कबीर की सामाजिक चेतना | कबीर के सामाजिक सरोकार। कबीर का सामाजिक चिंतन

कबीरदास मध्यकाल के एक महान् सन्त, समाज सुधारक, दार्शनिक तथा कवि हैं। उनका जीवन-वृत्त अनेक किंवदन्तियों से घिरा है। ब्राह्मण घर में जन्म लेने के बावजूद मुस्लिम जुलाहा दम्पत्ति के यहाँ उनका पालन-पोषण हुआ। उनकी लोई नाम की पत्नी तथा कमाल, कमाली (पुत्र व पुत्री) का भी उल्लेख मिलता है।

उन्होंने अपने जीवनकाल का अधिकांश समय काशी में व्यतीत किया। लेकिन अन्त समय में ये काशी छोड़कर मगहर चले गए। उनके लिए काशी और मगहर में कोई अन्तर नहीं था। इस संदर्भ में उनका एक दोहा भी है-

जो कासी तन तजहि कबीरा, तो रामहि कौन निहोरा।
क्या कासी क्या मगहर, ऊसर हिरदे राम जो होई।।

कबीरदास ने स्वयं को न तो हिन्दू न ही मुसलमान कहा है। यही कारण है उनके अनुयायियों में सभी 1 धर्मो के लोग हैं। जब कबीरदास का निधन हुआ तो उनके शव को लेकर हिन्दू व मुसलमानों में वैचारिक मतभेद भी हुआ। वस्तुतः कबीरदास एक सजग सामाजिक चेतना के कवि थे। लेकिन कबीर पन्थियों ने उन्हें दिव्य पुरुष प्रमाणित करने का प्रयत्न किया और कबीर सम्प्रदाय को जन्म दे दिया। परन्तु कबीरदास का यह उद्देश्य कदापि नहीं था। वे तो आजीवन धार्मिक कर्मकाण्डों, जातीय संकीर्णता और मिथ्याचार का विरोध करते रहे। कबीरदास ने घोषणा भी की :-

कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लकुटिया हाथ।
जो पर फेंके आपना, चले हमारे साथ ।।

1. क्रान्तिकारी युगद्रष्टा

कबीरदास एक क्रान्तिकारी युगद्रष्टा थे। उन्होंने तत्कालीन संकीर्ण, राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक वातावरण में नवीन सामाजिक सिद्धान्तों का श्रीगणेश करने का प्रयत्न किया। उन्होंने परम्पराओं का खण्डन करते हुए समाज में परिवर्तन की धारा को प्रवाहित किया। उन्होंने मध्यकालीन भारतीय समाज में नवीन क्रान्ति उत्पन्न की। उन्होंने सामाजिक विषमता को अन्याय घोषित किया और ज्ञान के द्वारा लोगों में सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत किया। वे सच्चे जनवादी कवि थे और जनता की भावनाओं तथा आकांक्षाओं को भली प्रकार समझते थे। अतः उन्होंने जन भाषा का सहारा लेते हुए समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों के कारण ही है क्रान्तिकारी कवि बन सके। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में :-

“सन्त कबीर की गणना उन इने गिने महान् पुरुषों में निस्सन्देह की जा सकती है, जिन्होंने अपने समसामयिक समाज की गतिविधियों को भली भांति परखना तथा उसे आवश्यक मोड़ देना अपना परम कर्तव्य समझा। इसलिए उनको अपने समाज के अन्तर्गत चाहे पर्याप्त योग्यता अर्जित करने का कभी समुचित अवसर न मिला हो, वे इस कारण कभी विचलित व हताश नहीं हुए। उनके पास आत्मबल या और दुर्दम्य साहस था, जिस कारण उन्होंने विपथ पर चलने व भटकने वालों को, चाहे वे किसी भी उच्च स्तरीय वर्ग के क्यों न रहे हों, अपनी भूलों पर एक बार दृष्टिपात करने के लिए सजग कर देना चाहा। ऐसा करते समय उन्होंने किसी भी वर्ग विशेष का पक्ष नहीं लिया और न ही कोई पक्षपातपूर्ण प्रहार किया। यदि उन्होंने कभी कोई शब्द किसी उपदेश के रूप में कहा, उस दशा में भी उन्होंने बराबर यही चेष्टा की कि जिस किसी के प्रति ऐसा कहा जा रहा है, वह उसकी अपने अनुभव द्वारा स्वयं जांच पड़ताल कर ले।”

