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प्रेमचंद का जीवन दर्शन
प्रेमचन्द हिन्दी-जगत् में उपन्यास सम्राट् के रूप में विख्यात हैं। साथ ही, वे युगीन सुप्रसिद्ध कहानीकार भी रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में कटु अनुभव किये थे तथा भारतीय जीवन की विषमताओं को अपनी आँखों से देखा था। मानव जीवन के विषय में उनकी अपनी निजी धारणाएँ थीं, भाव व विचार थे वही उनकी कृतियों में अभिव्यक्त हुए हैं। ‘गोदान’ उपन्यास उनकी प्रौढ़तम कृति है जिसमें उन्होंने जीवन के विषय में अपनी विचार-धारा को रेखांकित किया है।
वे स्वयं कहते थे-
“अपने मार्ग, अपने अध्ययन, अपनी फिलासफी के बिना कोई सच्चा कलाकार नहीं हो सकता। अपनी आँखों से जीवन देखो, अपने अनुभव से उसे जाँचो जैसा पाओ, बैसा लिखो।”
‘गोदान’ में उनके अनुभवों को प्रस्तुत करने वाला पात्र मुख्य रूप से प्रो. मेहता हैं जो दर्शनशास्त्र के ज्ञाता हैं। जिनके माध्यम से प्रेमचन्द ने अपने जीवन-दर्शन पर प्रकाश डाला है। एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में- “चाहे दर्शन की बहुत सूक्ष्म गहराई….. ..ऐसी गहराई जो बुद्धि को ही चमत्कृत करे. ..इसमें अधिक न हो, तो भी जीवन के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण का जो सहज ज्ञान इसमें पाया जाता है, वह प्रेमचन्द की विशेषता है। ये विचार, ये सब धारणाएँ, यह सब जीवन-दृष्टि प्रेमचन्द ने निजी जीवन के अनुभव से प्राप्त की थी, किसी दार्शनिक की पुस्तकों से नहीं।”
यही सहज अनुभव गम्यता और सरल व्यावहारिकता इस जीवन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है। गोदान उपन्यास के आधार पर प्रेमचंद के जीवन दर्शन को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है-
ईश्वर के प्रति अनास्था
प्रेमचन्द का ईश्वर के प्रति ऐसा विश्वास न था जो भारत में पर्याप्त समय से परिव्याप्त है कि ईश्वर संसार का कर्ता है वही सबका भाग्य-निर्माता है, उसके बिना पत्ता भी नहीं हिलता। जो वह चाहता है प्रत्येक जीव वही करता है इत्यादि।
प्रेमचन्द ईश्वर के प्रति अपनी अनास्था को मि. मेहता के चरित्र के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए ‘गोदान’ में कहते हैं-
“किसी सर्वज्ञ ईश्वर में इनका विश्वास न या । यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थे, इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव मानते थे, पर यह धारणा उनके मन में दृढ़ हो गयी थी कि प्राणियों के जन्म-मरण, सुख-दुख, पाप-पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है।”
‘गोदान’ उपन्यास में उन्होंने प्राचीन भारतीय मान्यताओं को विशेष रूप में ग्रामीण परिवेश में प्रस्तुत किया है जहाँ पर ब्राह्मणवाद प्रचलित था और उन्होंने ईश्वर से सभी को भयभीत कर रखा था। प्रस्तुत उपन्यास का कथानायक होरी ईश्वर में व ब्राह्मण में पूर्ण आस्था रखता है। उसकी दृष्टि में यदि वर्षा कोई करता है तो वह ईश्वर है (भगवान् कहीं गी से बरखा कर दे.. ..तो वह एक गाय जरूर ले लेगा।) भगवान ही सबको छोटा या बड़ा बनाते हैं वे ही कर्मों का फल प्रदान करते हैं। एक बार वह अपने पुत्र गोवर से कहता है-“यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान् के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्व जन्म में जैसे कर्म किए, उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं सींचा, तो भोगें क्या?”
