आशा का अंत निबंध का सार
‘आशा का अन्त’ बालमुकुन्द गुप्त द्वारा विरचित एक राजनीतिक व्यंग्यात्मक निबन्ध है। इसमें भारत में विदेशी साम्राज्यवादी अंग्रेजों द्वारा स्थापित कुशासन से भारत दुर्दशा का सजीव चित्रण है। गुप्त जी ने छदम नाम शिवशम्भू से भारत में दूसरी बार आए लार्ड कर्जन को संबोधित करके यह चिट्ठा लिखा है। भारत की जनता को लाड कर्जन से कुछ आशाएँ थीं। उनका अन्त और शिवशम्भू का चेतावनी स्वरूप आक्रोश इस निबन्ध का वर्ण्य विषय है। लेखक लार्ड कर्जन को संबोधित करते हुए कहता है कि उसके पुनः भारत आगमन पर उसने अपना जी प्रथम भाषण दिया उसने भारतीय जनता की आशाओं का अंत कर दिया है। लेखक स्पष्ट करता है कि आशा एक ऐसा भाव है, जिसके सहारे पीड़ित व्यक्ति अपना संपूर्ण जीवन काट लेता है परंतु यदि किसी की आशा का ही अंत हो जाए तो उसका जीवन दूभर हो जाता है।
लार्ड कर्जन ने भारतीयों की आशाओं का अंत करके उनका जीना मुहाल कर दिया है। लार्ड कर्जन के पुनः भारत आगमन के पूर्व भारतीयों को आशा थी कि संभवतः लार्ड कर्जन के आगमन से उनका (भारतीयों का) जीवन सकारात्मक रूप से बदलेगा। स्वयं कर्जन साहब प्रजा के बीच आकर उनका दुःख तकलीफ कम करने का प्रयास करेंगे। वे लार्ड कर्जन को दूसरे विक्रमादित्य अथवा अकबर महान के रूप में देख रहे थे। शायद उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनके नए शासक (लार्ड कर्जन) का रंग-ढंग विक्रमादित्य अथवा अकबर जैसा नहीं है। उसका तो रंग ही विचित्र है। लेखक लार्ड कर्जन को संबोधित करते हुए आगे कहता है कि भारत की जलवायु और यहाँ के नमक की तासीर बड़ी अजीब है।
हिन्दुस्तान नमक से सींचा गया देश है। इस देश की जलवायु में जो आता है वही नमक बन जाता है। इस देश की इस विचित्र तासीर ने ही उनकी (लार्ड कर्जन की) स्मरण शक्ति को धो दिया है। वे अपने पिछले छः वर्ष के शासन काल को भूल गए है। यही कारण है कि उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में भारत आते ही कलकत्ता (कोलकाता) म्युनिसिपल कारपोरेशन की स्वाधीनता समाप्त कर दी है। उन्होंने अकाल पीड़ितों की ओर ध्यान न देकर दिल्ली दरबार किया है। यही नहीं उन्होंने यह भी घोषित कर दिया है कि देश में बहुत से पद ऐसे हैं, जिनको पैदाइशी तौर पर अंग्रेज ही पाने के योग्य हैं।
Asha Ka Ant Nibandh Ka Saar
लेखक स्पष्ट करता है कि भारत की जलवायु को वास्तव में वे (लार्ड कर्जन ) समझ नहीं पाए हैं। यह जलवायु विदेश में रहने पर भी उन पर अपना असर दिखाती रही है। यह जलवायु ही उन्हें पुनः यहाँ खींच लाई है। संभवतः नमक मिश्रित भारत की जलवायु ने ही उनकी विचार बुद्धि नष्ट कर दी है तथा उनकी दया और सहृदयता को भगा दिया है। इसी कारण वे खुल्लम-खुल्ला इस देश की निंदा कर रहे हैं।
हालांकि उनके पहले कार्यकाल को देखते हुए देश की जनता भी यह जानती थी कि यदि वे दोबारा यहाँ आए तो उन पर (भारतीयों पर) और अधिक अत्याचार होंगे। इसी से यहाँ के लोग चाहते थे कि वे (लार्ड कर्जन) यहाँ दोबारा न आएँ। परन्तु भारतीयों की यह इच्छा पूरी नहीं हुई। लेखक लार्ड कर्जन से कहता है कि उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में भारत आते ही अपनी धार्मिकता व अध्यात्मिकता का परिचय देने हेतु इस देश के लोगों को सभा में बुलाकर धूर्त और मक्कार कहना आरंभ कर दिया है तथा अपने देशवासियों को सत्यवादी कहा है।
हालांकि उनकी अपनी बात स्वयं उन पर ही चरितार्थ नहीं होती। उन्होंने पीड़ित भारतीयों को ठोकर लगाकर अपनी जिस सत्यवादिता का सबूत दिया है, वास्तव में वह सत्यवादिता नहीं है। चूंकि लार्ड कर्जन ने अपने शासक होने के विचार को भूलकर भारत के लोगों के हृदय में चोट पहुँचाई है, अतः लेखक उससे एक-दो बातें पूछने को अपनी गुस्ताखी नहीं मानता। वह उससे कहता है कि पराधीन भारतीयों की सत्यप्रियता विजेता अंग्रेजों की सत्यप्रियता का मुकाबला वैसे ही नहीं कर सकती जैसे जब इंग्लैण्ड दूसरे देशों के अधीन था।
तब वहाँ के निवासियों की नैतिक दशा उन पर अधिकार करने वाले देश के लोगों की नैतिक दशा का मुकाबला नहीं कर सकती थी। यदि आज इंग्लैण्ड दस वर्ष किसी का गुलाम हो जाए तो पता चले कि वहाँ के लोग कैसे सत्यवादी और कैसे नीतिपरायण हैं। बेशक लार्ड कर्जन के लिए भारत योग्य भूमि है परन्तु इस देश के लाखों आदमी आवारा कुत्तों की भाँति भटक भटक कर मर रहे हैं। हालांकि इस देश के लोग अपनी दशा के लिए अपने भाग्य को ही दोष देते हैं, शासक को कुछ नहीं कहते परन्तु अफसोस कि लार्ड कर्जन जैसे शासक भारतीयों को धूर्त कहते हैं। लेखक लाई कर्जन से कहता है कि उसने कभी भी गरीबी, भुखमरी से पीड़ित प्रजा की दशा का विचार नहीं किया हैं। यहाँ तक कि उसने कभी भारतीयों को उत्साहजनक बात भी नहीं कही है, उलटे गालियाँ ही दी हैं।
इस देश के लोग इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के सदय व्यवहार से कभी-कभी अपनी पराधीनता का दुःख भुला बैठते हैं परन्तु आप उन्हीं महारानी के पुत्र एडवर्ड के प्रतिनिधि होकर इस देश की प्रजा में अत्यन्त अप्रिय बने हुए हैं। यह इस देश के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। विडंबना यह है कि आप इस देश को नहीं चाहते और इस देश की प्रजा आपको नहीं चाहती परन्तु फिर भी आप इस देश के दूसरी बार शासक बनकर आए हैं।
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