आज़ादी की लड़ाई निबंध का सार
प्रेमचन्द पराधीन भारत के रचनाकार थे। उन्होंने पराधीन भारत में अंग्रेजों की क्रूरताओं को नजदीक से देखा और झेला था। तत्कालीन समाज में स्वाधीनता संग्राम के आन्दोलनों का जिक्र करते हुए मुंशी प्रेमचन्द कहते हैं कि महात्मा गांधी की दांडी यात्रा एक अभूतपूर्व घटना थी। 6 अप्रैल को दांडी यात्रा की शुरुआत हुई और इस अभूतपूर्व घटना ने सारे देश को झकझोर दिया। अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र में आज़ादी की लहर दौड़ गई। तानाशाह ब्रिटिश शासन ने इस राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए डंडों और गोलियों का भरपूर प्रयोग किया तथा नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। देश में उठी लहर को अंग्रेजों ने शान्त करने का भरसक प्रयास किया। परंतु लेखक और कांग्रेस सज्जनों को इसका अभ्यास पहले ही था। वस्तुतः ब्रिटिश शासन की कायरता, नीचता तथा निर्दयता आदि क्रूरताओं का अनुमान सम्पूर्ण राष्ट्र को हो गया। यह दमन चक्र ब्रिटिश शासन के भीतर डर एवं बौखलाहट को प्रदर्शित कर रहा था।
महात्मा गांधी जी के प्रयास से नमक कर टूट गया। नमक-कर का विरोध करके महात्मा गांधी जी ने अंग्रेजों को करारी टक्कर दी। सम्पूर्ण भारतीय जनता ने महात्मा गांधी को सहयोग दिया। नमक कर एक ऐसा कानून था जो आम आदमी का जीना दूभर कर रहा था। अंग्रेजों द्वारा लगाया गया नमक कर उसकी सामान्य कीमत से भी अधिक था। गांधी जी ने जनता का आह्वान किया कि हम अपने-अपने घरों में नमक बनाना उतना ही जरूरी समझ लें, जितना भोजन बनाना और सरकारी कारखानों में बना नमक खाना छोड़ दें। नमक-कर को हटाने के आन्दोलन ने सभी दलों को एक बार फिर एकत्र कर दिया। नरम एवं गरम दल फिर एक दूसरे के नजदीक हो रहे थे। बीच-बीच में यह आवाज भी आ रही थी कि मुसलमान कांग्रेस के साथ नहीं हैं। मुंशी प्रेमचन्द जी कहते हैं कि मालूम नहीं, वह यह कह कह कर किसे धोखा देना चाहते है। हाँ, हम यह मानने को तैयार हैं कि हमारे खान बहादुर साहवान, जिनकी संख्या ईश्वर की दया से, अंग्रेजों की असीम कृपा होने पर भी बहुत ज्यादा नहीं है यों कहिए कि यह उन लोगों का आन्दोलन है, जो अपने सारे संकटों का मोचन एक मात्र स्वराज्य को समझते हैं। गरीब, भूखे, दलित जो देश के स्वाभिमानी हैं यह देखकर उनका खून खीलने लगता है कि कोई दूसरा हमारे ऊपर शासन क्यों करे।
पराधीनता न हिन्दू जनता की कैद है, न मुसलमानों की बल्कि सभी इस दुःख को झेल रहे हैं। अतः हिन्दू और मुसलमान दोनों इस आन्दोलन में शामिल हैं। दो-चार कठमुल्लाओं के इशारे पर पूरी कौम अपने पथ से विचलित नहीं हो सकती। अंग्रेजों के चमचे फिर वे चाहें हिन्दू हों या मुसलमान जिन्हें अपने जीवन निर्माण के लिए अपने ऊपर भरोसा नहीं। ऐसे लोग स्वाधीनता संग्राम में भाग न भी लेते तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे गुलाम प्रवृत्ति के लोग हमेशा रहेंगे और उनके रहने से किसी आन्दोलन का नाश नहीं हो सकता। हाँ, हमें फूट डालने वालों से सतर्क रहना होगा अन्यथा हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर भड़काने वालों की कोई कमी नहीं है। लेखक अंग्रेजी शासन की आलोचना करते हुए कहते हैं कि अछूतों पर जितने अत्याचार हिन्दू समाज ने किये, उतने अंग्रेजी सरकार ने भी किये। सरकार ने उन पर सख्ती से बेगार बढ़ाया। परंतु अब हमें विश्वास है कि यह दलित समाज अब अंग्रेजों की चाल में नहीं फँसेगा और कट्टर हिन्दू भी इस दलित समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करेंगे।
Azadi Ki Ladai Nibandh Ka Saar