कबीरदास भक्तिकाल के सर्वाधिक प्रासंगिक कवि थे। उनकी यह प्रासंगिकता आज भी उपयोगी है। उन्होंने मध्यकालीन, सामन्ती समाज के प्रति अपना आक्रोश निर्भय होकर तीखे शब्दों में व्यक्त किया। यही कारण है कि हरिशंकर परसाई कबीर को प्रेरणा पुरुष कहते हैं। एक तरफ तो कबीर का स्वर विद्रोही है तो दूसरी ओर परब्रह्म के प्रति उनका अनन्य समर्पण है। इसीलिए कबीर की विशिष्ट पहचान है।

2. कबीर पूर्व सामाजिक चेतना

जब हम कबीर पूर्वकाल के बारे में सोचते हैं तो हमें पता चलता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म के काल में ही सामाजिक चेतना का विकास होने लगा था। ब्राह्मण धर्म की वर्णव्यवस्था, आत्मवाद, आस्तिकता आदि को चुनौती मिलने लगी थी। परन्तु शीघ्र ही ये धर्म विभाजन के शिकार बन गए। बौद्धों से प्रभावित होकर सिद्ध और नाथ साहित्य ने नई आचार संहिता बनाने का प्रयास किया। इन्होंने जहाँ एक और निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना पर बल दिया, वहीं दूसरी ओर आचरण के प्रति आग्रह को व्यक्त किया। यही नहीं इन कवियों ने जनभाषा की ठेठ शब्दावली में जनसाधारण को सम्बोधित किया। अन्य शब्दों में, हम कह सकते हैं कि सिद्धों व नाथों की कविता अभिजात्यवाद से मुक्ति की कविता है। यही परम्परा हमें कबीर में देखने को मिलती है। यह एक प्रामाणिक सत्य है कि कबीरदास सिद्धों व नाथों से अत्यधिक प्रभावित हैं। समाज के प्रति उनकी गहरी चिन्ता थी और इस चिन्ता से मुक्त होने के लिए वे बड़ी ईमानदारी के समाज की विसंगतियों का पर्दाफाश करते हैं। कबीरदास विद्वान् होने का दावा नहीं करते, ये तो बड़ी विनम्रता साथ कहते हैं कि उन्होंने मसि, कागज को छुआ तक नहीं और न ही हाथ में कलम पकड़ी है, उन्हें तो देखी पर विश्वास है। आचरण पक्ष में उनकी अटूट आस्था है। 

वे कहते हैं-

पोथी पछि पदि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कबीरदास की सामाजिक चेतना पूर्ववत बौद्ध, जैन, सिद्धों और नाथों प्रभावित है। कबीरदास ने अनुभव किया कि पुरोहितवाद अहंकार का प्रतीक बन चुका है। एक ओर तो हिन्दू धर्म अनेक जातियों में विभक्त हो चुका था, दूसरी और हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य भी उत्पन्न हो चुका था। कबीर कि अब कविता का कर्म अभिव्यक्ति के क्षेत्र का विषय नहीं रहा। बल्कि अब तो कविता को सामाजिक स्कृतिक दायित्वों का निर्वाह करना है। इसलिए कबीर ने अपनी वाणी में सामाजिक चेतना को मुखरित किया। 

3. एक यथार्थवादी एवं सजग कवि

कबीरदास में अदम्य आत्म विश्वास था। ये जिस जमीन पर खड़े मजबूत थी, उसका मानवीय आधार ठोस था। जुलाहा वर्ग से आए इस विद्रोही कवि के पास न केवल ही थी बल्कि निर्भयता की पूँजी भी थी। वे सजग यथार्थवादी कवि होने के कारण हिन्दुओं और मानों दोनों को खरी-खोटी सुनाते थे :-

अरे इन दुहनु न राह न पाई।
हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर सुवन न देई।
बेस्या के पाइन तर सोवे यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर औलिया मुर्गी मुर्गा खाइ।
खाला केरी बेटी ब्याहँ घरहि में करे सगाई ।
बाहर से इक मुर्दा लाये पोय पाय चढ़वाई।
सब सखियाँ जवन बैठी घर भर करे बड़ाई ।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, कौन राह है जाई।