प्रेमचन्द अपने कथानायक होरी की इस धारणा का उत्तर गोबर के माध्यम से देते हैं। यदि प्रेमचन्द यहाँ शान्त रहते तो ज्ञात हो जाता कि वे भी ईश्वरवादी हैं। गौवर अपने पिता होरी से स्पष्ट कह देता है कि जो कुछ वे कह रहे हैं अपने मन को समझाना मात्र है, अन्यथा संसार में सभी बराबर हैं। इतना अवश्य है कि आज के युग में जिसके हाथ में लाठी है वह गरीबों को कुचलता है और बड़ा बन जाता है। गोबर शोषकों के भगवद्-भजन, दानधर्म व ईश्वर भक्ति के विषय में कहता है, ‘यदि वे भगवान का भजन करते हैं तो किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर ।
यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दानधर्म करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे नंगे रहकर भगवान का भजन करें तो हम भी देखें। हमें कोई दो जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाएँ।’ वास्तव में प्रेमचन्द ने अपनी बात कहने के लिए समाज में व्याप्त ईश्वर-विषयक मान्यताओं व रूढ़ियों को भी प्रस्तुत किया है तभी उसका उपयुक्त समाधान भी दिखाया है।
बुद्धिवाद के समर्थक
प्रेमचन्द इस बात के पक्षधर नहीं थे कि भगवान के भरोसे सभी कुछ छोड़ दिया जाए। प्रायः ग्रामीण पात्र अपने जीवन के सभी पक्षों को भगवान के आधार पर ही तय करते हैं। उदाहरणार्थ-
(क) गोबर कहता है-‘भगवान ने सबको बराबर बनाया है।’
(ख) होरी ने धनिया को डांटकर कहा-‘अगर भगवान की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़कर भाग जायें,तो हमारा क्या बस।’
(ग) भोला खिसियाकर बोला- ‘भगवान न करे, मुझे तेरा मुँह फिर देखना पड़े।’
(घ) झुनिया रोती हुई बोली-‘भगवान मुझे फिर से जन्म दें तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाषा ”है।’
(ङ) एक पण्डित जी झुनिया से कहते हैं- ‘झूना रानी! कभी कभी गरीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान पूछेंगे… ..एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया।’
(च) झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता पर संदेह हो गया था। भगवान् न जाने कहाँ है कि यह अन्धेर देखकर भी पापियों को दण्ड नहीं देते।
(छ) (मालती कहती है) ईश्वर न करे में असफल हो जाऊँ।
प्रेमचन्द की धारणा थी कि हमें आपत्ति आने पर, अवसर आने पर या किसी भी स्थिति में अपनी बुद्धि के बल से सोचना चाहिए कि इसका क्या निदान है? सभी कुछ भगवान भरोसे छोड़कर निश्चित होना उचित नहीं है। ‘गोदान’ उपन्यास में प्रो. मेहता बुद्धिवाद के समर्थक हैं। ये जो कुछ बुद्धि से मान्य समझते हैं उसी पर चलते हैं।
सम्पादक ओंकारनाथ से कहते हैं-
“धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को और रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूस का मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवा और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी।”
प्राकृतिक जीवन
प्राकृतिक जीवन का अर्थ है-स्वाभाविक जीवन की वृत्ति या प्रवृत्ति । प्रेमचन्द चाहते थे कि मानव को अपने स्वाभाविक रूप में रहना चाहिए। धर्म, ज्ञान, रूढ़ि, स्वर्ग, अपवर्ग आदि के चक्कर में पड़ना व्यर्थ है। जीवन का प्राकृतिक आचरण श्रेयष्कर है। प्रो. मेहता गोविन्दी को समझाते हैं कि उन्हें स्वाभाविक रूप में आचरण करना चाहिए। वे अपने विषय में कहते हैं (जो वस्तुतः प्रेमचन्द की धारणा है।) “मेरे जीवन का क्या आदर्श है? मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ। जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोच में आकर मार डालता है… ..जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है……. में भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है।”