आज़ादी की लड़ाई में कौन आगे हैं? इस स्वाधीनता की लड़ाई ने विद्यार्थियों, वकीलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों का वास्तविक रूप दिखा दिया था। दूसरे देशों की स्वतन्त्रता की लड़ाई में छात्रों की एक अहम भूमिका होती थी, किन्तु इस देश में छात्र समुदाय अंग्रेजों की क्रूर नीतियों से पूरी तरह अवगत नहीं था। इस समुदाय में न उत्साह था, आत्म गौरव। वकील वर्ग तो बिल्कुल नदारद था जो अपनी जिम्मेवारी से बच रहा था। वह स्वदेशी और नमक आन्दोलनों से दूर भाग रहा था। स्वाधीनता की लड़ाई से उन्हें कोई सरोकार नहीं था। परंतु लेखक का विश्वास था कि जनता ऐसे देशद्रोहियों को माफ नहीं करेगी। दूसरे देशों के छात्र अपने प्राणों की बाजी लगाकर आज़ादी की लड़ाई में कूद गए थे परंतु यहाँ तो विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर भी इस चेतना से एकदम उदासीन थे। वस्तुतः विश्वविद्यालय शिक्षा नहीं प्रदान करता, बल्कि अंग्रेजों के गुलाम पैदा करने का एक कारखाना था। आँचलिक क्षेत्रों में इस आन्दोलन की चिंगारी का फैलना लाजमी था। नौकरशाही की सबसे बड़ी मार देहातों में पड़ रही थी। वस्तुतः स्वयंसेवक भारी संख्या में गाँवों में जाकर उन्हें महासागर में कूदने के लिए उत्साहित कर रहे थे। इसमें कोई दो राय नहीं थी कि नौकरशाही की दमनचक्की देहातों को अधिक पीसती थी, फिर भी आन्दोलन की सफलता और स्वराज्य की प्राप्ति के लिए गाँववासियों का साथ होना अति आवश्यक था।
भारतीय एकता के विरोधी सदा प्रयासरत रहते थे कि हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे से दूर रहें और स्वतन्त्रता संग्राम में मुसलमान कोई योगदान न दें बल्कि स्वतन्त्रता संग्राम में ये दोनों बिखर जायें। परंतु मुस्लिम जनता यह समझने लगी थी कि जब तक वे और हिन्दू एकजुट नहीं होंगे तब तक भारत में एकता का सूर्य उदय नहीं हो सकता तथा भारत सदैव गुलाम रहेगा। वस्तुतः ये दोनों कौमें अपने अपने हिस्से के लिए न लड़कर बल्कि देश के लिए लडे। हमें लाभ हानि के हिसाब से पहले पूँजी लगाने की जरूरत है। जब लाभ होगा तब हिस्से की बात शुरू होती है। महात्मा गांधी जी ने यहाँ तक कह दिया है मुसलमान जितना चाहें ले लें, इसमें हिस्से का सवाल नहीं उठता। अर्थात् स्वराज्य राजपद पाने और धन कमाने का साधन नहीं बल्कि प्रजा की सेवा करने का साधन होना चाहिए। जब स्वराज्य प्राप्त हो जाएगा वहाँ धनलोलुपों और विलासीजनों के लिए कोई स्थान न होगा, बल्कि देश उनका आदर करेगा जिन्होंने देश के लिए त्याग किया होगा।
मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार शान्ति स्थापित करने के लिए दो साधन हैं- एक मानवी और दूसरा दानवी। अंग्रेजी सरकार आज़ादी के आन्दोलन को दबाने के लिए दूसरा रास्ता अपनाती है। वह देश की जनता को रौंदने के लिए मशीनगन का प्रयोग करती है और मशीनगन चलाने के लिए उसके पास पुलिस और सेना भरपूर मात्रा में थी। देश में उठे आज़ादी के तूफान को रोकने के लिए अंग्रेजों ने बड़े नेताओं को जेल में बन्द कर दिया। बस उनकी नीतियों का विरोध करने के लिए गिने-चुने लोग ही रह गये थे। सरकार टैक्सों को दोगुना कर रही थी। ये थोड़े से हिन्दुस्तानियों को पद देकर अपनी तरफ मिला रहे थे।
समाचार पत्र बन्द कर दिये गये। परंतु इस दमन चक्र ने भारतीय शक्ति को अधिक मजबूत किया था। अंग्रेजी शासन पर यह कलंक था कि वे शक्ति को दबाने के लिए मशीनगन का प्रयोग कर रहे थे। परंतु जनता दोहरी शक्ति के साथ इस पशुबल से न डरकर बल्कि अंग्रेजों की जड़ें खोदने के लिए प्रयासरत थी। फलस्वरूप नमक कानून टूटा और सरकार की मशीनगन वे बारूद हो गयी। आम जनता पर चलायी गई गोलियाँ उनके पतन की आवाज बुलन्द कर रही थीं। अन्ततः अब अंग्रेजी शासन के दिन थोड़े थे।
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