Contents
- अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत
- 1. अरस्तू पूर्व स्थिति
- 2. अनुकरण शब्द का विवेचन
- 3. अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त
- (i) बूचर के अनुसार
- (ii) प्रो. गिल्बर्ट मरे के अनुसार
- (iii) एटकिन्स के अनुसार
- (iv) पाट्स के अनुसार
- (v) स्कॉट जेम्स के अनुसार
- 4. कला प्रकृति का अनुकरण
- 5. काव्य और इतिहास
- 6. त्रासदी संबंधी विवेचन
- 7. अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त का मूल्यांकन
- 8. अरस्तू की देन
- Arastu Ka Anukaran Siddhant PDF
अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत
अरस्तू प्लेटो के प्रतिभाशाली शिष्य होने के साथ-साथ एक महान् चिन्तक भी थे। इसका प्रमुख कारण है कि उन्होंने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, उन्हें सभी परवती पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया। प्लेटो का शिष्य होते हुए भी अरस्तू ने प्लेटो के विचारों का खंडन करके अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया। अरस्तू के पिता राजवैद्य थे, उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र भी इसी व्यवसाय को अपनाए। लेकिन पिता की शीघ्र मृत्यु हो जाने के कारण अरस्तू वैद्य न बन सके। प्लेटो से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने गंभीर अध्ययन किया।
1. अरस्तू पूर्व स्थिति
यूँ तो अनुकरण मानव मात्र की मनोवृत्ति है। मानव जीवन के विकास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य की इसी मनोवृत्ति के कारण प्लेटो ने उदार कला और उपयोगी कला की विशेषता अनुकरण वृत्ति में स्वीकार की। प्लेटो से पूर्व यूनान में साहित्य को उदार कलाओं में स्थान प्राप्त नहीं था। उस समय व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, संगीत, ज्योतिष आदि उदार कलाएँ मानी जाती थीं। इनमें साहित्य का कहीं उल्लेख नहीं था। प्लेटो ने ही साहित्य को सर्वप्रथम उदार कलाओं में स्थान दिया।
2. अनुकरण शब्द का विवेचन
यूनानी भाषा में अनुकरण का मूल शब्द है ‘मिमेसिस‘। अंग्रेजी में इसका रूपान्तरण था Imitation बाद में हिन्दी में उसका अर्थ ‘अनुकरण’ हुआ। आलोचना जगत् में आज अनुकरण का कोई अधिक महत्त्व नहीं रहा, क्योंकि यह सिद्धान्त सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। फिर भी इसे महत्त्वपूर्ण माना गया है।
कारण यह है कि यूनानी समीक्षा जगत् में यह पहला सिद्धान्त है जो काव्य में प्रकृति और कला के तत्त्वों पर प्रकाश डालता है। मिमेसिस शब्द का सबसे पहले प्रयोग होमर की रचना ‘हिम टू अपोलो’ में प्राप्त होता है। इसमें डेलास की बालाएं, भूतकाल की स्त्रियों और पुरुषों का अनुकरण करती हुई स्थिति को बताती हैं। प्लेटो ने स्पष्ट कहा था कि लाख कोशिश करने पर भी बढ़ई वैसा पलंग नहीं बना सकता जैसा आदर्श पलंग होता है। उसका बनाया हुआ पलंग नकल की नकल मात्र होता है। इसलिए अनुकरणात्मक कला सत्य से दुगुनी दूरी पर होती है।
3. अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त
अरस्तू ने तो अनुकरण शब्द के मूल अर्थ को ही बदल दिया। प्लेटो से पूर्व और यूनानी विचारक अनुकरण का अर्थ करते थे-‘हू-बहू- नकल। यूनानी साहित्य में जो मिमेसिस शब्द का प्रयोग किया जाता था, उसके लिए अंग्रेजी में उसका अर्थ Imitation लिया गया। प्लेटो स्वयं कहते हैं- “विभिन्न कलाकार अपने-अपने माध्यम उपकरणों के अनुसार भौतिक जीवन का अनुकरण करते हैं।
चित्रकार रूप-रंग के द्वारा, अभिनेता वेशभूषा और अन्य चेष्टा तथा दाणी के द्वारा और कवि भाषा के द्वारा।” लेकिन अरस्तू ने इस अनुकरण को पूर्णतः बदल दिया और कहा, “अनुकरण पूर्णतः सृजन की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा कवि जीवन संबंधी पटना का चयन करते समय यथार्थ और वास्तविक वस्तु में से किसी अभिनव वस्तु का निर्माण करता है। “
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अन्यत्र अरस्तू ने कला को प्रकृति की अनुकृति माना है अरस्तू के कला संबंधी विचारों की परवर्ती आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से व्याख्या की-
(i) बूचर के अनुसार
“अनुकरण शब्द का अर्थ सादृश्य-विधान अथवा मूल का पुनरुत्पादन सांकेतिक उल्लेखन नहीं होता है। कलाकृति मूल वस्तु का पुनरुत्पादन, जैसा वह होता है वैसा नहीं, वरन् जैसा वह इन्द्रियों को प्रतीत होता है वैसा करती है।”
यूनान के एक अन्य आलोचक अरिस्टोफेनिस ने भी अनुकरण का एक आवश्यक गुण माना। सत्य तो यह है कि होमर के बाद के अनेक आलोचक मिमेसिस से परिचित थे। प्राचीन यूनान में कला का विवेचन नैतिक दृष्टि से होने लगा था। कवि को सर्वश्रेष्ठ नीतिकार स्वीकार किया जाता था। प्लेटो से पूर्व होमर समाज में इसलिए आदरणीय थे, क्योंकि उन्होंने काव्य में जीवन के सत्य स्वसार का प्रतिरूप प्रस्तुत किया।
अत: प्लेटो से पूर्व कला को अनुकृति माना जाता था। प्लेटो गणितज्ञ थे और उन पर उपरोक्त विचारों का प्रभाव पड़ा। परन्तु प्लेटो ने कला को अनुकृति की अनुकृति कहा। उसके लिए रखा का जादर्श पहले उपस्थित होता था, रेखा बाद में जन्म लेती है। अथक परिश्रम करने पर भी आदर्श रेखा नहीं बन सकती। अनुकरण अधूरा ही रहता है। उन्होंने उदाहरण दिया कि एक मनुष्य गुफा की तरफ मुख किए बैठा है, उसके पीछे सारा जगत् क्रियाशील है। पर वह अनभिज्ञ है।
