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मंदाकिनी का चरित्र चित्रण
मन्दाकिनी नाटक में एक काल्पनिक पात्र है। नाटककार ने उसे रामगुप्त व चंद्रगुप्त की बहन के रूप में चित्रित किया है। नाटक में यह स्वच्छंद गुप्तवाला जहाँ-जहाँ भी उपस्थित होती है, अपने विरोधी स्वर से रामगुप्त को हतप्रभ तथा ध्रुवस्वामिनी व चंद्रगुप्त को उत्साहित एवं प्रेरित कर जाती है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर मंदाकिनी का चरित्र की विशेषताएं:-
1. अभिनय में पारंगत युवती
मन्दाकिनी अभिनय करने में पारंगत है। नाटक के प्रारंभ में वह खड्गधारिणी के रूप में रामगुप्त के आदेश से ध्रुवस्वामिनी के चंद्रगुप्त के प्रति गुप्त मनोभावों को जानने के लिए गूँगी का इतना जीवंत अभिनय करती है कि ध्रुवस्वामिनी उसे गूँगी समझ लेती है और कहती है-
“तो क्या तुम मूक हो, तुम कुछ बोल न सको, मेरी बातों का उत्तर भी न दो, इसलिए तुम मेरी सेवा में नियुक्त की गई हो? यह असत्य है। इस राजकुल में संपूर्ण मनुष्यता का एक भी निदर्शन न मिलेगा क्या? जिधर देखो, कुबडे, बौने, हिजड़े, गूंगे और बहरे… ।”
साथ ही वह अपने कुशल अभिनय से यह पता लगाने में सफल हो जाती है कि ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त की अपेक्षा चंद्रगुप्त से प्रेम करती है।
2. देशभक्त
मन्दाकिनी देशभक्त युवती है। वह रामगुप्त के कहने पर ध्रुवस्वामिनी के चंद्रगुप्त के प्रति मनोभावों को जानने का काम कर पाठक व दर्शकों की कुछ रूखाई का शिकार होती है, परंतु वास्तव में वह एक देशभक्त युवती है। जब उसे शिखरस्वामी और रामगुप्त की बातों को सुनकर लगता है कि उन्होंने अपने देश और परिवार का गौरव दाँव पर लगाने का फैसला कर लिया है तो उसका खून खौल उठता है।
वह सोचने लगती हैं-
“भयानक समस्या है। मूर्खों ने स्वार्थ के लिए साम्राज्य के गौरव का सर्वनाश करने का निश्चय कर लिया है। सच है वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छल छंद की धूल उड़ती है।”
वह शिखरस्वामी और रामगुप्त की बातें चंद्रगुप्त को बताने का निश्चय करती है।
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3. निर्भीक
मन्दाकिनी एक निर्भीक बाला है। वह बोलते वक्त किसी का भय नहीं खाती। उसके विचार स्वच्छंद हैं तथा वह साहस से ओत-प्रोत है। यही कारण है कि परिषद् के सामने अपने विचारों को रखते हुए जब रामगुप्त उसे डराने की कोशिश करता है तो वह कहती है-
“राजा का भय मन्दा का गला नहीं घोंट सकता। तुम लोगों में यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इस अपनी कुल मर्यादा-नारी को, शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान् ने स्त्रियों को उत्पन्न करते ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है, किंतु तुम लोगों की वृत्ति ने उन्हें लूटा है। इस परिषद् से मेरी प्रार्थना है कि आर्य समुद्रगुप्त का विधान तोड़कर जिन लोगों ने राज-किल्विष किया हो, उन्हें दंड मिलना चाहिए।”
4. प्रेरणादायी
मन्दाकिनी देशभक्त और निर्भीक होने के साथ-साथ प्रेरणामयी नारी भी है। वह ध्रुवस्वामिनी और चंद्रगुप्त दोनों को ही अपने अपने कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करती है। प्रथम अंक के प्रारंभ में ही वह ध्रुवस्वामिनी को अपने प्राणों की क्षमता बढ़ाने के लिए प्रेरित करती हुई कहती है-
“देवि, वह वल्लरी जो झरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गई है, उसकी नन्हीं नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जाएँगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो विछलन बनकर गिरा करती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्ब बन गई है।”
इसी प्रकार वह चंद्रगुप्त को उसके कर्तव्य की याद दिलाते हुए कहती है-
“वास्तविक प्रेरणा और कर्तव्य की पुकार एकत्र करके सोचिए तो कुमार, कि अब आपको क्या करना चाहिए?”
यही नहीं वह प्रयाण गीत गाकर सामंतकुमारों को भी शकराज से युद्ध करने हेतु प्रेरित करती है-
“पैरो के नीचे जलघर हों, बिजली से उनका खेल चले। संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चले। सन्नाटे में हो विकल पवन, पादप निज, पद हों धूम रहे। तब भी गिरि पथ का अथक पविक, ऊपर ऊंचे सब झेल चले।”
5. कोमल व करूणामयी
देशभक्त, निर्भीक होने के साथ-साथ मंदाकिनी में नारी सुलभ कोमलता व करूणा के भी दिग्दर्शन होते हैं। उसके हृदय में दूसरों के प्रति करुणा की अजस्र धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। कोमा के त्याग और उसके शकराज के प्रति सच्चे प्रेम को देखकर उसका कोमल हृदय करूणा से विह्वल हो उठता है और
वह ध्रुवस्वामिनी से कहती है-
“स्त्रियों के बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलंब खोजने वाले 1 हाथों से वह पुरुष के चरणों को पकड़ती है और वे सदैव इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करते हैं-तब भी ये बावली क्या मानती है?”
इस प्रकार मन्दाकिनी का चरित्र नाटक में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वह ध्रुवस्वामिनी तथा चंद्रगुप्त को उनके वास्तविक कर्तव्यों के लिए प्रेरित कर नाटक को उसके उत्कर्ष पर पहुँचाने का काम करती है।