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सूफी काव्य की प्रवृत्तियाँ
सूफी काव्य की प्रवृत्तियाँ / Sufi Kavya Ki Parvatiya : सूफी काव्य परंपरा-‘सूफी’ फारसी भाषा का शब्द है। चूंकि सूफ का अर्थ ऊन होता है, अतः सूफी का अर्थ हुआ-वे विरक्त मुसलमान संत, जो ऊनी वस्त्र पहनते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति “सफ’ (प्रथम पंक्ति), सफा (पवित्र) और सुफ्फा (चबूतरा) आदि शब्दों से भी मानी जाती है। कहा जाता है कि ये संत मक्का मदीना के सामने चबूतरे पर बैठकर अल्लाह का स्मरण करते थे।
इन सूफियों में से जिन कवियों ने हिन्दी काव्य की रचना की, सूफी कवि कहलाए। सूफी कवियों में मुल्ला दाउद (चंदायन),मंझन (मधु-मालती), कुतुबुन (मृगावती), कासिमशाह, उस्मान, शेखनबी आदि हैं। मलिक मुहम्मद जायसी इस काव्य के प्रतिनिधि कवि है, तथा उनका पद्मावत इस काव्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। सूफी कवियों के काव्य के आधार पर इस काव्यधारा में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।
काव्य रूप
काव्य रूप की दृष्टि से सूफी काव्य अधिकांश प्रबंध काव्य (महाकाव्य, काव्य) ही है। परंतु कुछ एक मुक्तक भी इस काव्य में देखने को मिलते हैं जो गेय हैं। पद्मावत इस युग का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है, जिसे हिन्दी साहित्य का पहला महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है। इस युग के अन्य प्रबंध काव्यों में चंदायन, मधुमालती, मृगावती, स्वप्नावती, मुग्धावती, चित्रावली आदि है। इनकी प्रबंध रचनाएँ एक ही सांचे में ढली हुई हैं, जिसमें यांत्रिकता अधिक है, मौलिकता कम। इन कवियों ने बनी-बनाई काव्य-रूढ़ियों के आधार पर ही अपना काव्य रचा है। इनके काव्य में कभी-कभी तो कोरा वस्तु परिगणन कर दिया गया है, जिससे काव्य में नीरसता तो आई ही है, कथा प्रवाह में भी बाधा उत्पन्न हुई है। इसके अलावा इस काल में जायसी व अन्य कवियों द्वारा लिखित गेय मुक्तक भी देखे जा सकते हैं।
चरित्र-चित्रण
इन प्रेम काव्यों में नायक और नायिकाओं के जीवन के उतने अंशों को ग्रहण किया गया है, जिनसे प्रेम के विविध प्रसंगों और व्यापारों की अभिव्यक्ति संभव थी। इन काव्यों के नायक और नायिका एक पूर्वनिश्चित सांचे में ढले हुए हैं, इससे उनका चरित्र जीवन की विविधता प्रस्तुत नहीं कर पाता। ये कवि इन पात्रों के चित्रण में कल्पना का रंग भरने में भी असफल रहे हैं। वैसे इनका चरित्र चित्रण भारतीय वातावरण और परंपराओं के अनुकूल है। इन्होंने यदि कहीं विदेशी (चीन, बलख, रूस) पात्रों का भी चित्रण किया है तो उन्हें भी भारतीयता का ही रूप प्रदान कर दिया है।
वस्तु-वर्णन
वस्तु वर्णन से अभिप्राय प्रकृति के विभिन्न उपादानों तथा पात्रों के विभिन्न क्रियाकलापों से होता है। इन समस्त कवियों ने अपने काव्य में वस्तु वर्णन की परिपाटी का पालन करते हुए, वन, नदी, पर्वत, सूर्य, चाँद, सितारे आदि के वर्णन के साथ-साथ नगर गाँव, रूप-सज्जा, सेना का प्रस्थान, जल-केलि आदि का भी सुंदर वर्णन किया है।
प्रेम व्यंजना