प्रेमचन्द का कथन था कि जो सुख और दुख दोनों को दबाते हैं रोने को कमजोरी मानते हैं, हँसने को हल्कापन जानते हैं वे आनन्दमय नहीं है। ईर्ष्या, जलन, कुत्सा जीवन के विकार हैं। न तो कभी हमें भविष्य की चिंता करनी चाहिए और न भूत पर पश्चात्ताप रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, स्वर्ग-प्राप्ति आदि सभी निरर्थक हैं। मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है जिससे मानवीयता नष्ट होती है। जहाँ आनंद है, प्रेम है, सुख है, शान्ति है,वहीं ईश्वर है वहीं मोक्ष है। वे ज्ञान की कठोर साधना को निरर्थक तथा दुःख का कारण मानते हुए कहते हैं- “ज्ञानी कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आए, आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँ, अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्हू है।”
वस्तुतः प्रेमचन्द प्राकृतिक जीवन को ही जीवन की सच्ची कसौटी मानते थे जहाँ इन्सानियत है, और मानव को मानव का सच्चा स्नेह प्राप्त है। मिस्टर खन्ना एक स्वामी जी के विषय में रायसाहब, मिस मालती आदि को बताते हैं कि वे महात्मा तपस्वी हैं और सिद्ध पुरुष हैं तथा उनके सिद्धान्त के विषय में कहते हैं कि संन्यास और त्याग, मन्दिर और मठ, सम्प्रदाय और पंथ, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखण्ड कहते हैं तथा बताते हैं कि रूढ़ियों के बन्धनों को तोड़ो और मनुष्य बनो; देवता बनने का ख्याल छोड़ो।
देवता बनकर तुम मनुष्य नहीं रह सकते। वस्तुतः यह प्रेमचन्द की विचारधारा है जो मानव को प्राकृतिक रूप में रहने का संकेत करती है। प्रेमचन्द सरल और निष्कपट प्रकृति के थे। वे दिखावटीपन और बनावटीपन में विश्वास नहीं करते थे। न वे किसी मजहब में विश्वास रखते थे और न पूजा-पाठ में श्रद्धा। उन्होंने धर्म का सामाजिक और व्यक्तिगत स्वरूप देखा था जहाँ पाखण्ड-ही-पाखण्ड था। उनकी दृष्टि में परम्परागत रूढ़ियों और विधानों पर आश्रित धर्म निरर्थक था। मानव जीवन में सच्ची सेवा, ममता व सत्य ही धर्म हो सकता है जो मानव के स्वाभाविक आचरण से संभव है।
व्यक्तिवाद
प्रेमचन्द व्यक्तिवाद के समर्थक थे। उनकी मान्यता थी- ‘समाज व्यक्ति से ही बनता है।’ जब राय साहब, एक ओर जमींदार होकर भी शोषक के रूप में धनवान का जीवन व्यतीत करते हैं तथा दूसरी ओर इस वर्ग की निंदा करते हैं, तब प्रो. मेहता उनसे कहते हैं-“मैं कहता हूँ हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायतें देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं तो आप खुद शुरू कर दें, मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन जीते हैं रईसों का सा।”
व्यक्ति का समुचित विकास ही समाज का विकास है। व्यक्तिवाद के विषय में भी उनकी धारणा थी कि समाज में कभी भी एकरसता या समरसता की स्थापना संभव नहीं है।
यद्यपि वे शोषण प्रवृत्ति के विरोधी थे उनका कथन था
“मैं इस बात का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा।”
प्रेमचन्द ने इसके उदाहरण भी दिए हैं। कि समाज कभी एकता के सूत्र में बंधकर एक जैसा नहीं हो सका। ‘बुद्ध, प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के प्रवर्तक थे। यूनानी, रोमन और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उनकी परीक्षा की, पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्वायी न बन सकी।’ सामाजिक विषमता सदा रही है और आगे भी रहेगी। जब समाज की इकाई व्यक्ति-व्यक्ति में अन्तर रहा है तो समाज कैसे एक हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति के विचार, आकार, बुद्धि, धारणा कभी समान नहीं हो सकती। इसी कारण प्रेमचन्द व्यक्तिवाद के समर्थक रहे हैं।
