शतरंज के खिलाड़ी कहानी का सार
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी है। यह एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित राजनीतिक कहानी है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में उन अनेक कारणों में से एक विशिष्ट कारण की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जो भारत में पराधीनता की जड़ों को मजबूत करता था। यही विशिष्ट कारण था- शतरंज का खेल। आलोच्य कहानी में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि शतरंज की बिसात पर बैठे शतरंज के नशे में चूर खिलाड़ी किस प्रकार देश की स्वाधीनता को दांव पर लगा रहे थे।
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी अवध साम्राज्य के प्रसिद्ध नवाब वाजिद अलीशाह के शासनकाल की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है। उस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी। लेखक के अनुसार, उस समय लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी विलासिता में डूबे हुए थे। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीर को पैसे मिलते, तो वे रोटियों न लेकर अफीम खाते या मंदिरा पीते थे।।
ऐसे वातावरण में लखनऊ के मिर्जा सज्जाद अली और मीर रोशन अली जैसे रईसों का सारा समय यदि शतरंज के शह और मात में खर्च हो जाता था, तो कोई आश्चर्य नहीं था। एक बार वे दोनों शतरंज की बिसात पर बैठ जाते, हुक्का-पानी, खाना-पीना आदि सब कुछ वहीं विद्यमान रहता था। फिर भी घर के नौकर-चाकर तथा औरतें उनके हुक्म की तालीम करते-करते तंग आ जाते थे।
वे सभी इस खेल को मनहूस समझते और गली-मुहल्ले वालों से इसकी कड़ी निन्दा करते, परंतु मिर्जा और मीर पर इसका कोई असर नहीं था। वे अपनी मस्ती में मस्त थे। उनकी बिसात अक्सर मिर्जा सज्जाद के घर पर विछती थी। एक दिन मिर्जा की बेगम के सिर में दर्द हो गया। उसने नौकरानी के माध्यम से कहलवाया कि बेगम के सिर में दर्द है और वे (मिर्जा) उनके लिए दवाई ले आये, पर वे दोनों इस बात को टालते ही गए, क्योंकि उनका खेल बढ़िया चल रहा था।
मिर्जा साहब मीर साहब को मात देने ही वाले थे। इस कारण ये खेल से हटना नहीं चाहते थे, परंतु हार रहे मीर साहब ने जब बार-बार मिर्जा साहब से आग्रह किया तो मिर्जा उठकर जनानखाने में पहुँचे। बेगम बिगड़ने लगी तो मिर्जा साहब ने सारी बात मीर साहब के सिर डालते हुए कहा बड़ी मुश्किल से आया हूँ, आने ही नहीं देता था।
गुस्से में भरी बेगम ने मिर्जा के मना करने पर भी मीर साहब को बाहर ढूंढा और शतरंज के मोहरे गालियाँ देते हुए बाहर फेंक दिए। बाहर बरामदे में टहल रहे मीर साहब ने यह देखा तो वे चुपके से खिसक गए। उनके पीछे-पीछे दवाई लेने का बहाना करके मिज़ भी मीर साहब के घर पहुँच गए। अगले दिन से दोनों ने मीर साहब के घर शतरंज खेलने का निश्चय मिर्जा भी किया।
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सुबह हुई और मीर रोशन अती के घर में शतरंज की बिसात बिछाई गयी। मीर साहब की बेगम का उन दिनों किसी पर-पुरुष से प्रेम प्रसंग चल रहा था। वह नहीं चाहती थीं कि मीर साहब सारा दिन घर में रहें।
अतः उसने जल्दी ही विरोध करना आरम्भ कर दिया। घर के नौकर-चाकर भी तंगी महसूस करने लगे। वे भी मीर साहब की बेगम के साथ होकर उनका विरोध करने लगे। सारे मोहल्ले में इस अपमानजनक कृत्य की आलोचना होने लगी।
लोग कहने लगे, “अब खैरियत नहीं है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा। हाफिज है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।”
किन्तु मीर-मिर्जा इन सब बातों से बेपरवाह थे। जब ये सभी बातें बादशाह वाजिद अलीशाह के पास पहुँची तो उन्होंने एक दिन मीर साहब को बुलवाया। मीर साहब के मन में डर पैदा हुआ। उन दोनों ने अपने घर में शतरंज न खेलने का निर्णय लिया और फिर मीर साहब मिर्जा साहब को लेकर गोमती नदी के उस पार एक वीरान खण्डहर में जाकर शतरंज खेलने लगे। ये दोनों सुबह यहाँ आ जाते और शाम ढलने पर ही घर वापस लौटते।
एक दिन जब वे दोनों शतरंज की शह और मात में उलझे हुए तो उन्होंने देखा कि अंग्रेज फौज शहर पर हमला करने के लिए शहर की ओर बढ़ रही हैं, परंतु वे दोनों निश्चिन्त खेलते रहे। शाम को उन्होंने देखा कि अंग्रेजी फौज वाजिद अलीशाह को गिरफ्तार मग्न कर वापस लौट रही है फिर भी वे शह और मात में थे।
अचानक दोनों में खेल की जीत-हार को लेकर विवाद हो गया। उनकी तू-तू, मैं-मैं में अब गाम्भीर्य था। ‘दोनों एक-दूसरे को गालियाँ बकने लगे। एक-दूसरे को नीच कहने लगे। विवाद मार-धाड़ पर उतर आया।
कहानीकार के शब्दों में :-
“दोनों ने कमर से तलवारें निकाल ली। नवाबी जमाना था, सभी तलवार पेशकब्ज, कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था – बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें, पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों ने पैंतरें बदले, तलवारें चमकीं, छपाछप आवाजें आयीं। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़प कर जानें दे दीं।”
खिलाड़ी कहीं खो गए पर बिसात बिछी रह गयी। मोहरे बिखर गए। लेखक व्यंग्य करते कहानी का अंत करते हुए लिखता है,
“अपने बादशाह के लिए जिनकी आंखों से एक बूँद न निकली, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए।”