मीराबाई की प्रेम साधना
मीराबाई प्रेम-दीवानी थी और उनका सारा काव्य प्रेम के उद्गारों से परिपूर्ण हैं। इसलिए कई आलोचक मान लेते हैं कि ‘मीरा में दर्शन और विचारों की खोज व्यर्थ है वह प्रेम दीवानी थी। प्रेम ही उसका दर्शन और प्रेम ही उसका जीवन था, तो भी यह कहना भ्रम है कि उसके काव्य में दार्शनिक अनुभूतियां तथा संसार की नश्वरता और विरक्ति से भरे भाव नहीं हैं।
उनका स्वर मूल रूप से प्रेम से भरा हुआ है और उन्होंने जान- बूझ कर किसी दर्शन को भावों में नहीं मिलाया है लेकिन फिर भी उनके काव्य में संसार को नश्वरता, अवसाद और विरक्ति के भाव अपने आप ही आ मिले हैं। मीरा मानती है। कि माया जाल के कारण जीव ब्रह्म से पृथक् प्रतीत होता है किंतु वास्तव में जीव ब्रह्म का ही एक अंश है-
म्हारे आन्यो जी रामां, धारे आवत आस्यां सामां।
तुम मिलियां मैं बोहि सुख पाऊं, सरे मनोरथ कामा।
तुम विच हम बिच अंतर नाहीं, जैसे सूरज धामा।
मीरा के मन अवर न माने, चाहे सुन्दर स्यामां।
वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग में माना है कि जीवन के मरण चक्र से मुक्ति पाने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है। मीरा ने इस भाव को बार-बार प्रकट किया है-
थें बिछड्या म्हां कलयां प्रभु जी, म्हारो गायो सब चैण
मीरा रे प्रभु को मिलोगे, दुख मेटण सुख दैन।
ब्रह्म जगत् के रूप में अवतरित होकर भी अविकृत और सत् स्वरूप बना रहता है। यह संसार ईश्वर के सत अंश का विस्तार है। मनुष्य तो मरणधर्मा है इसलिए उसे तो मरना ही –
या देही री गरब ना करणा, माटी मां मिल जासी।
यो संसार चहर री बाजी, सांझ, पड्यां उठ जासी।
मीरा अपने प्रियतम के प्रेम में पूर्ण रूप से पगी हुई है। उसके प्राण तो अपने प्राणेश्वर के साथ रमण करते हैं। वह चाहकर भी अपने प्रियतम से दूर नहीं रहती।
पिया अब आज्यो मेरे, तुम मोरे हूँ तोरे।
मैं जण तेरा पंथ निहारूँ, मारण चितवत तोरे।
मीरा किसी भी प्रकार से अपने प्रियतम को पाने के लिए बेचैन है। उसे अपना शरीर प्यारा नहीं है। वह तो इस संसार को छोड़ कर प्रियतम से मिल जाना चाहती है-
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हारों सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।
प्रेमिका की तरह संकोच और मर्यादा को छोड़कर प्रियतम को पाना चाहती है। मौरा विरह की अवस्था में बेचैनी और व्याकुलता को प्रकट करती है। वह एक सच्ची उसके मन में प्रियतम के बिना विरक्ति का भाव पैदा हो गया है। वह कह उठती है-
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो-चूड़ा।
काजल टीकी हय सब त्यागा, त्याग्यौ छै बांधन जूड़ो।
मीरा मौत से नहीं डरती क्योंकि यदि उसने इस जीवन में प्रियतम को नहीं पाया तो कर ही उसे पा लेगी। यदि राणा ने उस के वध के लिए तरह-तरह के प्रबंध किए तो क्या हुआ।
राणो भेज्या विषरो प्याला चरणामृत पी जाणा।
काला नाग पिटाय भैज्याँ, सालगराम पिछाणा।
मीरा तो अब प्रेम दिवाणी साँवलिया वर पाणा ॥
वह तो पूर्ण रूप से अपने तन-मन को अपने प्रियतम पर वार देना चाहती है। वियोगावस्था में जड़ता की स्थिति को पा जाती है-
(ख) कोण सुणे कांसू कहि यारी।
(ख) का कहूँ माणे मेरी, कहा न को पतियावै हो।
मृत्यु की अवस्था में तो उसके लिए मृत्यु का कष्ट भी नगण्य हो जाता है-
विरह की मारी मैं वन डोलूँ,
प्राण तजूँ करवत ल्यूँ कासी।
मीरा के प्रेम में सच्चे प्रेमी की व्यग्रता, विवशता और मार्मिकता विद्यमान है। उसक वाणी में संसार की नश्वरता पर अवसाद का भाव सर्वत्र विद्यमान है।