कबीर ने समाज में प्रचलित परम्परागत रूढ़ियों, विविध कर्मकाण्डों तथा पडे, मुल्लाओं के व्यक्तिगत दुर्गुणों को कठोर निन्दा की। परन्तु उनका लक्ष्य था आदर्श समाज की रचना करना। इसीलिए वे आजीवन सामाजिक समस्याओं से जूझते रहे। सामाजिक प्रगति के लिए वे सदैव प्रयास करते । उन्होंने निरपेक्ष सत्य की अभिव्यक्ति को उनकी दृष्टि में कविता का लक्ष्य है-मानव मात्र का कल्याण करना। इसीलिए उन्होंने कहा भी है- 

हरि जी यह विचारिया, साथी कही कबीर।
भी सागर में जीव है, जो कोई पकड़े तीर।।

4. व्यक्ति और समाज का समन्वय

कबीर ने अपने देश और काल को सामने रखकर व्यष्टि और समष्टि की गहराइयों में प्रवेश करके जो अनुभूतियाँ प्रस्तुत की हैं, उन्हीं में व्यक्ति और समाज का ‘अन्दर-बाहर अभिव्यंजित हुआ है। वे समाज की खबर लेते समय व्यक्ति के अन्तर को भी खोजते रहे। उन्होंने व्यक्ति और समाज के हृदय और आचरण में समन्वय न देखकर जो विद्रोहपूर्ण व्यंग्य प्रहार किये हैं। वे एक और सामाजिक, कमजोरियों को व्यक्त करते हैं, दूसरी ओर धार्मिक व्यक्तियों के दम्भ और छद्म की धज्जियाँ उड़ाकर व्यक्ति और समाज के प्रतिशोध का ही प्रयत्न करते हैं।

संत का उद्देश्य समाज सुधार न हो तो भी उनकी वाणी में समाज सुधार की प्रेरणा रहती है। उनका आचार लोक को आचारवान बनाता है। उनका आचरण किसी खास समाज या देशकाल के लिए न होकर सार्वकालिक और सार्वदेशिक होता है। इसीलिए संत कबीर ने अहिंसा, सत्य और शांति पर बल दिया। जब वे दोनों सम्प्रदायों की निंदा करते हैं तो उसके पीछे केवल यही भाव होता है कि बाहरी आचरण में आने वाले तत्त्वों को भीतरी शांति, अहिंसा और सत्य से जोड़े रखना चाहिए। भीतर को शुद्ध रखकर ही बाहर को शुद्ध रखा जा सकता है।

जब वे कहते हैं कि ‘दड़िया बढ़ाई जोगी, होइ गइले बकरा, ‘ तो इसका अर्थ मात्र इतना है कि दादी का भीतरी शुद्धता से संबंध होना चाहिए। इसीलिए पहले कहते हैं, “मन न रंगाये, रंगायो जोगी कपरा।” मूल है मन रंगना अर्थात् मन का परिवर्तन। मन परिवर्तन की बात गीता में भी कही गई, बुद्ध ने कही, संत कबीर भी कहते हैं-“चंचल मनुवा चेतरे, सोबे कहा अजान।” संतों ने अपने मन को सुधारा था, इसी संदर्भ में कबीर निक का महत्त्व स्वीकारते हैं–“बिन पाणी सावन बिना निर्मल करे सुभाइ ।” व्यक्ति मन का सुधार ही समाज है। 

नारी का विरोध उन्होंने माया और कामिनी के रूप में ही किया है, लेकिन ‘पतिव्रता के रूप पर वारों कोटि सरूप’ कहकर पतिव्रत की सराहना की है। माँ, सती, बहन, नारी आदि के प्रति उन्होंने आदर भाव प्रकट किया है। 

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5. वर्णाश्रम धर्म तथा कर्मकाण्डों का खण्डन

कबीर ने देखा था कि सामाजिक विषमता का मूल कारण विभिन्न धर्मग्रन्थों के प्रति अंधविश्वास है। अतः उन्होंने पुस्तकीय ज्ञान का खण्डन और अनुभूति मूलक सत्य का मण्डन किया है। 

“तू कहता कागद की लेखी में कहता आंखन की देखी।”

इन विभिन्न धर्मग्रन्थों के आधार पर बनीं वर्णव्यवस्था भी कबीर के अनुसार विश्वसनीय नहीं थीं। जहाँ ब्राह्मण चाहे जितना दुराचारी हो सम्माननीय था, दलित चाहे जितना सदाबारी हो नीच समझा जाता था। कबीर ने व्यक्ति की उच्चता का आधार सदाचार और साधना को माना न कि उनके जन्म कुल को। उन्होंने पंडितों को ललकारा – 