सूफी कवियों का मुख्य प्रतिपाद्य प्रेम है और प्रेम के वियोग पक्ष को इन्होंने अत्यधिक महत्त्व दिया है। यही कारण है कि इनका जितना ध्यान प्रेमी और प्रेमिकाओं के वियोग, उसकी अवधि में झेले जाने वाले कष्टों तथा उनका अंत करने के लिए किए गए विविध प्रयत्नों का वर्णन करने में गया है, उतना उनके अंतिम मिलन पर नहीं। विरह-अवस्था का वर्णन करते हुए उन्होंने बारहमासा के वर्णन को बहुत महत्त्व दिया है। संयोग वर्णन प्रायः स्वाभाविक बन पड़ा है। यों कहीं-कहीं वह अश्लील और रहस्यात्मक भी हो गया है।
हिन्दू संस्कृति का उद्घाटन
सूफी कवियों ने अपने काव्य में हिन्दू परिवार की कहानियों में लोक पक्ष के व्यवाहारिक और वास्तविक रूप को उजागर कर हिन्दू और मुसलमान दोनों का मन मोह लिया। इन कवियों ने अपने काव्य में हिन्दू लोक-जीवन से संबंधित अनेक भव्य झांकियाँ प्रस्तुत की हैं। इन कवियों ने हिन्दुओं के विभिन्न पर्व-त्यौहारों-होली-दीवाली, विभिन्न परंपराओं, ग्रामीण जीवन आदि का दिल खोलकर चित्रण किया है। भारतीय ग्रामीण जीवन में पनघट के दृश्य का विशेष महत्त्व है, उसी का चित्रण करते हुए जायसी कहते हैं- “पानी भरै आवहि पनिहारी। रूप सरूप पद्मिनी नारी ।
पद्मगन्ध विह अंग बसाहि ।
भंवर लागी तिन्ह संगबसाहीं।।
नारी का महत्त्व
सूफी कवियों ने प्रेम का प्रमुख केंद्र नारी पात्र को माना है। उनके अनुसार वह परमात्मा का प्रतीक है। नारी एक ऐसा नूर है, जिसके बिना विश्व सूना है। परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में- “सूफी कवियों ने नारी को यहाँ अपनी प्रेम-साधना के साध्य-रूप में स्वीकार किया है, जिसके कारण वह इनके किसी प्रेमी के लौकिक-जीवन की निरी भोग्य वस्तु मात्र नहीं रह जाती। वह उस प्रकार की साधन-सामग्री भी नहीं कहला सकती है, जिसमें उसे बौद्ध सहजयानियों ने ‘मुद्रा’ नाम देकर सहज साधना के लिए अपनाया था। वह उन साधकों की दृष्टि में स्वयं एक सिद्धि बनकर आती है और इसी कारण इन प्रेमाख्यानों में उसे प्रायः अलौकिक गुणों से युक्त भी बतलाया जाता है।”
गुरु का महत्त्व
संत कवियों की भांति सूफी कवियों ने भी गुरु के महत्त्व को स्वीकार किया है। उनकी मान्यता है कि जिस साधक ने सच्चे गुरु को प्राप्त कर लिया, उसे ही की प्राप्ति होती है। ‘पद्मावत’ में हीरामन तोता गुरु का ही प्रतीक है। सुख और आनन्द
“गुरु सुआ जेई पंथ दिखावा।
बिन गुरु जगत् को निर्गुण पावा।।”
भाषा-शैली
सूफी प्रेमाख्यान लोक प्रचलित अवधी भाषा में लिखे गए हैं। उस्मान और नसीर ने भोजपुरी तथा नूर मुहम्मद ने ब्रजभाषा का भी प्रयोग किया है। दोहा-चौपाई शैली तो इन प्रेमाख्यानों का आधार है ही, कभी कभार दोहा सोरठा, सवैया व बरवै छंद भी प्रयुक्त हुए हैं। समासोक्ति सूफियों का प्रिय अलंकार है। उपमा, उठप्रेक्षा, रूपक और अतिशयोक्ति अलंकार भी सम्यक् रूप से प्रयुक्त हुए हैं। रहस्यात्मकता का आभास देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। ‘तन चितउर मन राजा कीन्हा’, ‘रवि ससि नखत दिपत ओहि जोती’ तथा वस्तुओं, स्थलों एवं पात्रों के सांकेतिक नाम भावात्मक रहस्यवाद की सृष्टि करते हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर डॉ. शिव कुमार शर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सूफी रचनाओं में जहाँ एक ओर लोकरंजन है, वहाँ उनमें लोकमंगल का भी विधान है। जहाँ इन रचनाओं द्वारा धर्म संप्रदाय और वर्गगत भेदभावों को हटाने का प्रयत्न किया है, वहाँ प्रेम के सार्वभौम स्वरूप का भी प्रतिपादन किया गया है।