर्थात् लक्ष्मण। बिछोहू =बिछोह, विरह। मनते = मानता। ओहू = आऊं। सुत = बेटा, पुत्र। बित= धन, संपत्ति। नारि = स्री , पत्नी। भवन = घर, महल। परिवारा = परिवार, कुल। जग = संसार। बारहिं = बार। अस = ऐसा , इस तरह। विचारि = सोचकर। जियँ = ह्रदय। ताता = भाई। सहोदर = एक ही माँ के पेट से जन्मा भाई।
प्रसंग – यह अवतरण गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से अवतरित है। इसमें कवि तुलसीदास जी ने श्रीराम चंद्र जी के हृदय की व्याकुल अवस्था का मार्मिक अंकन किया है।
व्याख्या – श्री रामचंद्र जी दुखी हृदय से अपने अनुज लक्ष्मण को संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे भाई लक्ष्मण । वह पहले वाला प्यार, लगाव अब कहाँ है अर्थात् जब तुम मुझे कभी दुखी नहीं देख सकते थे। मेरे कारण आपने माता-पिता को छोड़ दिया तथा वन में चले आए। अब मेरे पति आपका वह प्रेम कहाँ लुप्त हो गया है ? तुम पहले की तरह मुझसे प्रेम क्यों नहीं करते। श्रीराम जी अत्यंत विलाप करते हुए कहते हैं कि हे भाई! उठो, तुम मेरे वचनों की व्याकुलता को सुनों।
मेरे व्याकुल वचनों को सुनकर तुम उठ कर बैठ जाओ और पहले की तरह मुझसे प्यार करो। राम अत्यंत दुखी हृदय से पश्चाताप करते हुए कहते हैं कि यदि मैं यह जानता कि वन में भाई का वियोग होगा तो मैं पिता जी के वचनों को ही नहीं मानता और न यहाँ कभी वन में आता। यदि मुझे आभास होता कि वन में जाने के बाद मुझसे आपका वियोग होगा तो मैं कदापि पिता के वचन न मानता।
श्री रामचंद्र जी लक्ष्मण को संबोधन करते हुए दुखी मन से कह रहे हैं कि हे भाई इस नश्वर संसार में पुत्र, धन संपत्ति, पत्नी, महल और परिवार बार-बार मिल जाते हैं और बार-बार नष्ट होते हैं, लेकिन अपार यत्न करने पर भी संचार में एक माँ के पेट से जन्म लेने वाला भाई नहीं मिलता। इसीलिए हे तात । तुम हृदय में ऐसा विचार करके जागृत को जाओ। कवि का अभिप्राय यह है कि इस संसार में पुत्र पत्नी, धन-संपत्ति, भवन और परिवार तो बार-बार मिल जाते हैं लेकिन लक्ष्मण जैसा आदर्श भाई कभी दोबारा नहीं मल सकता।
जथा पंख विनु खग अति दीना। मनि विनु फनि करिबर कर हीना
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही जाँ जड़ दैव जिआवै मौही
जैहउँ अवध कवन मुहँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई
बरु अपजस सहते जग माहीं। नारि हानि विसेष छति नाहीं
जैहउँ अवध कवन मुहँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई
शब्दार्थ – जथा = जिस प्रकार, जैसे। बिनु = के बिना। खग = पक्षी। अति = बहुत अधिक। दीना = = दीन-हीन। मनि = मणि। फनि = साँप। करिबर = हाथी श्रेष्ठ। कर = सूंड। अस= ऐसा, इस प्रकार, ऐसे। मम = मेरा। जिवन = जीवन। बंधु = भाई। तोही = तुम्हारे। जैहउँ = जाऊँगा। अवध = अयोध्या। कवन =क्या। मुद्दे = मुँह। लाई = लेकर। हेतु के = लिए। गँवाई = मेवा दिया। वरु = चाहे, ओर। अपजस = अपयश, कलंक। सहतेऊँ सहन करना पड़ेगा। जग = संसार। माहीं = में। विसेष = विशेष। छति = हानि, क्षति ।
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कवि ‘तुलसीदास’ द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने लक्ष्मण की अचेत अवस्था के पश्चात् श्री राम चंद्र जी के मन की व्यथा का सजीव अंकन किया है।
