मानसरोदक खंड व्याख्या (पद्मावत भाग) : मलिक मोहम्मद जायसी

आज के इस आर्टिकल में हम मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत के चतुर्थ खंड मानसरोदक की व्याख्या को पढ़ने जा रहे है। परीक्षा की दृष्टि से मानसरोदक की व्याख्या काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए आपको इस खंड को अच्छे से पढ़ और समझ लेना चाहिए।

मानसरोदक खंड व्याख्या

एक दिवस पून्यो तिथि आई। मानसरोदक चली नहाई ॥
पदमावति सब सखी बुलाई। जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥
कोइ चंपा कोई कुंद सहेली। कोई सुकेत, करना, रस बेली ॥
कोई सु गुलाल सुदरसन राती। कोई सो बकावरि- बकुचन भाँति ॥
कोई सु मालसिरि, पुहपावती। कोई सो जाही जूही सेवती।।
कोइ सोनजरद, कोइ केसर। कोई सिंगारहार नागेसर ॥
कोई कूजा सदवर्ग चमेली। कोई कदम सुरस रस बेली ॥
दोहा -चली सबै मालति सँग, फूलीं कवल कुमोद।
बेधि रहे गन गँधरब, बासपरमदामोद ॥ 1 ॥

शब्दार्थ कुन्द = हल्के रंग का श्वेत पुष्प। कत = केतकी। करना = कर्णिकार। राती = लाल। बकावरि = गुलाब। बकुचन = गुच्छा। मौलसिरि= मौलश्री। जाही = चमेली की जाति का एक फूल। सेवती = श्वेत गुलाब। कूजा = गुलाब की जाति का एक पुष्प। मालति = पुष्प विशेष। वास = सुगन्ध।

व्याख्या पूर्णिमा के पर्व में पद्मावती मान सरोवर में स्नान करने के लिए गयी। उसने अपनी सभी सखियों को बुलाया। वे सब आयीं तो रंग-विरंगे वस्त्रों में सजी होने से ऐसी लगती थीं, मानों उनके रूप में पुष्पवाटिका ही विकसित हो गयी हो। उनमें कोई चम्पा कोई कुन्द, कोई सुन्दर केतकी, कोई गुलाब कोई सुदर्शन के समान मनोरम कोई गुलाब बकवाली गुच्छे के समान विहँसती हुई थी। अन्य सखियों में मौल, श्री कोई पुष्पावती, कोई जाही कोई जूही, कोई नागकेसर, कोई कूजा, कोई हजारा, कोई चमेली, कोई कदम्ब के पुष्पों की भाँति रस सिक्त थीं। कमल और कुमुदिनी के समान विकसित समस्त सखियाँ मालती के साथ-साथ चलीं। उनकी आनन्ददायक सुगन्ध से गन्धर्व गण भी मुग्ध होकर रह गये।

विशेष (1) नारियों के शरीर से पुष्पों की सुगन्ध निकल रही है।
(2) सखियों के सन्दर्भ में सुगन्ध का प्रयोग बड़ा ही सार्थक हुआ है।
(3) उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

खेलत मानसरोवर गईं । जाइ पाल पर ठाढी भईं ॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली । पदमावति सौं कहहिं सहेली
ए रानी ! मन देखु बिचारी । एहि नैहर रहना दिन चारी ॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू । खेलि लेहु जो खेलहु आजु ॥
पुनि सासुर हम गवनब काली । कित हम, कित यह सरवर-पाली ॥
कित आवन पुनि अपने हाथा । कित मिलि कै खेलब एक साथा ॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं । दारुन ससुर न निसरै देहीं ॥
पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह ।

दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह ॥2॥

शब्दार्थ – पालि = सरोवर का ऊपरी भाग रहसहि = विनोद करती हैं. केलि = क्रीड़ा. नेहर् = पिता का घर. राजू = राज गवनब = गौना. काली = कुल. जिउ = जिया/कलेजा/मन. काह = क्या. दुहुं = कौन जाने. दारुन = कठोर. दहुँ = देवे. कस = कैसे. जरम = जीवन. निबाहु = गुजारा/ निबाह

