रामकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ / रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ

Ram Kavya Ki Pravritiyan

रामकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रामभक्ति काव्य-सगुण रामभक्ति काव्य से अभिप्राय उस काव्य से है जिसमें कवियों ने ईश्वर का रूप श्रीराम में देखकर अपने काव्य की रचना की। कवियों ने इस काव्य में श्रीराम के बाल रूप से लेकर उनके मर्यादा पुरुषोत्तम रूप तक की वंदना की है। रामभक्ति का वास्तविक प्रवर्तन, स्वामी रामानंद के प्रयत्नों से हुआ। इनकी शिष्य परंपरा में एक ओर निर्गुण उपासक कबीर हुए, तो दूसरी ओर नरहरिदास सरीखे सगुण-साकार रामभक्त भी हुए, जिन्होंने आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास को तैयार किया। तुलसीदास ने ही आगे चलकर रामभक्ति का प्रचार-प्रसार किया। तुलसीदास जी के अलावा इस काव्य के मुख्य कवियों में केशव, नाभादास, महाराजा पृथ्वीराज, हृदयराम आदि हैं। तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ इस युग का ही नहीं सर्वकालीन प्रतिनिधि महाकाव्य है। इस काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अग्रलिखित हैं। 

राम का स्वरूप

रामभक्त कवियों के इष्ट देव, राम, विष्णु के अवतार हैं। वे परब्रह्म स्वरूप हैं। राम में शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय है। वे अपने शील गुण से लोक को आचार की शिक्षा देते हैं, शक्ति से दुष्टों का दलन करके भक्तों को अभय करते हैं और सौंदर्य में तीनों लोकों की लजाते हैं। वे पाप-विनाश और धर्म के उद्धार के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं इसलिए उनका लोकरक्षक रूप प्रधान है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और आदर्श के प्रतिष्ठापक हैं। राम के इसी शक्तिमय रूप का ध्यान करके उनका दास निर्भय, स्वतंत्र और विजयी हो जाता है। श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन, हरण भव भय दारुण।

नवकंज लोचन कंज मुख पद कंज कंजारूणं ।

भक्ति-भावना

रामभक्त कवियों की भक्ति भावना मुख्यतः दास्य भाव की है। तुलसीदास का कहना है-“सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि।’ यों सीता में माधुर्य भाव की, सुग्रीव में सख्य भाव की, दशरथ-कौशल्या आदि में वात्सल्य भाव की तथा संतों में शांत भाव की भक्ति का भी इस काव्य में निरुपण हुआ है। जहाँ तक दास्य भाव की भक्ति का संबंध है, यह भक्त को भगवान के महत् रूप जोड़कर उसे भगवत् स्वरूप बनाती है। भक्त दीन-हीन मानसिकता को ग्रहण करके निर्विकार और निर् अहंकार हो जाता है, यही कारण है कि प्रायः सभी रामभक्त कवियों ने अपने

को राम का दास मानते हुए उनकी वंदना की है तथा उनके समक्ष अन्य देवी-देवताओं को नगण्य समझा है। इसीलिए तुलसीदास एक स्थल पर कहते हैं। 

“ऐसी मूढ़ता या मन की,
परिहरि रामभक्ति सुर-सरिता आस करत ओस कण की।” 

समन्वय साधना

रामकाव्य में आद्यन्त समन्वय की एक विराट् चेष्टा दिखाई पड़ती है। इस काव्य के बारे में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है-“उनका सारा काव्य समन्वय की विराट् चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, विज्ञान और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पाण्डित्य और अपाहित का समन्वय, शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है। “

इतना ही नहीं, इस धारा के कवियों के कलापक्ष में भी समन्वय दिखाई पड़ता है। समस्त काव्य युग की मांग के अनुरूप अपनी समन्वय साधना में सफल रहा है। सगुण, निर्गुण का समन्वय करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं-

“सगुण ध्यान रुचि सरस नहिं, निर्गुण मन ते दूर।
तुलसी सुमिरहु राम को, नाम सजीवनी मूर।।”

उच्चादर्श स्थापना

रामकाव्य के पात्र आचार-व्यवहार और लोक-मर्यादा की कसौटी पर खरे उतरते हैं। इनका चरित्र महान् और अनुकरणीय है। सत्य की असत्य पर विजय सुनिश्चित करना इनका ध्येय है। डॉ. शिवकुमार शर्मा के शब्दों में “रामकाव्य का आदर्श पक्ष अत्यंत उच्च है। राम आदर्श पुत्र है। वे आदर्श राजा भी हैं। सीता आदर्श पत्नी है, कौशल्या आदर्श माता है, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न आदर्श सखा हैं। इस काव्य में जीवन का मूल्यांकन आचार की कसौटी पर किया गया है। राजा प्रजा, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, स्वामी-सेवक और पड़ोसी-पड़ौसी के सुंदर अथवा स्वस्थ संबंधों पर आधारित समाज आचार के बल पर ही जी सकता है।”

काव्य रूप

रामकाव्य में प्रायः सभी काव्य रूपों के दर्शन होते हैं। इसमें प्रबंध और मुक्तक रचनाओं का अद्भुत समन्वय मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में प्रबंधात्मकता है तो विनय पत्रिकादि में मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। रामचंद्रिका रीति पद्धति पर रची हुई है।

रस-योजना 

रामकाव्य में नवरसों का प्रयोग है। राम का जीवन ही इतना विस्तृत और विविध है कि उसमें प्रायः सभी रसों की अभिव्यक्ति सहज ही हो जाती है। काव्य मर्यादावादी है, अतः इसमें शृंगार रस के संयोग और वियोग पक्षों का सुंदर परिपाक नहीं हो पाया, हालांकि यथा स्थान किसी रस का अभाव महसूस नहीं होता।

छंद व अलंकार

रामकाव्य की रचना दोहा, चौपाई छंद में हुई है। तुलसी का रामचरितमानस इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। दोहा-चौपाई के अतिरिक्त सवैया, कुंडलियाँ, छप्पय, कवित्त, सोरठा, • तोमर, त्रिभंगी आदि छंदों का भी प्रयोग हुआ है।

रामभक्त कवियों ने बड़ी कुशलता के साथ विविध अलंकारों का भी प्रयोग किया है, परंतु वे उपमा और रूपक अलंकारों के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। केशव ने शब्दालंकारों के प्रयोग में पांडित्य प्रदर्शन किया है।

भाषा-शैली

रामकाव्य में प्रमुख रूप से अवधी भाषा प्रयुक्त हुई है। किन्तु ब्रजभाषा भी रामकाव्य का शृंगार बनी है। रामकाव्य में कहीं-कहीं भोजपुरी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, संस्कृत और फारसी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। तुलसी ने भाषा का परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है। डॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार, “उनमें न तो वीरगाथाओं की कर्कशता है, न प्रेम काव्य की ग्रामीणता और असंगति तवा विश्रृंखलता। तुलसी का शब्द चयन पांडित्यपूर्ण है। इनकी भाषा अलंकृत न होकर स्वाभाविक, सरस और भाव-व्यंजक है।” इसके अलावा इस काव्य की शैली वर्णनात्मक, विवरणात्मक तथा गीति प्रधान रही है। प्रायः कवियों ने सभी काव्य गुणों और शब्द-शक्तियों का प्रयोग किया है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है कि “आदर्श और ययार्थ अथवा चेतन और अवचेतन के इंद्र के आधार पर मानव जीवन की समग्रता का जैसा पूर्ण चित्र रामकथा के समर्थ सांचे में ढला है, वैसा अन्यत्र नहीं ।”

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