व्याख्या – तुलसीदास जी का कहना है कि श्री राम चंद्र जी अपने अनुज को संबोधन करके कहते हैं कि हे भाई लक्ष्मण। जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी अत्यंत दोन है। नागमणि के बिना सांप तथा सूंड के बिना श्रेष्ठ हाथी बिल्कुल हीन एवं तुच्छ है उसी प्रकार है भाई। आपके बिना मेरा जीवन भी व्यर्थ है। फिर शायद भाग्य केवल मुझे निर्जीव की भांति जीवित रखना चाहता है। श्री राम जो मानते हैं कि हे भाई लक्ष्मण! जैसे पंख के बिना पक्षी उड़ नहीं सकते, नागमणि के बिना जैसे सांप का जीवन असंभव है तथा सूंड के बिना श्रेष्ठ हाथी का जीवन व्यर्थ है। जैसे पंख के बिना पक्षी मणि के बिना सांप तथा सूंड के बिना हाथी का जीवन व्यर्थ है वैसे ही तुम्हारे बिना मुझे राम का जीवन भी व्यर्थ है।
कवि का कथन है कि राम मानसिक रूप से अत्यंत दुखी हैं। वे मन-ही-मन में मंथन कर रहे हैं कि अब में लक्ष्मण के बिना अयोध्या में वापिस क्या मुंह लेकर जाऊँगा। जब माता-पिता और अयोध्यावासी उनके बारे में पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगा। वे सब तो यहाँ समझेंगे कि राम ने अपनी पत्नी के लिए अपने प्रिय भाई लक्ष्मण को न्योछावर कर दिया। इस प्रकार अयोध्यावासी अनेक आरोप लगाएँगे और संसार में यह कलंक सहना पड़ेगा कि श्री राम चंद्र जी ने अपनी पत्नी सीता के लिए प्रिय भाई को गंवा दिया। कवि कहते हैं कि राम अपने मन ही मन यह सोचते हैं कि इस संसार में नारी की हानि कोई महत्त्वपूर्ण क्षति नहीं है। मैंने सीता को गंवा दिया था। यह मेरे लिए कोई विशेष हानि नहीं थी लेकिन प्रिय भाई की क्षति मेरे लिए अपूर्णीय है।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा सहिहि निठुर कठोर उर मोरा
निज जननी के एक कुमारा तात तासु तुम्ह प्रान अधारा
साँपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी सब विधि सुखद परम हित जानी
उतरु काह दैह तेहि जाइ उठि किन मोहि सिखावहु भाई
शब्दार्थ – अपलोकु = इस संसार में। सुत = बेटा। तोरा = तुम्हारा। सहिहि = सहन कर लेगा। निठुर = निष्ठुर। कठोर = निर्दय, दयाहीन। उर = हृदय। मोरा = मेरा। निज = अपनी। जननी = माँ (सुमित्रा)। तात = भाई। तासु = उनके। तुम्ह = तुम्ही। अधारा = आधार। सौंपेसि = सौपाया। मोहि = मुझे। तुम्हहि = तुम्हारा। गहि = पकड़कर। पानी = हाथ। सब विधि = सब प्रकार से। सुखद = सुखी। हित = हितैषी। जानी = जानकर उतरु = उत्तर। काह = क्या। देहउँ = दूंगा। तेहि = उनको। जाइ-जाकर = किन-कुछ। मोहि = मुझे। सिखावहु = सिखाओ।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से लिया गया है। इस चौपाई में कवि ने श्री राम चंद्र की मनोव्यथा का सजीव चित्रण किया है।
व्याख्या – श्री राम चंद्र जी लक्ष्मण को संबोधन करते कह रहे हैं कि हे तात! आपकी इस क्षति को तो मेरा निष्ठुर और निर्दयी हृदय सहन कर लेगा अर्थात् तुम्हारी मृत्यु से मुझे जो दुःख वेदना हुई उसे तो मेरा कठोर हृदय किसी भी तरह सह लेगा, किंतु मैं अयोध्या में जाकर माँ सुमित्रा को कैसे कहूँगा कि अब तुम्हारा बेटा लखन इस संसार में नहीं रहा। कवि कहता है कि श्री राम इसी चिंता से ग्रस्त हैं कि लक्ष्मण की मृत्यु का समाचार वह उसकी माँ को किस प्रकार देगा ? श्री राम कहते हैं कि हे भाई अपनी माँ सुमित्रा के तुम इकलौते पुत्र थे और तुम्हीं उनके प्राणों के आधार थे राम इसी चिंता में हैं कि अब मां सुमित्रा लक्ष्मण के बिना कैसे जी सकेगी।