व्याख्यासभी कुमारियाँ मानसरोवर पहुँचीं. वे ताल के ऊपरी भाग पर खड़ी हो गयीं। उस सरोवर को देख देखकर वे मनोविनोद और क्रीड़ा करती हैं। पद्मावती से सभी सहेलियाँ कहती हैं- हे रानी, जरा मन में सोचो तो, इस सुखद पीहर में चार दिन ही रहकर सुख लेना है। पिता के राज में जबतक हैं, तबतक जो स्वच्छंद क्रीड़ायें करनी हैं कर ली जाएँ। कल जब ससुर के घर के लिए हमारा गौना हो जायेगा तब कहाँ हम और कहाँ ये सुंदर सरोवर! एकदम हम सब स्वप्न सी अलग अलग हो जायेंगी। तब यहाँ आना हमारे लिए कहाँ संभव होगा कब वश में होगा? फिर हम साथ-साथ कहाँ खेल पाएंगी? वहाँ हरदम सास-ननद हमारे मन को मसोसेंगी और कठोर ससुर हमें यहाँ आने नहीं देगा।

इन सबके ऊपर प्रियतम का भय बना रहेगा कि व न जाने क्या कर बैठे. क्या पता कि वह हमें सुख से रखेगा या दुःख देगा? क्या पता है, वहाँ जीवन किस प्रकार व्यतीत होगा!

मिलहिं रहसि सब चढ़हिं हिंडोरी। झूलि लेहिं सुख बारी भोरी ॥
झूलि लेहु नैहर जब ताई। फिर नहिं झूलन देइहि साई ॥
पुनि सासुर लेइ राखिहि तहाँ। नैहर चाह न पाउब जहाँ ॥
कित यह धूप, कहाँ यह छाहाँ रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ।।
गुन पूछिहि और लाइहि दोखू। कौन उतर पाउब तहँ मोखू ॥
सासु ननद के भौंह सिकोरे रहब सँकोचि दुबौ कर जोरे ॥
कित यह रहनि जो आउब करना। ससुरेइ अंत जनम दुख भरना ॥
कित नैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल ॥
आपु आपु कहँ होइहि, परब पंखि जस डेल ॥ 3 ॥

शब्दार्थ – हिंडोरी = झूलों पर, ताई = तक, साईं = मालिक (पति), मोखूँ = मोक्ष, रहसि = रहस (क्रीडा), डेला = डला, डेला।

व्याख्या जायसी कहते हैं कि पद्मावती के साथ सभी सखियाँ हिंडोले पर चढ़ गईं और सभी भोली-भाली बालाएँ झूलने का सुख लेने लगीं अर्थात् जीवन का आनन्द लेने लगीं। सखियाँ आपस में कहती हैं कि जब तक यह नैहर है तब तक आनन्द से झूल लो आनन्द मना लो अर्थात् इस लौकिक जगत् में भौतिक और आध्यात्मिक सुख प्राप्त कर लो फिर तो वह परमात्मा रूपी पति ऐसा आनन्द नहीं लेने देगा अर्थात् नहीं झूलने देगा। ससुराल में तो फिर ऐसे रखा जाएगा जहाँ मातृ-पितृ गृह की खबर भी नहीं मिलेगी अर्थात् जीवन के समाप्ति के बाद इस लोक का कोई हाल नहीं मिलेगा, कहाँ इस लोक की धूप-छाँव का आनन्द मिलेगा वहाँ तो हम अकेली होंगी उस परमात्मा के घर में हमारी कोई सखी-सहेली’ भी नहीं होगी। वहाँ सर्वदा गुण पूछने अर्थात् अच्छी बात कहने पर भी दोष लगाया जाएगा तब हम कौन- सा उत्तर देकर आरोप मुक्त हो पावेंगी। वहाँ सासु और ननदें बात-बात में अपनी भौंहें सिकोड़ेंगी अर्थात् नाराज होंगी और हमें संकुचित होकर दोनों हाथ जोड़े खड़ी रहना पड़ेगा। कहाँ ऐसा रहस या क्रीड़ा होगी जो पुनः आकर करेंगी? अर्थात् फिर पुनर्जन्म सम्भव नहीं फिर तो उसी प्रभु की शरण रूपी ससुराल में अन्त होगा और सम्पूर्ण जीवन वहीं व्यतीत होगा।