वह अपन सामने वाली छाया को ही सत्य मानकर वास्तविक जगत् समझता है। इसी तरह एक बढ़ई जो भी भौतिक पदार्थ बनाता है उसका आदर्श रूप पहले ही उसके मस्तिष्क में होता है। भौतिक पदार्थ उस विचार की अनुकृति होती है। आदर्श रूप कभी नहीं बन सकता। कला उप अनुकृति की अनुकृति है। यदि परमात्मा है तो ब्रह्माण्ड उसकी अनुकृति है, यदि पदार्थ है तो उनकी प्रतिछायाएँ अनुकृतियाँ हैं और यदि मानवकृत शिल्प वस्तुएँ हैं तो उनके चित्र अनुकृतियाँ हैं। सारांश यह है कि प्लेटो की दृष्टि में मूलादर्श ही महत्त्वपूर्ण है। कलाकार की कृति उससे दुगुनी दूरी पर होती है।
(ii) प्रो. गिल्बर्ट मरे के अनुसार
यदि यह देखकर आश्चर्य हो कि अरस्तू और उससे पहले प्लेटो को कला के संबंध में अनुकरण सिद्धान्त के प्रति इतना आग्रह क्यों या तो हमें इस तथ्य से सहायता मिल सकती है कि जन-साधारण की भाषा में कला के लिए रचना शब्द का प्रयोग होता था, जबकि स्पष्टतः यह प्रकृत अर्थ में रचना नहीं थी। ‘ट्राय पतन’ के कर्त्ता या रचयिता ने वास्तविक ट्राय पतन की रचना नहीं की थी। उसने तो अनुकृत द्राय पतन की रचना की थी। किन्तु अनुकरण का अर्थ सर्जना का अभाव नहीं था।
(iii) एटकिन्स के अनुसार
“अनुकरण ‘सृजनात्मक दर्शन की क्रिया’ अथवा ‘प्रायः पुनः सृजन’ का ही दूसरा नाम है।”
(iv) पाट्स के अनुसार
“अपने पूर्ण अर्थ में अनुकरण का आशय है, ऐसे प्रभाव का उत्पादन जो किसी स्थिति, अनुभूति अथवा व्यक्ति के शुद्ध प्रकृत रूप से उत्पन्न होता है।…. अनुकरण का अर्थ है। आत्माभिव्यंजन से भिन्न, जीवन का पुनः सृजन ।”
(v) स्कॉट जेम्स के अनुसार
“अरस्तू के काव्यशास्त्र में अनुकरण से अभिप्राय है साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन, जिसे हम अपनी भाषा में जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण कह सकते हैं।” इन व्याख्याओं की ओर अधिक ध्यान न देकर हमें अरस्तू द्वारा कहे गए कथनों पर गंभीरतापूर्ण विचार करना होगा। अरस्तू काव्य-कला की प्रवृत्ति को अनुकरणात्मक मानते हैं। इसे वे कला का सर्वोच्च प्रकार बताते हैं, जो मानव जीवन के सारभौम तत्त्व की अभिव्यक्ति है।
4. कला प्रकृति का अनुकरण
अरस्तू ने कला को प्रकृति का अनुकरण माना। प्रकृति से अरस्तू का क्या अभिप्राय है यह स्पष्ट नहीं हो सका। उनका कथन था कि ‘मानवेत्तर प्रकृति का अनुकरण करना ही अनुकरणात्मक कला का काम नहीं।’ दूसरा कवि या कलाकार प्रकृति की गोचर वस्तुओं का नहीं, बल्कि सृजना प्रक्रिया का अनुकरण करता है।
उनके अनुसार अनुकरण का विषय गोचर वस्तु न होकर बल्कि उनमें विद्यमान प्रकृति नियम है। ‘पोलिटिक्स’ में वे लिखते हैं प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उस वस्तु की प्रकृति कहते हैं। इसी जादर्श रूप को पाने के लिए प्रकृति निरंतर प्रयत्नशील है। लेकिन कुछ अवरोधक तत्त्वों के कारण प्रकृति यह नहीं कर पाती। कवि या कलाकार उन अवरोधक तत्त्वों को हटाकर प्रकृति के विकास का अनुकरण करता हुआ प्रकृति के अधूरेपन को पूरा करता है। वे लिखते हैं-
It is imitation in his work, that makes a poet a poet.”
