गांधी युग का साहित्य 1920 से लेकर 1947 तक : यथार्थ और की अभिव्यक्ति

गांधी युग का साहित्य

गांधी युग का साहित्य / Gandhi Yug Ka Sahitya : सन 1920 से लेकर सन 1947 तक के साहित्यिक काल-खंड को हमने गांधी-युग कहा है। इस युग में हमारे स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व जिन नेताओं ने किया उनमें गांधी अग्रगण्य एवं सर्वाधिक मान्य हैं। 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और दुर्भाग्य से उसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त किया, किंतु सत्ता के भागीदार नहीं हुए।

पराधीन भारत में उन्होंने स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। वे विवेच्य युग के इतिहास-पुरुष एवं संघर्ष-नायक हैं। इस युग का साहित्य प्रधान रूप से इसी ऐतिहासिक संघर्ष की वाणी है। गांधी इकहरे राजनीतिज्ञ नहीं थे। वे राजनीति को धर्म और संस्कृति से अलग नहीं रखते थे। उन्होंने हिंदी प्रचार आंदोलन में अन्यतम योगदान किया। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर हम इस काल-खंड को गांधी-युग कहना उचित समझते हैं।

1914 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे। महात्मा गांधी के कारण स्वाधीनता आंदोलन देश के कोने-कोने में पहुँचा। अब राजनीति केवल गोष्ठी की बात नहीं रह गई। वह जन-सामान्य तक पहुँची और अखिल भारतीय बनी। यह गांधी जी का महान योगदान था। इसके कारण स्वाधीनता आंदोलन भक्ति आंदोलन जैसा लोकोन्मुख एवं अखिल भारतीय आंदोलन बना।

स्वाधीनता आंदोलन का लक्ष्य लौकिक, अधिक मूर्त एवं जन-सामान्य के जीवन से अधिक संबद्ध था, इसलिए वह भक्ति आंदोलन से भी अधिक जीवंत बना। गांधी जी केवल राजनीति की बात नहीं करते थे, वे समग्र जीवन पर दृष्टिपात करते थे। इसलिए उनका प्रभाव राजनीति के अतिरिक्त वैचारिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों पर भी पड़ा। 1917 में रूस की अक्तूबर क्रांति का भारतीय नेताओं ने स्वागत किया। इस क्रांति का गंभीर प्रभाव जन-मानस पर पड़ा।

1918 से लेकर 1947 तक का समय राजनीतिक संघर्ष के अभूतपूर्व रूप में तीव्र होने का समय है। इस काल में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन ने विदेशी स्वतंत्रता था, आंदोलनों से भी संबंध जोड़ा। अधिकांश देशी रियासतों के शासकों को छोड़कर भारतीय जनता के सभी वर्गों का हित ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खदेड़ देने में इसलिए वे सब स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हुए। इसीलिए स्वाधीनता संग्राम में गुणात्मक परिवर्तन आया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने उसी मात्रा में दमन चक्र भी तेज किया। 1919 में जलियाँवाला बाग की घटना हुई। देश के औद्योगिक नगरों में हड़तालें होने लगीं। 1921 के आसपास उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में किसान आंदोलन तीव्र हुआ। इसी वर्ष सुदूर दक्षिण में मोपला विद्रोह हुआ।

उधर पंजाब में भी सिख किसान आंदोलन की राह पकड़ रहे थे। 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी स्थापित हुई। कांग्रेस के समाजवादी दल का प्रादुर्भाव हुआ जिसके नेता जवाहरलाल नेहरू थे। 1929 में लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के अध्यक्ष की हैसियत से पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य घोषित किया। भारतीय राजनीति में किसान-मजदूरों के संगठन पर बल देनेवाला वामपंथ प्रभावशाली और मज़बूत होता जा रहा था। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन, आजाद हिंद फ़ौज का संघर्ष, 1946 में नौसेना-विद्रोह और विश्वयुद्ध के उपरांत समाजवादी शक्तियों का बढ़ता हुआ प्रभाव, इन सब के परिणामस्वरूप 1947 में भारत स्वाधीन हुआ।