राम कहते हैं कि हे भाई ! अयोध्या से वन-प्रस्थान करते समय सुमित्रा माता जी ने मुझे सब प्रकार से सुखद और परम हितैषी जानकर तुम्हारा हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। अर्थात् माता सुमित्रा जी ने तुम्हारा हाथ मुझे इसलिए सुपुर्द किया था कि मैं प्रतिपल आपको सुख प्रदान करूंगा तथा प्रतिपल आपकी रक्षा करूंगा। राम अत्यंत उदास होकर कहते हैं कि हे भाई लक्ष्मण। अब मैं अयोध्या वापस जाकर माता सुमित्रा जी को क्या उत्तर दूंगा। तुम्हीं स्वयं उठकर मुझे कुछ सिखाओ। तुम्हीं बताओ कि तुम्हारी माता जी के प्रश्नों का क्या उत्तर दूंगा जब वे पूछेंगी कि मेरी लखन कहां है ? जिसको मैंने तुम्हारे हाथों सौंपा था।
Lakshaman Murcha Aur Ram Ka Vilap Vyakhya
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई
शब्दार्थ – बहु = अनेक। विधि = प्रकार, तरह। सोचत= सोचकर। सोच-विमोचन = शोक दूर करने वाला। स्रवत = बहना। सलिल = जल, पानी। राजिव = दल। लोचन = कमल के पत्ते रूपी दोनों नेत्र। उमा= शांति, क्रांति, पार्वती। अखंड = जो खंडित न हो। रघुराई = रघुवंश के पुत्र अर्थात् श्री राम। नरगति = मानवगति। कृपाल = कृपा करके। देखाई = दिखाई।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप प्रसंग से अवतरित है। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा से व्यथित राम की मानसिक वेदना का करुण चित्रण उपस्थित किया है।
व्याख्या – कवि का कथन है कि शोक में व्यथित श्री राम चंद्र जी ने मन ही मन में अनेक प्रकार से चिंतन किया और अपने शोक को दूर कर लिया। उनके कमल के पत्ते रूपी सुंदर नेत्रों से आँसू बहने लगे। श्रीराम अत्यंत दुःखी होकर फूट-फूट कर रोने लगे। कवि कहता है कि इस प्रकार विचार-विमर्श करके श्री राम के मन में एक अखंड शांति प्रस्फुटित हुई और उन्होंने अपने भक्तों पर कृपा करके मानव-गति को दिखाया अर्थात् वे एक सामान्य मनुष्य की भांति दुःखी होने लगे।
प्रभु प्रलाप सुनिकान विकल भए वानर निकर
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ वीर रस
शब्दार्थ – प्रलाप = विलाप, दुःख भरा रोदन। विकल = परेशान। वानर =बंदर। निकर = समूह, झुंड। जिमि = जैसे। महँ=में।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ रामचरितमानस के ‘लंकाकांड’ के ‘लक्ष्मणमूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से अवतरित हैं जिसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने के बाद राम का विलाप धीरे-धीरे प्रलाप में बदल गया था राम का ईश्वरीय रूप सामान्य मानव की पीड़ा में बदल गया था हनुमान को संजीवनी बूटी लाने में समय लग रहा था।
व्याख्या – लक्ष्मण की मूछ के कारण दुःखी राम का प्रलाप सुन कर वानर सेना के कान पीड़ा से भर गए थे। वानर-समूह परेशान हो गया था पर उसी समय हनुमान आ गए जैसे करुण रस में वीर रस प्रकट हो गया हो। भाव है कि पल भर पहले परेशान वानर सेना उत्साह से भर गई।