इस प्रकार अनुकरण एक सृजन प्रक्रिया है ‘ऐम्बकामी’ ने इस संबंध में लिखा भी है कि अरस्तू का तर्क था कि यदि कविता प्रकृति का दर्पण होती तो यह हमें उससे कुछ अधिक न दे सकती जो हमें प्रकृति देती है। पर तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं क्योंकि वह हमें वह दे सकती है जो प्रकृति नहीं दे सकती।
अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि अनुकरण का अर्थ हू-बहू-नकल नहीं है। लेकिन कवि अपनी कन्पनाशीलता, अनुभूति प्रवणता, संवेदनशीलता द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाता है। पोयटिक्स (Poetics) में अरस्तू कहता है कि कवि या कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं का अनुकरण करता है-
(क) जैसी थी या हैं।
(ख) जैसी वे कही या समझी जाती हैं।
(ग) जैसी वे होनी चाहिए।
अर्थात् अरस्तु काव्य का विषय प्रकृति के प्रतीपमान संभाव्य और आदर्श रूप को मानते थे।
5. काव्य और इतिहास
काव्य और इतिहास के बीच भेद स्पष्ट करते हुए अरस्तू ने अनुकरण पर प्रकाश हाता है। अरस्तू कहते हैं-
(क) इतिहास गुजरी हुई घटनाओं का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है, लेकिन काव्य संभावित घटनाओं का वर्णन करता है।
(ख) काव्य में सामान्य की अभिव्यक्ति होती है और इतिहास में विशेष की।
(ग) पुनः इतिहास का सत्य अमूर्त और व्यापक होता है। परन्तु काव्य का सत्य अमूर्त और अव्यापक है।
(घ) मूर्त वस्तुपरक होता है पर अमूर्त अनुभूति तथा विचार पर आधारित रहता है। उपर्युक्त विवेचन से भी यही स्पष्ट होता है कि अरस्तू का अभिप्राय या भावपरक वर्णन’ न कि यथार्थ वस्तुपरक प्रत्यंकन।
6. त्रासदी संबंधी विवेचन
त्रासदी के बारे में अरस्तू ने लिखा है कि त्रासदी मनुष्यों की नहीं, बल्कि कार्य में संलग्न मानव और उसके जीवन का अनुकरण करती है। प्रत्येक त्रासदी के आवश्यक रूप से छः तत्त्व होते हैं जो समग्र रूप से त्रासदी के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। ये तत्व हैं-
(1) कथानक
(2) पदावली
(3) चरित्र
(4) दिपय विधान
(5) विचार तत्त्व
(6) संगीत ।
इनमें से चार तत्त्व अनुकरण के माध्यम हैं, एक अनुकरण की विधि और एक अनुकरण का विषय है। इसी सन्दर्भ में वे लिखते हैं कि काव्य में जिस मानव का चित्रण होता है यह सामान्य मानव से अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी या वैसे का वैसा भी अरस्तू ने केवल सामान्य से अच्छे या बुरे की चर्चा की है। अतः इससे भी स्पष्ट होता है कि वे काव्य में अंधानुकरण के विरुद्ध थे।
डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त के अनुसार- ‘अतः अनुकरण से उनका अभिप्राय वस्तु के उन्नत रूपातंरण कल्पनात्मक पुनः सृजन से था, जिसमें कुछ चीजें बढ़ाई जा सकती हैं और कुछ अनावश्यक बातें छोड़ी जा सकती हैं, जिसमें कलाकार अनुमिति के अनुसार अपनी वस्तु का चयन कर उसे कलात्मक ढंग से सजाता है।
अन्यत्र अरस्तू कहते हैं-‘‘डरावने जानवर को देखने से हमें भय होता है, लेकिन उसके अनुकरण को देखकर हमें आनन्द मिलता है।” इसका अर्थ है कि अनुकरण से वास्तविक जीवन में मय और दुःख की अनुभूति प्रदान करने वाली वस्तु इस प्रकार से प्रस्तुत की जाती है कि उसमें भय और दुःख के स्थान पर आनन्द की प्राप्ति होती है। अतः अनुकरण वस्तुपरक न होकर भावात्मक और कल्पनापरक होता है। अरस्तू के अनुकरण संबंधी सिद्धान्त से निम्नोक्त निष्कर्ष निकलते हैं-