मानवतावाद
प्रेमचन्द मानव जीवन में प्रमुख रूप में मानवतावाद के पक्षधर थे। जब तक इस भूमि पर मानवतावाद नहीं होगा, तब तक बसुन्धरा के जहर को नहीं मिटाया जा सकता, व्यवस्था दोष को समाप्त नहीं किया जा सकता। ‘गोदान’ उपन्यास का कथानायक होरी जब रायसाहब द्वारा मनाए जा रहे दशहरे के अवसर पर धनुष यज्ञ में माली बनाया जाता है तो उसे चिन्ता है कि वह शगुन के रुपये कैसे देगा? उसकी सारी फसल खेतों से ही उठ गयी, कर्जदार वह फिर भी बना हुआ है, तब वह भोला से कहता है-“कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ है?” उसकी दृष्टि में मानव ये हैं जिनके पास अपार धन है, अधिकार है व शिक्षा है। दूसरी ओर रायसाहब होरी से अपनी वास्तविक व आन्तरिक दशा का चित्रण करते हुए कहते हैं-“तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो। हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन छोटे।’
हमारा धर्म है कि यदि कोई हमारे मुँह की रोटी छीन ले तो हम उसके गले में उँगली डालकर रोटी निकाल लेते हैं। हमारी ईर्ष्या और बेर आनंद के लिए है। हमारे स्तर के लोग किस प्रकार परस्पर द्वेष करते हैं, कुभावना व दुर्वासना के शिकार हैं जिनका वर्णन करना कठिन है। हमारे शोषण की कोई पराकाष्ठा नहीं है।” वस्तुतः प्रेमचन्द ने रायसाहब के माध्यम से जो बड़े लोगों की दुर्भावनाएँ व्यक्त की है वह रायसाहब की आत्म-आलोचना ही नहीं है बल्कि उनकी अमानवीयता का खुला चिट्टा है। स्वयं रायसाहब अपने को इन्सान नहीं मानते हैं। वे कहते हैं-‘दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं।
हमारे पास इलाके, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, कर्ज, वेश्याएँ, क्या नहीं है? लेकिन जिनकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ भी हो, आदमी नहीं है।’ प्रेमचन्द ने रायसाहब के मुख से यहाँ तक कहलवाया है कि क्या ही अच्छा हो यदि सरकार उनका यह अधिकार छीन ले और ये रोज़ी रोटी कमाना सीख लें। उनका कथन है-लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द वह दिन आने वाले हैं। यह हमारे उद्धार का दिन होगा।
हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक सम्पत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, तब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे, जिस पर पहुँचना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
प्रेम का स्वरूप
प्रेमचन्द प्रेम को मांसल आसक्ति या कामुकता नहीं मानते। जहाँ तक नर-नारी के प्रेम का प्रश्न है मालती स्वयं प्रेम की व्याख्या करते हुए कहती है- ‘मैं प्रेम को सदेह से ऊपर समझती हूँ। वह देह की वस्तु नहीं है, आत्मा की वस्तु है।’ वह प्रो. मेहता से भी स्पष्ट रूप में कहती है कि प्रेम सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है। प्रेम के मन्दिर में उपासक बनकर ही वरदान प्राप्त किया जा सकता है।
