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क्या आप भी ‘गजानन माधव मुक्तिबोध‘ की बहुप्रचलित कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है‘ की व्याख्या पढ़ना चाहते है ? यदि हां तो यह पोस्ट सिर्फ आपके लिए ही है। यहाँ आप इस कविता की सप्रसंग व्याख्या को आसनी से पढ़ और समझ सकते है। प्रत्येक पद्यांश के नीचे उसकी व्याख्या दी गई है।
‘सहर्ष स्वीकारा है’ सप्रसंग व्याख्या
ज़िंदगी में जो कुछ है,जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह,ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जागृत है अपलक है—
संवेदन तुम्हारा है!
प्रसंग :-
प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की ‘आरोह भाग-2’ में संकलित ‘सहर्ष स्वीकारा है’ नामक कविता से अवतरित किया गया है। इसके रचयिता ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’जी है जो नई कविता के बेजोड़ एक प्रमुख कवि माने जाते हैं। इस काव्यांश में सुख-दु:ख संघर्ष-अवसाद उठा-पटक आदि को सम्यक भाव से अंगीकार करने की प्रेरणा दी है। कवि ‘असीम सत्ता को संबोधन करते हुए कहते हैं जिनसे उन्हें जीवन में प्रेरणा प्राप्त हुई है।
व्याख्या :-
कवि असीम सत्ता को संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मेरी जिंदगी में जो सुख-दु:ख, राग-विराग ,आशा-निराशा, उठा-पटक आदि सम्मिलित है उनको मैंने खुशी-खुशी स्वीकार किया है। अथार्त मेरे जीवन में जो और जैसी भी परिस्थितियां आई हैं उनको मैंने प्रसंता से ग्रहण किया है। इस जीवन में जो कुछ भी मेरे पास है वह सब तुम्हें प्यारा लगने वाला है अथार्त कवि कहता है कि मैंने अपने जीवन में वही संचित किया है जो आपको प्रिय लग सके।
यह गर्व से युक्त गरीबी, यह जीवन के गंभीर अनुभव, विचार रूपी ऐश्वर्य,श्रेष्ठ विचार,दृढ़ता, आंतरिक सरिता सब कुछ मौलिक है। इसमें बनावटीपन या गढ़ा हुआ कुछ भी नहीं है। कभी कहते हैं कि हे प्रभु! इस जगत में प्रतिपल जो कुछ भी दिखाई देता है, जो कुछ भी प्रकाशित होता है और जो कुछ दिखाई नहीं देता अर्थात यह गोचर-अगोचर जगत में तुम्हारा ही संवेदन है। तुम्हारे ही सुख-दु:ख की अनुभूति है जो दृश्य रूप में प्रतिक्षण आँखों के समक्ष रहती है। यह गोचर और अगोचर जगत आप ही द्वारा निर्मित है।
विशेष:-
- कवि कहता है कि उसने अपने जीवन की हर परिस्थिति को खुशी-खुशी स्वीकारा है।
- काव्य की भाषा सरल, सहज, भावानुकूल खड़ी बोली है।
- अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
- तुकबंदी का प्रयोग हुआ है।
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12th Class Poem Vyakhya
जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है ?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुस्काता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता हुआ चेहरा है!
व्याख्या :-
कभी कहते हैं कि हे प्रभु! मैं नहीं जानता कि मेरा आपके साथ क्या रिश्ता-नाता है। मेरा आपसे क्या संबंध है अर्थात मेरा आपके साथ अटूट संबंध है। दिल में ना जाने कौन-सा प्रेम रूपी झरना मौजूद है। मैं इस झरने को जितनी बार भी खाली करता हूं यह बार-बार अपने आप उतना ही भर जाता है। कवि का अभिप्राय है कि आपके पति मेरे हृदय में प्रेम रूपी झरना प्रवाहित है। मैं बार-बार प्रयास करके इसे खाली करना चाहता हूं परंतु यह फिर भर जाता है।
मैं आपके प्रति अपने हार्दिक प्रेम को कम करना चाहता हूं लेकिन यह कम होने की अपेक्षा और बढ़ता ही जाता है। हे असीम सत्ता! मेरे भीतर हृदय में तो मीठे पानी का स्रोत या झरना मौजूद है और बाहर तुम विराजमान हो। कवि का कथन है कि जिस प्रकार रात्रि में मुस्कुराता हुआ,खिलता हुआ चंद्रमा धरा पर अपनी शीतल चांदनी बिखेरता रहता है ठीक है उसी प्रकार हे प्रभु! मेरी आत्मा पर आपका ही चेहरा यह स्वरूप चलता रहता है। मेरी आत्मा में सदैव आपका स्वरूप छाया रहता है।
Saharsh Swikara Hai Vyakhya
सचमुच मुझे दंड दो की भूलू मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण धुर्वी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मैं उसी में नहा लू मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है
नहीं सहा जाता है
ममता के बादल की मँडराती कोमलता—
भीतर पिराती है
कमजोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बर्दाशत नहीं होती है!!