इस मायके में फिर कहाँ आ पावेंगी तथा ससुराल में ऐसा खेल कहाँ सम्भव होगा, हममें से प्रत्येक को विवाह ऐसा होगा कि हम प्रत्येक अलग-अलग हो जाएँगी तथा वहाँ उसी प्रकार बन्धनयुक्त हो जाएँगी जैसे पक्षी के समूह में एक ढेला मार देने से सब उड़ जाते हैं। वैसे ही हम भी यहाँ नहीं रहेंगी।

विशेष रस – श्रृंगार, छन्द – दोहा चौपाई, भाषा – अवधी, शब्दशक्ति- लक्षणा।

सरवर तीर पदमिनी आई। खोंपा छोरि केस मुकलाई ॥
ससि-मुख, अंग मलयगिर बासा। नागन्ह झाँपि लीन्ह चहुँ पासा ॥
ओनई घटा परी जग छाहाँ। ससि कै सरन लीन्ह जनु राहाँ ॥
छपि गै दिनहिं भानु के दसा। लै निसि नखत चाँद परगसा ॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा। मेघ घटा कहँ चंद देखावा।।
दसन दामिनी, कोकिल भाखी। भौहें धनुख गगन लेइ राखी ॥
नैन- खँजन दुइ केलि करेहीं। कुच नारंग मधुकर रस लेहीं।।
सरवर रूप बिमोहा, हिये हिलोरहि लेइ ॥
पावँ छुवै मकु पाव, एहि मिस लहरहिं देइ ॥ 4 ॥

शब्दार्थ खोंपा = सूड़ा, मुकुलाई = फैलाए, झाँपि = ढक, ओनई = झुकी, राहाँ = राहु दशा = स्थति, चकोर = पक्षी, कुच स्तन का अग्रभाग, मकु = कदाचित् मिस = बहाना, कारण।

व्याख्या अपनी सखियों सहित पद्मावती सरोवर के तट पर आई और अपने जूड़े को खोलकर बालों को फैलाया। उसका मुख चन्द्रमा के समान तथा शरीर से मलयपर्वत से आने वाली सुगन्ध निकल रही थी। पद्मावती के धवल व सुवासित शरीर पर बिखरे हुए बाल ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे मानो सुगन्ध-लोभी नागों ने सुगन्ध पान के लिए मलयपर्वत को चारों ओर से ढक लिया हो। पद्मावती के घने काले बाल उमड़े हुए घन-समूह प्रतीत होते हैं ऐसा लगता है कि उसके प्रभाव से समस्त जगत् छाया से प्लावित हो गया है और राहु ने चन्द्रमा (पद्मावती का मुख) से अपना स्वाभाविक बैर छोड़कर राहु (काले बाल) ने चन्द्रमा (मुख) की ही शरण ली हो। पद्मावती के घने काले बादल के प्रभाव से दिन में ही सूर्य की स्थति भी तिरोहित हो गयी और ऐसा लगा कि काले बालों की कालिमा की रजनी में पद्मावती रूपी चन्द्रमा ने अपने नक्षत्र – तारामण्डल (सखियों) के साथ विकसित हुआ हो। चन्द्र- प्रेमी चकोर ने पद्मावती के मुख को चन्द्रमा समझ लिया और भूलकर अपनी अपलक दृष्टि पद्मावती पर लगा दिया। केशों से घिरे मुँख को चकोर ने बादल आच्छादित चन्द्रमा समझ बैठा। पद्मावती के रूप में मानो सचन्द्र-नक्षत्र साक्षात वर्षा का समागम हो गया, उसके दाँत बिजली के समान कान्तिमान, उसकी वाणी कोकिला के समान मीठी तथा उसके नेत्र क्रीड़ा करते दो खंजन पक्षी और उसके स्तन नारंगी और स्तन का अग्रभाग कुच नारंगी में लिपटे रसपान करते भौरें लगते हैं। पद्मावती की इस छटा को देखकर मानसरोवर विमुग्ध हो गया और हिलोरें मारने लगा और लहरें लेकर पद्मावती के पैर छूने को आतुर हो उठा।

