दोस्तों यदि आप कक्षा 11 में है तो निश्चित तौर पर अपने अपू के साथ ढाई साल नामक संस्मरण पढ़ा ही होगा। आज के इस पोस्ट में हम इसी संस्मरण का सार (Summary) को पढ़ने जा रहें है। आपकी परीक्षा में हर बार किसी भी कृति के सार और उद्देश्य पूछे जाते है। इसीलिए आपको इस लेख को अच्छे से पढ़ लेना चाहिए।
अपू के साथ ढाई साल का सार
अपू के साथ ढाई साल श्री सत्यजित राय की प्रसिद्ध रचना है। इस संस्मरण में उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध फिल्म, ‘पथेर पांचाली‘ से जुड़े अपने अनुभवों को सुंदर शब्दों में पिरोया है। इस पाठ में फिल्म के निर्माण से संबंधित अनेक बातों एवं काइयों का बोध होता है।
इस संस्मरण का सार इस प्रकार है:-
पाठ के आरंभ में बताया गया है कि ‘अपू’ के रोल के लिए अभिनेता की तलाश किस प्रकार की गई थी। ‘पथेर पांचाली’ नामक फिल्म की शूटिंग लगभग ढाई वर्ष तक चली थी। लेखक एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करता था। इसलिए समय और धन को कठिनाई बराबर बनी रहती थी शूटिंग से पहले अपू की भूमिका निभाने के लिए एक लड़के की तलाश थी। उसके लिए विज्ञापन दिए गए और रासबिहारी एवेन्यू में एक कमरा किराए पर लिया गया। विज्ञापन को पढ़कर अनेक लड़के आए। एक व्यक्ति तो अपनी लड़की के बाल कटवाकर उसे लड़का बनाकर इंटरव्यू दिलाने के लिए ले आया था। अंततः लेखक की पत्नी की निगाह पड़ोस के एक लड़के पर पड़ी जो अपू की भूमिका निभाने के लिए चुन लिया गया। उसका नाम सुदीर बनर्जी था।
फिल्म में एक दृश्य रेलगाड़ी से संबंधित था। इसलिए फिल्म निर्देशक अपू, दुर्गा और अन्य कलाकारों को कलकत्ता (कोलकाता) से लगभग 70 मील दूर पालसिट गाँव में ले गया था। वहाँ काशफूलों से भरा मैदान था। उस मैदान में शूटिंग शुरू की गई थी। दृश्य लंबा था। आधा दृश्य ही पूरा हो सका था। जगले सप्ताह जब दृश्य पूरा करने के लिए वहाँ पहुँचे तो पशु काश के फूलों के पौधों को खा चुके थे। इसलिए शेष आधा दृश्य अगले वर्ष पूरा किया गया। इसी प्रकार रेलगाड़ी के दृश्यों को फिल्माने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। शॉटस इतने अधिक थे कि एक नहीं तीन-तीन गाड़ियों का प्रयोग करना पड़ा था। कलाकार दल का एक सदस्य पहले ही गाड़ी के इंजन में सवार हो जाता था और बॉयलर में कोयला डाल देता था ताकि गाड़ी से धुआँ निकलता हुआ दिखाया जा सके। शॉटस इस कुशलता से लिए गए थे कि फिल्म में तीन-तीन गाड़ियों के प्रयोग करने पर उन्हें कोई पहचान न सका।
लेखक ने धन के अभाव के अनुभव की और संकेत करते हुए कहा कि फिल्म में अपू और दुर्गा के लिए एक पालतू कुत्ते की आवश्यकता थी। किंतु गाँव से ही एक साधारण कुत्ते को पकड़कर लाया गया। एक दृश्य में कुत्ते को मात खाते हुए दिखाया जाना था किंतु संख्या हो जाने के कारण ऐसा न हो सका। अतः शॉट नहीं हो सका और पैसे भी समाप्त हो गए थे। छः मास के बाद पुनः लीटे तो वह कुत्ता मर चुका था। उसके स्थान पर कोई उसी रंग का अन्य कुत्ता लाया गया। गनीमत यह रही कि दर्शक उन कुत्तों के अंतर को पहचान न सके। पात्रों या कलाकारों संबंधी कठिनाइयों का वर्णन करते हुए लेखक ने बताया है कि फिल्म में एक मिठाई बेचने वाला श्रीनिवास नाम का व्यक्ति था। किंतु वह फिल्म की आधी शूटिंग में मर गया था। फिर समस्या खड़ी हुई कि उसके स्थान पर किसे लिया जाए।