व्याख्या :-
कवि असीम सत्ता को संबोधन करते हुए कहता है कि हे प्रभु! मैंने आपको भूल जाने की जो भूल की है उसके लिए आप मुझे वास्तव में दंडित करें। आपको भूल कर जो मैंने अपराध किया है उसका मुझे अवश्य दंड मिलना चाहिए। अतः आप मुझे दंड दें। जिस प्रकार धरा के दक्षिण ध्रुव पर अमावस्या के समान गहन अंधकार छाया रहता है ठीक वैसा ही अंधकार अपने शरीर और चेहरे पर झेलूं और मैं उसी में डूब कर स्नान करना चाहता हूं क्योंकि आप से घिरे तथा ढके हुए रहने का यह सुंदर प्रकाश आप मुझसे सहन नहीं होता।
कवि का कहना हे प्रभु! आपसे ढके हुए रहने का यह रमणीय प्रकाश मुझसे और ज्यादा सहन नहीं होता इसलिए मैं अब अंधेरी अमावस्या में डूब जाना चाहता हूं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि जो ममता के बादल मेरे चारों ओर मंडराते रहते हैं अब इन ममता के बादलों की मंडराती कोमलता मेरे हृदय को पीड़ा देने लगी है। जिन ममता रूपी बादलों को देखकर मैं पहले आनंदित हो जाया करता था अब वही ममता रूपी बादल मुझे पीड़ादायक प्रतीत होते हैं। अब मुझमें और अधिक कष्ट सहने की शक्ति नहीं रही। अब तो मेरी आत्मा इतनी कमजोर और शक्ति हीन हो गई है।
मेरी छाती निरंतर दु:खों के कारण परेशान रहती है इसलिए वह होनी को देखकर भयभीत रहती है। भवितव्यता आने वाले समय में अवश्य ही घटित होने के कारण मेरे कमजोर और शक्तिहीन हृदय को डराती रहती है। कवि कहते हैं की अब तो स्थिति इतनी नाजुक हो गई है कि मुझे देखकर लोग सांत्वना देते हैं,सहानुभूति प्रकट करते हैं तथा दु:खों को सहलाने का प्रयास करते हैं लेकिन अब तो मन बहला देने वाली तथा दु:खों को सहला देने वाली आत्मीयता भी सहन नहीं होती। अपनापन भी अच्छा नहीं लगता।
रघुवीर सहाय कविता व्याख्या
सचमुच मुझे दंड दो कि हो जाऊँ
पाताली अंधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बादलों में
बिल्कुल मैं लापता
लापता कि वहाँ भी तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता-सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो जिंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
व्याख्या :-
कवि वशिष्ट सत्ता को संबोधन करते हुए कहते हैं — हे प्रभु! आप मुझे वास्तव में दंड दे जिससे मैं पाताल लोक की अंधेरी गुफाओं,बिलों और धुएं के काले बादलों के बीच मैं बिल्कुल गुम हो जाऊँ। मैं इन गुफाओं,बिलों और बादलों मैं इतना गुम हो जाऊं की कोई मुझे ढूंढ ना सके। फिर वहां तो आपका ही सहारा है। वहां भी आप की ही सत्ता है। कवि कहता है कि जीवन में जो कुछ भी मेरे पास है या मेरा संभव है या होने वाला है, यह सब कुछ तुम्हारे ही कारणों का चक्र है और तुम्हारे ही कार्यों का ऐश्वर्य है।मेरे संपूर्ण जीवन पर आपका ही अधिकार है। जो कुछ भी मेरे पास है वह सब कुछ आपकी ही देन है।
आपके कार्यों का ही परिणाम है। कवि का कथन है कि अब तो मेरी जिंदगी में जो कुछ राग-विराग,सुख-दु:ख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद आदि था और जो कुछ है वह सभी कुछ मैंने खुशी-खुशी स्वीकार किया है अर्थात मेरे जीवन में जो कुछ है जो था उसको मैंने निर्विवाद रूप में इसलिए स्वीकारा है क्योंकि जो कुछ भी मेरा है। मेरे जीवन में मेरे पास है वह सब तुम्हें प्यारा है। मेरे जीवन में जो हर्ष-विवाद, सुख-दु:ख,राग-विराग, आशा-निराशा आदि है वह सब तुम्हें प्रिय लगने वाला है। वह सब आपकी देन हैं जिसे मैंने खुश होकर अंगीकार किया है।