प्रेमचन्द दाम्पत्य प्रेम या वैवाहिक प्रेम को ही सच्चा प्रेम मानते थे। वे तलाक आदि के समर्थक न थे। जो प्रेम विवाह से पूर्व होता है वह रूप 1 का आकर्षण मात्र है, कोरी कामवासना है जिसका कोई टिकाव नहीं प्रेम का आधार रूप या सौन्दर्य नहीं है, बल्कि आत्मसमर्पण है। प्रेमचन्द प्रेम का अर्थ भोग नहीं मानते थे बल्कि जीवन का विकास और विस्तार मानते थे जिसके माध्यम से मानव सेवा का धर्म जागृत होता है। नारी भोग की वस्तु नहीं है उसकी चरमसीमा मातृत्व है। जो नारी के रूप के उपासक हैं वे नारी के आत्म-सौन्दर्य को कुरूप कर देते हैं। मालती प्रारंभ में मांसल प्रेम की भूखी थी। वह कभी खन्ना से कभी प्रो. मेहता से तो कभी अन्य से शारीरिक वासना की इच्छुक थी पाश्चात्य सभ्यता में रहने के कारण उसने प्रेम को केवल कामुकता ही समझा था, परन्तु जब वह प्रो. मेहता से प्रेम करने लगी तो बहुत समय के पश्चात् वह प्रेम के आदर्श को जान सकी।
प्रेमचन्द मालती के विषय में कहते हैं कि मालती नारीत्व के उस ऊँचे आदर्श पर पहुँच गई थी, जहाँ वह प्रकाश के एक नक्षत्र- सी नज़र आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थे, उसे श्रद्धा ने और गहरा, और भी स्फूर्तिमय बना दिया था। प्रेम में कुछ मान भी होता है, कुछ महत्त्व भी श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है प्रेम अधिकार चाहता है, जो । कुछ देता है, उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनंद अपना समर्पण है जिसमें अहं मन्यता का ध्वंस हो जाता है।
प्रेमचन्द ने आदर्श प्रेम को इतना महत्त्व दिया है कि वह वर्ण और जाति के बन्धन को तोड़कर आत्मा का विषय बनकर रह जाता है। मातादीन और सिलिया का प्रेम भी इसी प्रकार का है। एक ओर सिलिया ने अपने माता-पिता भाई आदि के समक्ष विद्रोह किया, परन्तु वह मातादीन के प्रेम को न भुला पाई, तो दूसरी ओर मातादीन भी सिलिया का होकर रह गया और बोला- ‘मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मण है, जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार है।‘
‘मालती प्रो. मेहता से कहती है-
“मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम पर विश्वास करती हूँ और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं है जो मैं न कर सकूँ। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन्त पर्यन्त मुझे इसी मार्ग पर दृढ़ रखे। हमारी पूर्णता के लिए। हमारी आत्मा के विकास के लिए और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बनाकर अपनी आत्माओं को छोटे से पिंजरे में बन्द करके, अपने सुख-दुख को अपने तक ही रखकर क्या हम असीम के निकट पहुँच सकते हैं?
प्रेमचन्द प्रेम का सच्चा स्वरूप वही मानते थे जहाँ आत्मा का विकास हो, मांसल प्रेम कोरी कामुकता है, वासना की दुर्गन्ध है। प्रो. मेहता उस समय तक मालती को नहीं अपना सके, जब तक वह शारीरिक प्रेम के नशे में परिव्याप्त थी। प्रेमचन्द प्रेम का स्वरूप प्रो. मेहता के माध्यम से ही प्रस्तुत उपन्यास में रख सके हैं।
शारीरिक प्रेम को उन्होंने अनेक रूपों में ग्रामीण परिवेश में प्रस्तुत किया है, परन्तु मालती ही प्रेम की वास्तविकता को ज्ञात करने में समर्थ हो सकी। एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में- “प्रेमचन्द नारी जागरण के पश्चिमी आदर्श को नहीं मानते, जहां नारी ने अपने को नग्न करके विलास के लिए नियोजित कर लिया है। वे नारी जागरण के हामी हैं। ये नारी समानता के समर्थक हैं लेकिन वह जागरण आत्मा का हो।’
कर्मयोग
प्रेमचन्द का जीवन के प्रति दृढ़ विश्वास था। इस संसार में जीवन के अतिरिक्त स्वर्ग-नरक, ईश्वर आदि पर उनकी आस्था नहीं थी। चाहे आत्मा पर विश्वास करे या न करें, निवृत्ति या प्रवृत्ति किसी भी मार्ग को अपना लिया जाए जीवन को आदर्श बनाने के लिए सभी मार्ग हैं। यदि हम ईश्वर से डरते हैं इसका यही अर्थ है कि हम जीवन में अशिव मार्ग का त्याग करते हैं। स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त नहीं है, बल्कि जीवन को सुधारने के लिए कल्पना मात्र है। प्रेमचन्द इस विषय में मेहता के माध्यम से अपना चिन्तन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-