विशेष – रस – संयोग श्रृंगार, छन्द – दोहा, चौपाई, अंलकार – रूपकातिशयोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान।

धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी ॥
पाइ नीर जानौं सब बेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली ॥
करिल केस बिसहर बिस-हरे । लहरैं लेहिं कवँल मुख धरे ॥
नवल बसंत सँवारी करी । होइ प्रगट जानहु रस-भरी ॥
उठी कोंप जस दारिवँ दाखा । भई उनंत पेम कै साखा ॥
सरवर नहिं समाइ संसारा । चाँद नहाइ पैट लेइ तारा ॥
धनि सो नीर ससि तरई ऊईं । अब कित दीठ कमल औ कूईं ॥
चकई बिछुरि पुकारै , कहाँ मिलौं, हो नाहँ ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह ॥5॥

शब्दार्थ – तीर = किनारा, कंचुकि वस्त्र, हुलसते हुए, आवेगपूर्ण तरीके से, करिल कौंप = कोंपल. उनंत = झुककर, धनि तारिकाएँ / तारे, कुईं = कुमुदिनी, नहाँ मंह में, बेली = बेल, हुलसहिं = काले, बिसहर विषैले, जानहु जैसे, धन्य है / सौभाग्यशाली, तरई = प्रिय (चकोर के लिए)

व्याख्यासभी सखियों ने अपने वस्त्रों को किनारे पर रख दिया और सरोवर में स्नान करने के लिए उतर गयीं। पानी में सामूहिक रूप से स्नान करती हुई सब सखियाँ कामदेव की प्रतिनिधियों की तरह क्रीड़ा करती हुई नजर आने लगीं, वे उन नई नई कलियों की भांति हो गयीं जिनमें वसंत ने रस भरकर उन्हें सँवार दिया हो, उनके काले काले केश काले विषभरे साँपों की तरह लग रहे थे जो लहराते हुए कमल का मुख चूमने को आतुर हैं, वे प्रेम में इस प्रकार झूम रही हैं जैसे दाड़िम और दाख में कोंपलें उग रही हों और वे प्रेम की शाखा पर झुकी हुई हों। उनके सौन्दर्य का संसार ऐसा विशाल है कि सरोवर में नहीं समाएगा, इस सरोवर में चाँद अपने कई सितारों के साथ बैठा है यानि रानी पद्मावती अपनी सखियों के साथ नहाने के लिए सरोवर में बैठी हुई है। जायसी कहते हैं कि धन्य है यह सरोवर का जल जहाँ इस तरह दिन में ही चाँद तारे उदित हो गये हों. अब यहाँ कमल और कुमुदिनी कैसे दिखाई दे सकती है भला?

सरोवर में रानी और उसकी सखियों की आभा देखकर चकई को वियोग का अनुभव हुआ और वह चकवे को पुकारती हुई कहने लगी कि प्रिये, अब हमारा मिलन कैसे होगा? एक चाँद तो रात को आसमान पर निकलता है और दूसरा अब दिन में ही जल पर उदित होने लगा है (भ्रांतिमान अलंकार: चूंकि यहाँ चकवा पक्षी को भ्रान्ति हो रही है)।

