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श्यामाचरण दुबे का जीवन परिचय
श्री श्यामाचरण दुबे का नाम सामाजिक वैज्ञानिकों में बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने भारतीय समाज की बदलती परिस्थितियों पर जमकर लिखा है। ऐसे गंभीर चिंतक का जन्म सन् 1922 में मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने आरंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में प्राप्त की।
बाद में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव-विज्ञान में पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त की। वे भारत के अग्रणी समाज-वैज्ञानिक रहे हैं। उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया तथा अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर भी सफलतापूर्वक कार्य किया। इसके साथ ही आजीवन लेखन कार्य भी किया। ऐसे महान लेखक का निधन सन् 1996 में हुआ।
श्यामाचरण दुबे संक्षिप्त जीवनी
नाम | श्यामाचरण दुबे |
जन्म | 1922 ई. |
जन्म स्थान | बुंदेलखंड ( मध्य प्रदेश ) |
शिक्षा | पीएचडी |
कार्यक्षेत्र | समाज वैज्ञानिक |
निधन | 1996 ई. |
जीवांत आयु | 73 वर्ष |
प्रमुख रचनाएँ | मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, |
पुरस्कार | ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी |
प्रमुख रचनाएँ
डॉ० श्यामाचरण दुबे ने अनेक ग्रंथों की रचना की है। उनमें से हिंदी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है- “मानव और संस्कृति’, ‘परंपरा और इतिहास बोध’, ‘संस्कृति तथा शिक्षा’, ‘समाज और भविष्य’, ‘भारतीय ग्राम’, ‘संक्रमण की पीड़ा’, ‘विकास का समाज-शास्त्र’, ‘समय और संस्कृति’ आदि।
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साहित्यिक विशेषताएँ
डॉ० श्यामाचरण दुबे जहाँ महान् समाजशास्त्री हैं, वहीं साहित्यकार भी हैं। उन्होंने आजीवन अध्यापन कार्य किया। उन्होंने अपने युग के समाज, जीवन और संस्कृति का गहन अध्ययन किया है। उनसे संबंधित ज्वलंत विषयों पर उनके विश्लेषण और स्थापनाएं उल्लेखनीय हैं। डॉ० दुबे ने आज के बदलते जीवन मूल्यों में आ रही गिरावट पर चिंता व्यक्त की है। ये परिवर्तन के विरोधी नहीं है, अपितु गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों का उन्हें बेहद दुःख है।
आज के भौतिकतावादी और प्रतियोगिता की अंधी दौड़ के युग में ये चाहते हैं कि हमें विकास तो करना चाहिए, किन्तु अपनी सभ्यता और संस्कृति का मूल्य चुकाकर नहीं। व्यक्तिगत विकास व सुख के साथ-साथ परोपकार की भावना को नहीं भूलना चाहिए। ऐसा उनका स्पष्ट मत है।
भारत की जन-जातियों और ग्रामीण समुदायों पर केंद्रित उनके लेखों ने बृहत समुदाय का ध्यान आकृष्ट किया है। वे जानते है कि भारतवर्ष की संस्कृति की जड़ें यहाँ के ग्रामीण जीवन में ही धंसी हुई हैं। यदि हम अपनी संस्कृति के वास्तविक रूप को देखना चाहते हैं तो हमें ग्रामीण जीवन-शैली को समझना होगा।
भाषा-शैली
श्री श्यामाचरण दुबे के साहित्य की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज एवं स्वाभाविक है। इनकी भाषा को समझने के लिए हमें अत्यंत गूढ़ भाषाई ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। श्री दुबे जी की जटिल विचारों को तार्किक विश्लेषण के साथ अत्यंत सहज भाषा में अभिव्यक्त करने में माहिर थे। उनके साहित्य की भाषा में वाक्य गठन बहुत ही सहज एवं सुस्पष्ट है। उनकी रचनाओं में मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग बहुत ही सटीक ढंग से हुआ है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्यामाचरण दुबे जी की भाषा के ऊपर काफी मज़बूत पकड़ थी।