हरवि राम भेंटेड हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना
तुरंत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरपाई
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेड भ्राता। हरये सकल भालु कपि खाता
कपि पुनि वैद तहाँ पहुँचाया। जेहि बिधि तबहिं ताहि लड़ आवा
शब्दार्थ – हरषि = खुश होकर, हर्षित होकर। भेंटेड = भेंट की, मिले। अति = बहुत अधिक। कृतग्य = कृतज्ञता। तुरत = तुरंत, उसी समय, शीघ्र हो। बैद = वैद्य कीन्ति = किया। उपाईं =उपाय। लछिमन =लक्ष्मण। हरपाई = हर्षित होकर, खुश होकर हृदयं = हृदय। भेंटेड = मिले। हरषे = खुश हुए। सकल = समस्त कपि = वानर। भ्राता = भाई। कपि =हनुमान। ताहि = जहां से। लड़ आवा = लेकर आए थे।
प्रसंग – यह काव्यांश’ तुलसीदास’ द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप, प्रसंग से अवतरित है। इसमें कवि ने लक्ष्मण की सचेतावस्था का चित्रण किया है जिसे देखकर राम सहित समस्त राम सेना हर्षित हो उठी है।
व्याख्या – कवि का कथन है कि संजीवनी औषधि लेकर आए हनुमान से श्री राम जी की भेंट हुई। हनुमान से मिलकर परम सुजान श्री राम ने उनके प्रति अपार कृतज्ञता प्रकट की। शीघ्र ही वैद्य ने उपचार किया। वैद्य के उपचार से शीघ्र ही लक्ष्मण जी हँसते हुए उठ गए। लक्ष्मण जी को सचेत अवस्था में देखकर प्रभु राम अत्यंत खुश हुए।
उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लिया। राम को हँसता हुआ देखकर राम सेना के समस्त भालुजन, हनुमान और वानर भाई अत्यंत खुश हो गए अर्थात् लक्ष्मण को जीवित और राम को हँसता देखकर राम की सेना में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। तत्पश्चात् हनुमान जी ने फिर वैद्य को वहाँ पहुँचा दिया जहाँ और जिस विधि से उसको लेकर आए थे। हनुमान जी ने वैद्य को सकुशल उनके निवास स्थान पर पहुँचा दिया।
यह वृतांत दसानन सुनेऊ। अति विषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ
व्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। विविध जतन करि ताहि जगावा
जागा निसिचर देखिअ कैसा मानहुँ कालु देह धरि बैसा
कुंभकरन बुझा कर भाई काहे तब मुख रहे सुखाई
शब्दार्थ – वृतांत = वृतांत, वार्ता । दसानन = दश मुख हैं जिसके अर्थात् रावण। सुनेऊ = सुना। अति = बहुत। विषाद = दुःख। पुनि-पुनि = फिर-फिर , बार-बार। सिर धुनेऊ = सिर धुनने लगा। पहिं = पास। विविध = अनेक जतन = प्रयास। निसिचर = राक्षस अर्थात् कुंभकरण। मानहुँ =मानो। कालु =काल यमराज। देह धरि = शरीर धारण करना। तव = तुम्हारा।
प्रसंग – प्रस्तुत अवतरण गोस्वामी ‘तुलसीदास’ द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से लिया गया है। इसमें कवि ने लक्ष्मण के जीवित होने पर रावण की व्याकुलता का चित्रण किया है।