एक आदमी मिल भी गया किंतु उसका चेहरा अलग था। जगले दृश्य में उसके चेहरे के स्थान पर उसकी पीठ दिखाई गई। तब कहीं काम चल सका। दर्शक इस नए आदमी को भी नहीं पहचान सके।
पैसे के अभाव में ही वर्षा का दृश्य फिल्माने में भी कठिनाई आई थी। बरसात के दिन आए पर पैसे नहीं थे। शूटिंग बंद पड़ी रही। जब पैसों का प्रबंध हुआ तो अक्तूबर का महीना आ गया। उन्हें फिर भी आशा बनी हुई थी कि शायद वर्षा आ जाए। अंततः एक दिन वर्षा आ ही गई। शरद ऋतु में भी बादल छा गए। खूब जम कर वर्षा हुई। वर्षों का सारा दृश्य फिल्मा लिया गया। अपू और दुर्गा का वर्षा में भीगने का दृश्य था। शरद ऋतु में बारिश में पूरी तरह भीगने पर दोनों काँपने लगे थे। उन्हें दूध में थोड़ी ब्रांडी डालकर पिलाई गई थी तब कहीं उनके शरीर में गरमाहट आ सकी थी।
बोडाल गाँव में बहुत बार जाकर रहना पड़ा था। इसलिए वहाँ के लोगों से परिचय हो गया था। वहाँ एक सुबोध नामक वृद्ध से परिचय हुजा था। आरंभ में उन्हें सिनेमा वालों का गाँव में आना अच्छा नहीं लगा था। ये जोर से चिल्लाते, ‘फिल्म वाले आए हैं, मारो उनको लाठियों से, बाद में पता चला कि वह मानसिक बीमारी से पीड़ित था। किंतु बाद में वही सुबोध दा फिल्म वालों को बुला-बुला कर रुजवेल्ट, चर्चिल, हिटलर, अब्दुल गफ्फार खान के किस्से सुनाने लगे थे। उसके अनुसार वे सभी पाजी थे और उनके दुश्मन थे।
पड़ोस में रहने वाला गाँव का धोबी भी उन्हें बहुत परेशान करता था। वह भी पागल था। कभी लंबे-लंबे भाषण देता तो कभी-कभी जोर-जोर से बोलने लगता था, जिससे साउंड के काम में बाधा पड़ती थी। किंतु धोबी के रिश्तेदारों ने उसे समझाकर लेखक की सहायता भी की थी।
अपू के साथ ढाई साल संस्मण का उद्देश्य
‘अपू के साथ ढाई साल’ नामक संस्मरण के रचयिता सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता सत्यजित राय हैं। इस संस्मरण में उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध फिल्म ‘पथेर पांचाली’ से जुड़े अपने अनुभवों को अत्यन्त सुन्दर शब्दों में पिरोया है। इस संस्मरण का प्रमुख उद्देश्य जहाँ फिल्म के निर्माण में आई कठिनाइयों एवं वाचाओं का उल्लेख करना है, वहीं नए फिल्म निर्माता के साहस, धैर्य और कलात्मक दृष्टिकोण को भी अभिव्यक्त किया गया है। श्री सत्यजित राय भारत के फिल्म उद्योग के महान व्यक्तित्व के रूप में उभरकर हमारे सामने आए हैं।
इस संस्मरण में बाल कलाकारों को लेकर और उनकी बढ़ती उम्र के कारण उनके शरीर में हुए परिवर्तन के प्रति चिंता को भी उजागर किया गया है। उस समय फिल्म बनाने की तकनीक सम्बन्धी भी अनेक प्रश्नों को उठाया जाना या बताया जाना संस्मरण का प्रमुख लक्ष्य है। उस समय फिल्म निर्देशक प्राकृतिक साधनों पर काफी निर्भर रहते थे। श्री सत्यजित राय जहाँ फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, वहाँ मैदान में बहुत जंगली फूल खिले हुए थे, किन्तु एक रात उन्हें जब पशु घर गए तो उन्हें फिल्म के निर्माण को लगभग एक वर्ष के लिए स्थगित करना पड़ा था।