इसका यह अर्थ नहीं कि प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ इस बीच सक्रिय नहीं थीं। यहाँ प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ सांप्रदायिकता का सहारा लेती थीं। उनके कारण भारत का विभाजन हुआ और गांधी जी की हत्या हुई ।

इसका प्रभाव हमारे साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक था। इस दौर में हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि हुई। जिस प्रकार भक्ति आंदोलन ने हिंदी को कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा जैसे रचनाकार दिए, उसी प्रकार स्वाधीनता आंदोलन की देन प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, निराला, प्रसाद, पंत और महादेवी वर्मा हैं।

स्वाधीनता का लक्ष्य इस युग में अधिक स्पष्ट हुआ, वैज्ञानिक दृष्टि अधिक सक्रिय हुई। इस दौर में फ्रायड के मनोविश्लेषण (Psycho-analysis) का प्रभाव भी रचनाकारों पर पड़ा। अतः इस काल में रचित साहित्य पर इन सभी विचारों का प्रभाव मिलता है। इस कारण साहित्य में जहाँ एक ओर यथार्थ को परखने की दृष्टि आई, वहीं दूसरी ओर कल्पना-प्रवणता अवलोकित हुई। वैज्ञानिक दृष्टि स्वाधीन चेतना से मिलकर यथार्थपरक और कल्पनाशील हुई।

यथार्थपरकता और कल्पनाशीलता ऊपर-ऊपर से ही परस्पर-विरोधी लगती हैं। वैज्ञानिक विकास जब ज्ञान के नए क्षितिज खोलता है, तो मनुष्य इस ज्ञान के आलोक में जीवन-जगत का नया परिचय प्राप्त करता है, वह इन्हें पहले से अधिक समझता है। यह यथार्थ की बेहतर परख हुई। लेकिन यहीं नई जानकारी उसे कल्पना के पंख भी प्रदान करती है। स्वाधीन चेतना केवल राजनीति के ही क्षेत्र में सक्रिय नहीं होती, वह दृष्टि-चिंतन और भाव-क्षेत्र को भी नई संभावनाओं की ओर उन्मुख करती है। कल्पना भाव-जगत को पुनर्व्यवस्थित करती है। पं. रामचंद्र शुक्ल ने इसी बात की ओर संकेत करते हुए लिखा- “ज्ञान के साथ भावना का भी विकास होता है।”

इस काल के साहित्य में यथार्थ का आग्रह और कल्पना का उपयोग, दोनों दिखलाई पड़ते हैं। यथार्थ-आग्रह प्रधानतः कथा साहित्य में और कल्पना-प्रवणता काव्य के क्षेत्र में दिखलाई पड़ती है। कथा साहित्य में भी कल्पना-प्रवणता है। प्रेमचंद में यथार्थवाद के साथ आदर्श और स्वच्छंदतावादी रुझान भी है। निराला, प्रसाद, पंत आदि के काव्य में यथार्थवादी रंग भी हैं। महादेवी की करुणा का संबंध यथार्थ की विषमता से है, जो खुलकर उनके रेखाचित्रों में प्रकट हुई।

स्वाधीनता आंदोलन स्वाधीन मानसिकता के बिना असंभव था। 1918 से 1947 तक का युग जिस प्रकार अपने यथार्थ से विक्षुब्ध था, उसी प्रकार एक स्वप्न भी निर्मित कर रहा था। आशा-आकांक्षा के स्वप्नलोक के बिना संघर्ष नहीं हो सकता। इसीलिए भारत अपनी पराधीनता के यथार्थ से उबरने और स्वाधीनता के स्वप्न की पूर्ति के लिए संघर्षरत था। पराधीनता हमारा राष्ट्रीय कलंक थी और स्वाधीनता हमारा राष्ट्रीय स्वप्न। यथार्थ और आदर्श इस एक ऐतिहासिक स्थिति के ही दो पहलू थे। इसीलिए इस दौर के साहित्य में ये दोनों साहित्य के प्रेरक हैं। यथार्थ-चित्रण के लिए सबसे समर्थ विधा उपन्यास ही थी। वह प्रेमचंद के उपन्यासों में चरमोत्कर्ष पर पहुँची।

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