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रामगुप्त का चरित्र चित्रण
रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी नाटक का एक प्रमुख पात्र है। वह एक ऐसा पात्र है जो अपने छल कपट से अपने ही भाई, अपनी पत्नी यहाँ तक कि अपने देश को भी नुकसान पहुँचाने की चेष्टा करता है। वह एक विलासी, मद्यप, कायर व क्लीव राजा है, जिसकी राजकाज में कोई रुचि नहीं है। इस पात्र को नाटक का खल अथवा दुष्ट पात्र कहा जा सकता है।
उसकी चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-
1. कायर एवं भीरु
रामगुप्त एक कायर एवं भीरु राजा है। युद्ध में शत्रु का साहसपूर्वक सामना करने की उसमें क्षमता नहीं है। वह शकराज के अपमानपूर्ण संधि प्रस्ताव को निर्लज्जता से मान लेता है। मन्दाकिनी उसके बारे में ठीक ही कहती है
“जब वीरता भागने लगती है, तो उसके पैरों से राजनीतिक छल-छंद की धूल उड़ती है।”
बाहरी शत्रु के आक्रमण से भी अधिक वह ध्रुवस्वामिनी और चंद्रगुप्त से भयभीत है। उसे संदेह है कि ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त से प्रेम करती है। वह इसलिए शकराज के प्रस्ताव को मानने में एक ही चाल से भीतर और बाहर के सब शत्रु परास्त करने का अवसर समझ लेता है।
वह इतना भीरु है कि जब ध्रुवस्वामिनी आत्महत्या के लिए कृपाण निकालती है, तो वह अपनी हत्या के भय से काँप उठता है। वह डरकर ‘हत्या ! हत्या ! दौड़ो… दौड़ो !’ चिल्लाता हुआ भाग जाता है।
2. शंकाशील
रामगुप्त अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी के प्रति सदैव शंकाशील रहता है। वह ध्रुवस्वामिनी के साथ राक्षस विवाह करके उसे अपनी पत्नी तो बना लेता है, परंतु उसे हमेशा लगता है कि वह चंद्रगुप्त से प्रेम करती है। यही कारण है कि वह चंद्रगुप्त के प्रति उसके मनोभावों को जानने के लिए खड्गधारिणी को ध्रुवस्वामिनी की सेवा में लगाता है। वह कहता भी है-
“आह! ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोचकर) जो स्त्री दूसरे के शासन में रहकर प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है, उसमें एक गंभीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो… नहीं, जो चंद्रगुप्त से प्रेम करेगी, वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे ?”
3. निर्लज्ज
रामगुप्त एक निर्लज्ज पात्र हैं। लज्जा जैसा भाव उसके चरित्र में कहीं भी प्रदर्शित नहीं होता। हर जगह वह अपनी निर्लज्जता का ही प्रदर्शन करता है। वह हिजड़ों और बौनों से निर्लज्जतापूर्वक बातें करता है, अपनी ही पत्नी को दूसरे राजा को भेंट स्वरूप देने को तैयार हो जाता है। यही नहीं जब ध्रुवस्वामिनी उससे कहती हैं कि उसने सुख-दुख में उसका साथ निभाने की प्रतिज्ञा अग्नि के सामने की है, तब भी वह निर्लज्जतापूर्वक कहता है
“परंतु रामगुप्त ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा न की होगी। मैं तो उस दिन द्राक्षासव में डुबकी लगा रहा था। पुरोहित ने न जाने क्या-क्या पढ़ होगा। उन सब बातों का बोझ मेरे सिर पर ।” दिया होगा । उन सब बातों का बोझ मेरे सिर पर ।”
4. अदूरदर्शी एवं अविवेकी राजा
रामगुप्त महामंत्री शिखरस्वामी के छल से राजा बनने में तो कामयाब हो जाता है, परंतु वह एक अदूरदर्शी और अविवेकी राजा है। दूरदर्शिता और विवेक तो उसके चरित्र में दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि वह अपना शिविर एक ऐसे स्थान पर लगाता है जहाँ शत्रु आसानी से आकर उसे घेर सकता था। उसकी अदूरदर्शिता के चलते शकराज ऐसा करने में कामयाब भी हो जाता है।