(क) अनुकरण जीवन का कल्पनात्मक पुनः निर्माण है, पुनःसृजन है अतः कवि या कलाकार सर्जक है।
(ख) कलाकार की कल्पना एवं कुशलता का स्पर्श प्राप्त करके पुनः सृजन जीवन का आदर्श रूप प्रस्तुत करता है।
(ग) पुनः सृजन विश्वसनीय एवं सम्भावनीय होना चाहिए।
(घ) पुनः सृजन सुन्दर भी होना चाहिए।
(ड़) पुनः सृजन आनन्दानुभूति प्रदान करेगा।
(च) पुनः सृजन व्यक्ति अथवा वस्तु के माध्यम से सामान्य या सार्वभौम सत्य को प्रस्तुत करता है।
(छ) पुनः सृजन भावपरक होना चाहिए, तर्कसंगत नहीं, तभी पाठक प्रभावित हो पाएगा।
7. अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त का मूल्यांकन
यद्यपि अरस्तू ने अनुकरण सिद्धान्त को पूर्णतया मौलिक अर्ध प्रदान किया और काव्य को गौरवमय प्रतिष्ठा प्रदान की। फिर भी अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त पूर्णतया निर्दोष नहीं कहा जा सकता। पहली बात तो यह है कि मिमेसिस शब्द का अनुवाद Imitation गलत है। उस imitation का हिन्दी में ‘अनुवाद’ किया गया है।
अनुकरण शब्द में पुनः निर्माण, कल्पनात्मक पुनःसृजन अथवा भावात्मक पूर्ण सृजन समाहित नहीं होते। यद्यपि अरस्तू भाव तत्त्व और कल्पना तत्त्व दोनों की स त्ता को स्वीकार करते हैं फिर भी वे वस्तु को अधिक महत्त्व देते हैं। अरस्तू ने कलाकार की अन्तर्चेतना को महत्त्व नहीं दिया।
कलाकार अनेक परिस्थितियों से गुजरकर विभिन्न प्रभाव ग्रहण कर काव्य में उन्हें अभिव्यक्त करना चाहता है। यही कारण है कि अरस्तू के काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों में गीतिकाव्य के लिए कोई स्थान नहीं है। गीतिकाव्य में कवि की वैयक्तिक अनुभूति होती है, भावों का विशेष महत्त्व होता है जिसके कारण हृदयगत उद्वेग से गीत जन्म लेता है। अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त की सबसे बड़ी त्रुटि है यह कि उसमें हृदय को छू लेने वाली अनुभूतियों के लिए कोई स्थान नहीं।
कुछ विद्वानों के अनुसार अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त का क्रोचे के अभिव्यंजनावाद से विरोध है। कोच काव्य को सहजानुभूति मानते हैं। यह सहजानुभूति असंपृक्त रूप से अभिव्यंजना से सम्बद्ध है। क्रोचे यह भी मानते हैं कि काव्य का मूल रूप कवि के हृदय की अन्त स्थिति है। उसके रूप, रंग, लय, छंद में अनुकरण हो सकता है इससे तो अनुकरण सिद्धान्त अर्थहीन हो जाता है।
8. अरस्तू की देन
इन आलोचनाओं के बावजूद अनुकरण सिद्धान्त के महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। अनुकरण की महत्ता बरावर बनी रही है। प्लेटों से लेकर आज तक के काव्यशास्त्रियों ने अपने युगानुरूप अनुकरण के अर्थ को ग्रहण किया है। प्लेटो ने मूल सत्य के अनुकरण को अनुकरण माना तो अरस्तू ने अनुकरण का अर्थ ने ‘भावात्मक तथा कल्पनात्मक’ पुनः सृजन लगाया। नव जागरण के युग में जीवन के तथ्यात्मक रूप के चित्रप को ही अनुकरण माना गया है।
इसलिए इस समय की रचनाओं में मानव की वास्तविक समस्याओं संवेदन आदि का यथार्थ वर्णन होता रहा है। पुनः अनुकरण मानव की मूल प्रवृत्ति है। पर काव्य के उद्भव का कारण केवल अनुकरण की प्रवृत्ति ही नहीं इसका उद्देश्य तो आत्माभिव्यक्ति है। इस आत्माभिव्यक्ति में ही साहित्यकार आनन्दानुभूति प्राप्त करता है। स्वयं को अभिव्यक्त करके उसे आनन्द मिलता है और सहृदय भी इसी आनन्दानुभूति के लिए काव्य का अनुशीलन करता है। अतः अनुकरण सिद्धान्त की परिधि मले सकुचित हो, लेकिन काव्य में उसका महत्त्व निर्विवाद है।