लागी केलि करै मझ नीरा। हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा ॥
पद्मावति कौतुक कहै राखी। तुम ससि होडु तराइन्ह साखी ॥
बाद मेलि कै खेल पसारा। हार देइ जो खेलत हारा।।
साँवरिहि साँवरि, गोरिहि गोरी। आपनि आपनि लीन्ह जो जोरी ॥
बूझि खेल खेलहु एक साथा। हार न होई पराए हाथा ॥
आजुहि खेल, बहुरि कित होई। खेल गए कित खेलै कोई ॥
धनि सो खेल खेल सह पेमा रउताई और कूसल खेमा ॥
मुहम्मद बाजी पेम कै, ज्यों भावैं त्यों खेल।
तिल फूलहिं कै संग ज्यों, होइ फूलायत तेल ॥ 6 ॥

शब्दार्थ मझ = मध्य में, कौतुक = देखने के लिए, साखी = साथी, बदि = बादी (शर्त), मेलि = लगाकर, रउताई = स्वामी होने का भाव, फूलायत = फूल की सुगन्ध वाला।

व्याख्या – सभी सखियाँ मानसरोवर के जल के मध्य क्रीड़ा करने लगी इस क्रिया को देख मानसरोवर के हंस लज्जित होकर किनारे जाकर बैठ गए। सखियों ने पद्मावती को प्रेक्षक के रूप में खेल- खेलने के लिए अलग रखा और कहा कि चन्द्रमा के समान तुम हम तारामण्डल के खेल की साक्षी बनो। सभी सखियों ने यह बाजी लगाकर खेल प्रारम्भ किया कि जो खेल में हार जाएगा उसे अपना हार देना पड़ेगा। साँवली ने साँवली को और गोरी ने गोरी को अपनी जोड़ी बनाकर साथ रख लिया। और परस्पर कहा कि बहुत समझ-बूझ कर खेल खेलना जिससे विपक्षी पक्ष से पराजय का मुँह न देखना पड़े। जायसी यहाँ जीवन के खेल को संयमित रूप से खेलने का संकेत भी देते हैं। सखियाँ कहती हैं, जो खेल आज अर्थात् जीवन के रहते खेल लेंगी वह दुबारा कहाँ सम्भव है यदि खेल समाप्त होने पर फिर कौन खेल पाता है। वह खेल धन्य है जो प्रेम के साथ खेला जाए उसी खेल में ठकुराई और अपनी कुशल क्षेम समाहित है।

जायसी कहते हैं जीवन एक खेल ही है जीवन की वास्तविकता और अवास्तविकता को समझकर कार्य करना चाहिए तथा प्रेम से खेली गई बाजी को जैसे इच्छा हो खेला जा सकता है जिस प्रकार तिल और फूल के संयोग से उत्तम फुलैल तेल बनता है उसी प्रकार आत्मा जगत् जीवन के संसर्ग से ही परमात्मा तक पहुँच कर मुक्ति प्राप्त कर सकती है।

विशेष – रस – शान्त, छन्द – दोहा, चौपाई, अलंकार – तद्गुण उत्प्रेक्षा, रूपक, काव्यगुण प्रसाद, शब्दशक्ति – लक्षण ।

सखी एक तेइ खेल ना जाना । भै अचेत मनि-हार गवाँना ॥
कवँल डार गहि भै बेकरारा । कासौं पुकारौं आपन हारा ॥
कित खेलै अइउँ एहि साथा । हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा ॥
घर पैठत पूँछब यह हारू । कौन उतर पाउब पैसारू ॥
नैन सीप आँसू तस भरे । जानौ मोति गिरहिं सब ढरे ॥
सखिन कहा बौरी कोकिला । कौन पानि जेहि पौन न मिला? ॥
हार गँवाइ सो ऐसै रोवा । हेरि हेराइ लेइ जौं खौवा ॥
लागीं सब मिलि हेरै बूडि बूडि एक साथ ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ ॥7॥

शब्दार्थ – कँवल = कमल, गहि = पकड़कर (गहना = पकड़ना/ जैसे कबीर ने कहा है – ‘मसि कागद छ्यो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ’), सैं = स्वयं, पैठत = प्रवेश पाकर (पैठना = पहुँचना, दाखिल होना/ पैठ होना = पहुँच होना), पैसारू = प्रवेश, पौनु = पवन, हेराई = खोया, बूड़ि = डूबकर, डुबकी लगाकर