व्याख्या – कवि तुलसी जी कहते हैं कि संजीवनी के उपचार से जब लक्ष्मण सचेत हो गए तो राम सेना अत्यंत सुरु हो गई। यह बात चारों ओर फैल गई। यह बात लंकापति रावण ने सुनी। इस बात को सुनकर अर्थात् लक्ष्मण जीवित होगा। इस बातों से रावण अत्यंत दुखी हुए और बार-बार अपना सिर धुनने लगे। ये बहुत अधिक व्याकुल होकर कुंभकरण के पास सहायता मांगने के लिए आए। रावण ने अनेक प्रयास करके कुंभकरण को नींद से जगाया। कुंभकरण अनेक प्रयास करने पर ही नींद से जागृत हुए।
कवि कहता है कि रावण के अनेक प्रयास करने पर कुंभकरण नींद से जागृत हो गया। वह नींद से जागता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसने यमराज के शरीर को धारण कर लिया हो। रावण को देखकर कुंभकरण ने पूछा कि हे भाई कहो। कैसे आए हो और तुम्हारे मुख पर व्याकुलता कैसी है ? अर्थात् तुम इतने दुखी क्यों दिखाई दे रहे हो।
कथा कही सब तेहिं अभिमानी जेहि प्रकार सीता हरि आनी
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे महा महा जोधा संघारे
दुर्मुखा सुररिपु मनुज अहारी भट अतिकाय अकंपन भारी
अपर महोदर आदिक बीरा परे समर महि सब रनधीरा
शब्दार्थ – कथा =कहानी, वार्ता। तेहिं =उस। जेहि = जिस। हरि = हरण किया। आनी = लाए। तात = भाई। कपिन्ह = हनुमान आदि वानर। जोधा = योद्धा। संघारे = संहार किया। दुर्मुख = कड़वी जुबान बोलने वाला। सुररिषु = देवताओं का शत्रु। मनुज अहारी = मनुष्य को नष्ट करने वाला। भट = योद्धा। अतिकाय = विशाल शरीर। महोदर = महान् पेट वाला। आदिक =आदि। बीरा = वीर। समर =युद्ध। महि =भूमि। रनधीरा = रणधीर।
प्रसंग – ये पंक्तियाँ राम काव्यधारा के प्रमुख कवि ‘तुलसी’ द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छाऔर राम का विलाप’ नामक प्रसंग से अवतरित किया गया है। इसमें कवि ने बताया है कि रावण अपने भाई को जगाने पर उसे सारी बात बताता है।
व्याख्या – कवि का कथन है कि जिस प्रकार वह सीता का हरण करके ले आया था उस अभिमानी रावण ने यह समस्त कथा अपने भाई को कही। रावण अपने भाई को संबोधन करके कहता है कि हे तात । उस हनुमान ने हमारे सभी राक्षसों को मार गिराया है तथा हमारे बड़े-बड़े योद्धाओं का रामसेना ने संहार कर दिया है। “कवि का कथन है कि वह कड़वी बाणी बोलने वाला, देवताओं का शत्रु तथा मनुष्यता का हरण करने वाला रावण अनेक बड़े-बड़े योद्धाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में कंपन करने लगा। दूसरे कुंभकरण आदि वीर युद्ध भूमि में कूद पड़े। अर्थात् युद्ध भूमि में राम और रावण सेना में भयाक संग्राम होने लगा।
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान
शब्दार्थ – दसकंधर = दश मुख वाला, रावण। बिलखान = बिलखने लगा। जगदंबा = जगत् जननी माँ। हरि = प्रभु- ब्रह्मा। आनि =अन्य। सठ =दुष्ट, नीच। कल्यान = कल्याण।
प्रसंग – यह दोहा तुलसी द्वारा रचित रामचरितमानस के लंका कांड के ‘लक्ष्मण मूर्छा तथा राम का विलाप’ प्रसंग से लिया गया है। इसमें कवि ने रावण के वचनों से व्याकुल कुंभकरण की व्याकुलता का वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि का कथन है कि कुंभकरण रावण के वचनों को सुनकर अत्यंत व्याकुल हो उठे। इन दोनों राक्षसों को देखकर श्री राम मन ही मन सोचते हैं कि अब जगत जननी, ब्रह्मा आदि इन दुष्टों का कल्याण करवाना चाहते हैं। अब इन राक्षसों की मृत्यु नजदीक है जो इस प्रकार चिल्ला रहे हैं।