“आत्मवाद और अनात्मवाद की खूब छानबीन कर लेने पर वह इसी तत्त्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच जो सेवा मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग कहो, वही जीवन को सार्वक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा और पवित्र बना सकता है।”
समाज की एकता में प्रेमचन्द का अवश्य विश्वास था परन्तु इसके लिए ईश्वर को मानने की आवश्यकता वे नहीं समझते थे। उनका यह विश्वास नहीं कि प्रत्येक मानव में एक आत्मा है और वह ईश्वर का अंश है। दर्शन के क्षेत्र में द्वैतवाद (संसार में दो तत्व हैं) या अद्वैतवाद (संसार में एक ब्रह्म तत्व ही है) आदि में उनका विश्वास न था, न इसका कोई उपयोग वे समझते थे। इसका अर्थ उनकी दृष्टि में यही है कि मानव का मानव के प्रति विश्वास रहे, वे एकता के सूत्र में बंधे रहें आपसी सौहार्दता बनी रहे। प्रेमचन्द जानते थे यदि हम अपने जीवन में इस प्रकार के कर्म करते रहेंगे जो हमारे लिए व अन्यों के लिए हितकर होंगे तो मानव जाति का अवश्य विकास होगा।
उनकी धारणा थी कि जिन आध्यात्मिक रूपों को हमने देखा ही नहीं उसमें जीवन का विकास खोजना निरर्थक है। ‘गोदान’ में प्रो. मेहता के चिन्तन को प्रस्तुत किया गया है-
“एकात्मवाद या सर्वात्मवाद या अहिंसा-तत्त्व को वह आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, भौतिक दृष्टि से ही देखते थे; वयपि इन तत्त्वों का इतिहास के किसी काल में भी आधिपत्य नहीं रहा, फिर भी मनुष्य जाति के सांस्कृतिक विकास में उनका स्थान बड़े महत्त्व का है। मानव समाज की एकता में मेहता का दृढ़ विश्वास या; मगर इस विश्वास के लिए उन्हें ईश्वर तत्व के मानने की ज़रूरत न मालूम होती थी।”
मानव जीवन का सच्चा कर्म यही है कि वह स्वार्थ से भिन्न कुछ कर्म करे यश प्राप्त करना, लोभ करना आदि सत्यकर्म नहीं है। सच्ची सेवा उन कार्यों से है जहाँ स्वार्थ न हो, अपने लिए आसक्ति न हो, निसंग भावना से किये गये कर्म उचित हैं भगवान के नाम पर, स्वर्ग के लिए किए गये कर्म स्वार्थ भावना से भरे हैं। अतः प्रेमचन्द सेवा भावना वाले कर्मों को महत्त्व देते थे।
निष्कर्ष
इस प्रकार ‘गोदान’ में प्रेमचन्द का जीवन दर्शन नई विचारधारा को लेकर प्रस्तुत हुआ है। वे ईश्वर, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य आदि में विश्वास नहीं रखते थे, बल्कि बुद्धिवाद के समर्थक थे। वे चाहते थे कि व्यक्ति को जीवन के सभी विधान परमात्मा पर नहीं छोड़ देने चाहिए, बल्कि बुद्धिपूर्वक विचार करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। समाज में प्रत्येक व्यक्ति का अपना महत्त्व है उसे स्वाभाविक रूप से जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है, जीवन में दिखावटीपन या बनावटीपन सर्वथा निरर्थक हैं।
नारीत्व पुरुष समाज के निर्माण में समान रूप से उत्तरदायी है परन्तु उनका जीवन तभी सार्थक हैं जब वे दाम्पत्य जीवन के महत्त्व को समझकर जात्मा की उन्नति करते रहे। पाश्चात्य प्रेम का जो वासनात्मक रूप भारत में परिव्याप्त हो रहा है, प्रेमचन्द उसके विरोधी थे। प्रेम का अर्थ है-आत्मा का विकास। वह तभी संभव है जब नारी और पुरुष मानवता के मार्ग को अपनाएँ। यदि समाज का विकास संभव है तो वह मानवता के मार्ग को अपनाने से ही हो सकता है। इस प्रकार प्रेमचन्द जी ने ‘गोदान’ उपन्यास के माध्यम से जीवन के प्रति जो विचारधारा प्रस्तुत की थी, वस्तुतः वह आज के संदर्भ में भी अत्यन्त उपयोगी है।