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5. विलासी एवं कामुक
रामगुप्त एक विलासी एवं कामुक राजा है। वह दिन रात सुरा-सुन्दरियों के मायाजाल में उलझा रहता है। हिजड़ों और बीनों के साथ मसखरी करता है। शराब का प्याला हर समय उसके होठों पर विराजमान रहता है। बातें करते-करते ही जैसे उसकी मदिरा खत्म होती है वह दासी को संकेत करके मदिरा माँग लेता है-
“इस छोटी सी बात के लिए इतना बड़ा उपद्रव (दासी की ओर देखकर) मेरा तो कंठ सूखने लगा।”
इसी प्रकार वह अत्यंत कामुक भी है। वह ध्रुवस्वामिनी के सामने इस तथ्य को स्वीकार करता है कि वह नारी को अपनी विलासिता का साधन समझता है।
6. नारी के प्रति सम्मान भावना से रहित
निश्चय ही जो व्यक्ति विलासी व कामुक होता है उसमें नारी के प्रति सम्मान की भावना नहीं हुआ करती। इसका जीता-जागता उदाहरण स्वयं रामगुप्त है। रामगुप्त एक ऐसा पात्र है जो पर नारी का सम्मान करना तो दूर अपनी ही पत्नी का सम्मान नहीं करता। सदैव उसकी उपेक्षा करता है, उस पर शक करता है तथा उसका निरादर करता रहता है। नारी के प्रति उसकी असम्मान भावना की हद तो तब हो जाती है जब वह अपनी ही पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज के संधि प्रस्ताव की एवज में शकराज को उपहार में देने को तैयार हो जाता है और कहता है-
“तुम मेरी रानी नहीं नहीं, नहीं। जाओ तुमको जाना पडेगा। तुम उपहार की वस्तु हो। आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ।”
7. क्रूर एवं नृशंस
रामगुप्त एक क्रूर एवं नृशंस व्यक्ति भी है। शक-विजय के बाद वह शक-दुर्ग में पहुँच जाता है तथा विद्रोहियों को बंदी बनाकर अपना राज्य निष्कंटक बनाना चाहता है। वह चंद्रगुप्त और सामंतकुमारों को भी बंदी कर लेता है। यहाँ उसके नृशंस रूप के दर्शन होते हैं। वह अपना अधिकार जमाने के लिए निरीह कोमा और मिहिरदेव की निर्ममतापूर्वक हत्या करा देता है।
8. नीच एवं स्वार्थी
रामगुप्त अत्यंत नीच एवं स्वार्थी प्रवृत्ति का व्यक्ति है उसकी नीचता 1 एवं गिरे हुए चरित्र की पराकाष्ठा का बखान सामंतकुमार, पुरोहित तथा परिषद् तीनों ही करते हैं। एक सामंतकुमार कहता है-
“रामगुप्त जैसे राजपद को कलुषिक करने वाले के लिए मेरे हृदय में तनिक भी श्रद्धा नहीं।”
वह उसे ‘हिंसक, पाखंडी, क्षीव और क्लीव’ भी कहता है। पुरोहित भी उसके बारे में निर्णय देता है-
“रामगुप्त गौरव से नष्ट, आचरण से पतित और कर्मों से राज-किल्विषी क्लीव है। ऐसी अवस्था में रामगुप्त का ध्रुवस्वामिनी पर कोई अधिकार नहीं।”
परिषद् भी निर्णय देती है-
अनार्य, पतित और क्लीव रामगुप्त गुप्त साम्राज्य के पवित्र राज सिंहासन पर बैठने का नहीं।”
यह इतना नीच और स्वार्थी है कि अपने स्वार्थ के लिए वह अंत में छल से अपने भाई चंद्रगुप्त की हत्या करने का प्रयत्न करता है, किंतु स्वयं मारा जाता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बेशक रामगुप्त मगध का शासक और ध्रुवस्वामिनी का पति होने के नाते अपने चरित्र में कुछ विशिष्टता रखता है, परंतु अपने वास्तविक रूप में वह एक अत्यंत कायर, क्लीव, भीरू, निर्लज्ज, नीच, स्वार्थी, क्रूर, नृशंस, विलासी, कामुक व नारी के प्रति असम्मान की भावना रखने के कारण कहीं से भी ध्यान दिए जाने योग्य नहीं है । उसका चरित्र वस्तुत: एक घृणित दुष्ट पात्र का चरित्र है ।