व्याख्या – उन सखियों में एक ऐसी थी जो खेल नहीं जानती थी। वह अपना हार खोकर होश खो बैठी और बेसुध हो गयी, कमल की डंडी हाथ में पकड़कर व्याकुल होकर कहने लगी किससे अपना दुखड़ा कहूँ। क्यों मैं इनके साथ खेलने आई, जो अपने ही हाथों अपना हर खो बैठी। घर पहुँचते ही मुझसे इस हार के बारे में पूछा जायेगा, क्या उत्तर देकर मैं घर में प्रवेश कर पाउंगी। सीप जैसी उसकी आँखें आंसुओं से भरी हुई थीं और मोतियों रूपी आंसू ढुलक ढुलक कर गिर रहे थे। इसपर सखियों ने उससे कहा, अरे भोली कोकिला (कोयल), ऐसा कौन सा पानी है जिसमें हवा नहीं मिली (कहने का अर्थ यह कि ऐसा कौन सा सुखी जीवन है जिसमें दुःख नहीं है). खोया क-हार तुम भी ढूंढो, हम भी ढूंढते हैं।

इसके बाद सभी सखियाँ मिलकर पानी में डुबकी लगा लगाकर खोया हार ढूँढने लगीं. लेकिन किसी के हाथ हार नहीं लागा. कोई मोती लेकर बाहर निकला तो कोई केवल घोंघा ही निकाल पाया ।

कहा मानसर चाह सो पाई । पारस-रूप इहाँ लगि आई ॥
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे । पावा रूप रूप के दरसे ॥
मलय-समीर बास तन आई । भा सीतल, गै तपनि बुझाई ॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा । पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ॥
ततखन हार बेगि उतिराना । पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा । भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा ॥
पावा रूप रूप जस चहा । ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा ॥
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥8॥

शब्दार्थ – पारस = पारस पत्थर, परसे स्पर्श से, ततखन तत्क्षण (उसी पल), बिगसा = मुकुराया, दसन = दांत

व्याख्या – मानसरोवर ने सोचा कि जो उसने चाहा था, वो मिल गया. पारस रुपी पद्मावती स्वयं यहाँ तक आ गयी। उसके पाँवों का स्पर्श करके मैं निर्मल हो गया हूँ। उसके रूप का दर्शन कर मुझे भी रूप की प्राप्ति हो गयी है, अर्थात् पद्मावती के सौन्दर्य ने मानसरोवर को भी सुंदरता प्रदान कर दी है। उसके तन से मलयगिरि से चलने वाली हवा जैसी चंदन की सुगंध आ रही है। उसकी शीतलता ने शरीर की तपन बुझा दी है, अर्थात् पद्मावती के स्पर्श से मानसरोवर शीतल हो गया। न जाने कौन सी हवा चली जो पद्मावती को यहाँ ले आई. निश्चय ही, यह मेरे पुण्यों का फल है। यह सोचकर मानसरोवर ने खोए हुए हार को उसी क्षण सतह पर तैरा दिया, जिसे पाकर सखियाँ प्रसन्न हो उठीं और पद्मावती रुपी चंद्र मुस्करा उठा। चन्द्रमा अर्थात् पद्मावती की मुस्कान देखकर कुमुदिनियाँ अर्थात् सखियाँ भी मुस्कुराने लगीं पद्मावती ने जिस किसी की ओर भी नज़र दौड़ाई वह पद्मावती जैसा ही हो गया, जो जैसा रूप चाहते थे वैसा ही रूप उन्होंने पाया, मानो चंद्रमा का मुख यानि पद्मावती का मुख दर्पण हो गया हो।

मानसरोवर के जल में खिले कमल पद्मावती के नैनों के प्रतिबिंब हैं। सरोवर का स्वच्छ जल पद्मावती की निर्मल काया का प्रतिबिंब है, उसकी हँसी ही सरोवर में हंसों के रूप में दिख रही थी और उसकी दंत पंक्तियाँ सरोवर में हीरे मोती के रूप में जगमगा रही थीं।

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