पूस की रात कहानी का सारांश
‘पूस की रात’ सुविख्यात कहानीकार मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित लगभग साढ़े तीन सौ कहानियों में से एक श्रेष्ठ कहानी है। यह कहानी एक यथार्थवादी कहानी है। इस कहानी पर आकर मुंशी प्रेमचंद पूर्णतः यथार्थवादी हो गए हैं। प्रस्तुत कहानी में किसानों की दयनीय एवं चिन्तनीय स्थिति का बड़ा ही मार्मिक, सजीव एवं यथार्थ चित्र ओंकित हुआ है। यह पौ दिसंबर-जनवरी मास की ठण्डी रात में नंगे बदन किसान और उसके साथ हूँ-हूँ करते निरीह पशु कुत्ते की एक दर्दभरी दास्तान है। यही यथार्थवाद की पराकाष्ठा है जो पाठकों के रोंगटे खड़े कर देती है और उन्हें झकझोर कर सोचने पर मजबूर कर देती है।
कहानी का सार इस प्रकार है-
कहानी का नायक हल्कू एक गरीब किसान है। वह लेनदार सहना का तीन रुपये का कर्जदार है। उसने वर्षभर परिश्रम करके सर्दी में एक कम्बल खरीदने के लिए तीन रुपये इकड़े किये थे। लेनदार सहना उस पर रुपये वापस करने का दबाव बना रहा है। वह तंग आकर उन रुपयों को लेनदार को देना चाहता है। परंतु उसकी पत्नी मुन्नी यह रुपये देने से मना करती है, परन्तु वह उन तीन रुपयों को लेनदार सहना को दे देता है। अब प्रश्न उठता है कि सर्दी के लिए कंवल कहाँ से आएगा? पूस की ठण्डी रातों में खेतों की आवारा पशुओं से रखवाली कैसे संभव हो सकेगी? अन्ततः हल्कू पूस की अंधेरी एवं कड़कड़ाती ठण्डी रातों में गाढ़े की फटी-पुरानी चादर ओढ़कर ही खेतों की रखवाली करने का निश्चय करता है।
पौ मास की अंधेरी ठण्डी रात में हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक उत्तरी सी बनाकर उसके नीचे बॉस का खटोला डाले हुए अपनी मेली फटी-पुरानी चादर ओढ़े सर्दी से काँप रहा था। खाट के नीचे उसका एकमात्र साथी जबरा कुत्ता पेट में मुँह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था। अत्यधिक ठण्ड के कारण दोनों में से एक को भी नींद नहीं आ रही थी। हल्कू ने कुत्ते को अपने बदन से सटा लिया और उसे पुचकारते हुए कहने लगा कि आगे से मेरे साथ नहीं जाना। वह अपनी गरीबी की विवशता का बखान कुत्ते से करता है।
रात बढ़ने के साथ जब ठंड और बढ़ी तो ठण्ड से तंग आकर हल्कू उठा और गड्ढे से आग निकालकर चिलम भर कर पीने लगा। कुत्ता भी उठ बैठा। चिलम पीकर हल्कू सोने का इरादा कर लेट गया, परन्तु ठण्ड ने उसे सोने नहीं दिया और वह केवल करवटें बदलता रहा। वह फिर उठा और उसने कुत्ते को अपनी गोद में बैठा लिया। कुत्ते के दुर्गन्धमय शरीर से उसे कुछ गर्मी का एहसास हुआ। अचानक किसी जानवर की गंध पाकर जबरा गोद से उछल पड़ा। चारों तरफ दौड़-दौड़ कर भौंकता ही रहा। इसी बीच एक घण्टा व्यतीत हो गया। ठण्डी हवा जोर-जोर से चल रही थी। हल्कू का लहू जमने लगा। अभी आधी रात बाकी थी। हल्लू सोचा कि पास के बगीचे से आम की पत्तियों एकत्र करके आग जलायी जाये ताकि सर्दी से बचा जा सके।
बगीचे में धुप अंधेरा छाया हुआ था और अंधेरे में निर्दयी हवा पत्तियों को रौंद रही थी। वृक्षों से ओस की बूंदें टप टप नीचे टपक रही थीं। जबरे के साथ हल्कू ने पत्तियों को एकत्र किया और अरहर की डालियाँ तोड़कर आग जलायी। अंधेरे में आग की लपटें तैरने लगीं। हल्कू अलाय के सामने बैठा आग की तपत महसूस कर रहा था। कुछ देर बाद ही उसने चादर उतार कर बगल में दबा ली और दोनों पैर फैला लिए। ठण्ड की असीम शक्ति पर विजय प्राप्त कर वह विजय- गर्व को अपने हृदय में छिपा न सका। उसने कुत्ते को भी उकसाया तो उसने भी लपटों पर से छलांग लगाई।
थोड़ी देर में पत्तिया जल गयीं, अलाव ठण्डा होने लगा, अंधेरा और ठण्ड दोनों वापस लौट आए। सर्दी ने फिर हमला कर दिया। मजबूर होकर हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और वहीं राख के पास बैठकर कोई गीत गुनगुनाने लगा। बढ़ती सर्दी ने उसके शरीर को फिर शिथिल कर दिया। अचानक जबरा भौंकता हुआ खेत की तरफ भागा। ऐसा लगा जैसे आवारा पशुओं का एक झुण्ड खेत को चर रहा हो। पशुओं के पैरों तथा चरने की आवाजें भी आने लगीं, परंतु सर्दी के कारण हल्कू अपनी जगह से नहीं उठ सका।
उसने सोचा कि जबरे के रहते हुए पशु खेत पर नहीं आ सकते। फिर उसने साहस किया और उठकर खेतों की तरफ जाने लगा। किंतु तेज ठण्डी हवा से डरकर हल्कू वापस गर्म राख के पास बैठकर बदन गर्माने लगा। जबरा पूरे जोर से भाँक रहा था और हल्कू वहीं राख के ढेर के पास चादर ओढ़कर सो गया। सुबह सूर्य की गर्मी पाकर उसकी आँख खुती तो उसकी पत्नी मुन्नी कह रही थी
“क्या आज सोते ही रहोगे? उधर सारा खेत चौपट हो गया।”
हल्कू ने दर्द का बहाना बनाते हुए पत्नी को शान्त किया। फिर पशुओं द्वारा उजाड़े खेत की ओर देखकर हल्कू ने कहा कम से कम अब ‘रात की ठण्डी हवा में यहाँ सोना तो न पड़ेगा?’ इस प्रकार पूस की रात कहानी में प्रेमचंद जी ने गरीब किसान का यथार्थ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया है।
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