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मीराबाई की काव्य कला
मीराबाई कृष्ण भक्त कवयित्री है जिनका भाव पक्ष अत्यंत सरल है। उसमें प्रेम और भक्त हृदय मुखरित हो पाया है। कला पक्ष को उसमें ढूंढ़ना और उसे महत्त्व देना इतना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। मीरा के काव्य का सौंदर्य मीरा के प्रेमी हृदय का सौंदर्य है। उन्होंने अपने प्रेमी हृदय की अभिव्यक्ति को किसी एक भाषा की शब्दावली में नहीं बांधा। उन्होंने मुख्यतः ब्रजभाषा राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं का प्रयोग किया, पर इनमें सबसे अधिक राजस्थानी भाषा का प्रयोग हुआ है। इसका कारण यह है कि मीरा का अधिकाँश समय राजस्थान में ही व्यतीत हुआ।
मीरा के काव्य में प्रक्षिप्त अंश काफ़ी जुड़ गए हैं इसलिए इनकी भाषा का प्रश्न विषादास्पद है। मीरा की काव्य कला के अध्ययन को विभिन्न आधारों पर स्थापित किया जा सकता है-
1. प्रवाहात्मकता
प्रवाह भाषा का मुख्य गुण है। प्रवाह के अभाव में प्रभावात्मकता की कमी हो जाती है। मीरा को संगीत का ज्ञान था, इसमें प्रवाहात्मकता विद्यमान है। जैसे-
रमैया बिन नींद न आवै।
नींद न आवै विरह सतावे, प्रेम की आंच दुलावै।
2. संगीतात्मकता
काव्य और संगीत का गहरा संबंध है। प्रसिद्ध विचारक ‘वागनेर’ की मान्यता है कि गीत सृष्टि का सर्वोच्च रूप है। इसमें श्रेष्ठ संगीत के साथ श्रेष्ठ काव्य का होना आवश्यक है। मीरा के पदों में संगीतात्मकता का पूरा निर्वाह हुआ है। उनके पदों में आने राग-रागनियां है; जैसे –
(क) करम गति टारां न टरां।
सतवादी हरिश्चंद्र राजा, लोथ, धन वोरा भरा।
(ख) हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय।
मीरा ने संगीतात्मकता के लिए अनेक शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा है।
मीरा के काव्य में अनेक राग और रागनियों का प्रयोग सहजता के साथ हुआ है। ये राग-रागनियाँ पूर्ण रूप से दोष रहित तो नहीं हैं पर मीरा का मूल उद्देश्य इनकी रचना करना तो था ही नहीं। इनमें कवयित्री की सरस अभिव्यक्ति सफलता से हो पाई है।
राग तिलक, राग कान्हरा, राग त्रिवेनी, राग कामोद, राग मुल्तानी, राग मालकौस आदि अनेक रागों का इन्होंने प्रयोग किया। इनके कारण ही मीरा के काव्य में गेयता है। गेयता लाने के लिए इन्होंने शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा है और शब्दों का विकृत प्रयोग किया है। साथ ही अनुस्वार मुक्त दीर्घ स्वरों का प्रयोग भी किया है जिससे शब्दों में संगीतात्मकता में वृद्धि हुई है; जैसे-
श्रेणी अणज व्यासवारी, म्हारा सांवरा आवां।
णैणा म्हारा सांरों राज्यां, ढरता पलक णा लावां।
मीरा के पदों में अनेक वाद्ययंत्रों के प्रयोग का स्पष्ट उल्लेख है-
आयां णां री मुरारी,
माज्यो झांझ मृदंग मुरलिया, वाज्यां कर इकतारी।
आया बसंत पिया घर णांरी, म्हारी पीड़ा भारी ।
स्याम क्यांरी विसारी।
श्री कृष्ण और बांसुरी तो हर पल एक-दूसरे के साथ ही रहते हैं – वह तो अभिन्न हैं। मीरा के अनेक पदों में श्री कृष्ण की बांसुरी का वर्णन किया गया है।
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3. भावानुकूल शब्द-योजना
कवि की तीव्र अनुभूति के कारण अभिव्यक्ति भी तोव्र होती है। मीरा के लिए कविता तो एक साधन था। वे तो केवल श्रीकृष्ण को रीझाना चाहती थी। प्रेम की पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए उचित, भावानुकूल शब्द योजना प्रा. करने में पूर्ण सफलता मिली; जैसे-
हेरी म्हां दरद दिवाणी दरद न जान्यां कोय।
घायल गत घायल जाणयां, हिबड़ी अगण सजोय॥
4. राजस्थानी प्रभाव
मीरा की कविता पर राजस्थानी का प्रभाव है। हिंदी में जिन शब्दों में ‘न’ का प्रयोग होता पर मीरा ने उस स्थान पर ‘ण’ अथवा ‘णा’ का प्रयोग किया है; जैसे- नयन में पेण, जमना में जमणा आदि ।
हिंदी के पुंल्लिंग ‘आ’ को ‘औ’ तथा स्त्रीलिंग शब्दों को बहुवचन बनाते समय ‘यां’ अथवा ‘इयां’ प्रत्यय लगते हैं; जैसे—दूसरों से दूसरा, सहेली से सहेल्यां कुटुंब से कुटुंबों ।
5. मुहावरों का प्रयोग
मीरा ने अपने काव्य में अनेक मुहावरों का प्रयोग किया है। कही ये राजस्थानी के हैं और कहीं किसी अन्य भाषा के, पर ये सभी भावानुकूल हैं; जैसे –
(क) ‘दाध्या ऊपर लूण लगायो’
(ख) ‘बोला कंठ णा सार्यो’ आदि।
6. अलंकार योजना
मीरा की पदावली में शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकारी का प्रयोग किया गया है। अनुप्रास- वीप्सा, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण आदि अलंकारों का सफल और स्वाभाविक प्रयोग किया गया है।
7. छंद विधान
मीरा ने छंदों का प्रयोग अपने भाव-विभोर हृदय की प्रेमासक्ति को बाँधने के लिए किया है। उन्होंने सरसी जैसे गेय छंदों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। वस्तुतः मीरा बाई की काव्यकला सार्थक एवं सफल है।