वेद पुराण पढ़त अस पांडे, खर चंदन जस भारा।
रामनाम तत समझत नाहीं, अंत पड़े मुख छारा।।
जीव बघत अरु धरम कहत हो अपरम कहो है भाई।
आपन तो मुनिजन है बैठे कालनि कहाँ कसाई ।।

उच्च कुलाभिमानी ब्राह्मणों को अकाट्य तर्क देते हुए उन्होंने कहा-

जे तु बामन बाम्हनी का जाया।
आन राह ते काहे न आया।

इस प्रकार, ये कहते हैं कि यदि तुक अन्य लोगों से अलग होते तो माँ के गर्भ में ही उनका खतना हो गया होता :-

जे तू तुरक तुरकनी जाया, तो भीतर खतना क्यूँ न कराया।

उन्हें जहाँ कहीं भी विषमता दिखाई दी उनके व्यंग्य बाण निकल पड़े। उन्होंने देखा था कि काजी कुरान में उलझकर जीवन की वास्तविकता से परिचित नहीं होते अतः उन्हें फटकारते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दू और मुसलमान दो भिन्न धर्म कहाँ से आये ?

वस्तुतः कबीर मनुष्य को एक मानते थे वे जात-पात, कुल-वंश, रक्त-नस्ल के आधार पर मनुष्य अन्तर करने के विरुद्ध थे।

ऊँचे कुल का जनमिया जे करणी ऊँच न होय ।
सीवन कलस सुरे भरया साधू निंया सोई।।

उनका स्पष्ट विचार था कि-

अध्यक्ष अल्ला नूर उपाया कुदरत के सब बंदे।
एक नूर ते सब जग कीओ, कौन भले कौन मदे।।

इस स्तर पर भी कबीर के विरोध का प्रेरणा स्रोत आध्यात्मिक सत्य ही है। वे भेदभाव का विरोध इसलिए करते थे कि ये तत्वतः मिथ्या हैं वे कहते हैं कि एक ज्योति में सब व्याप्त है, दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं :-

एकहि जोति सकत हरि व्यापक, दूजा घट न कोई।
कहे कबीर सुनो रे सन्तो, भटक भरि जनि कोई।।

6. ब्रह्मचारों तथा आडम्बरों का विरोध

कबीर की समाज चेतना तत्कालीन समाज की जर्जर अवस्था को अभिव्यक्ति के लिए तड़प उठी। उन्होंने एक-एक कर समस्त आडम्बरमूलक प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने किया। कबीर के विचार से दोनों धर्मावलम्बियों के आडम्बर और बाह्याचार समाप्त हो जाएँ तो मारा। हो जाए। इन दोनों ही जातियों में धार्मिक आहम्बर और कर्मकाण्ड व्यापक रूप ले चुका था। अतः धार्मिक आडम्बरों की खिल्ली उड़ायी है। उन्होंने हिन्दुओं के उपवास करने, माला फेरने, तीर्थ स्थान एक मूर्तिपूजा इत्यादि को पाखण्ड कहा।

माला फेरने से परमात्मा मिलता तो रहट को भगवान क्यों नहीं। भाला पहाँ हरि मिले, तो अरहट के गति देष।’

यदि तीयों में स्नान करने का महत्त्व है तो के जल में निवास करने वाले मेंढक क्यों नहीं मुक्त हो जाते? मूर्तिपूजा की भी कबीर ने खुलकर निंदा क्योंकि पत्थर की मूर्तियों तो जन्मभर उत्तर नहीं देतीं। हिन्दू जीवित पिता की सेवा नहीं करते किंतु मृत्यु पिण्डदान देते हैं। यह ढोंग नहीं तो क्या है ?

‘जीवित पित्र के बोलें अपराध, पूर्वी पीछे देहि सराध।”

कबीर ने हिन्दुओं में प्रचलित समस्त रूढ़िगत धारणाओं और बाह्याचारों पर कुठाराघात किया है।

वे सारे औपचारिक कर्म विधान जिनके मूल में कोई तत्त्व नहीं है कबीर के लिए व्यर्थ है। गोरखनाथ कबीर का श्रद्धाभाव था लेकिन ढोंगी गोरखपंथियों की भी उन्होंने खबर ली है कि शरीर को योगी बना है किंतु मन को वश में नहीं कर पाते।

“तन को जोगी सब करें मनको बिरला कोई, सब सिथि सहजै पाइये जोगी होई।”

उन्होंने जितने विस्तार से हिन्दू धर्म से सम्बन्धित सम्प्रदायों के बाह्याचारों की कटु आलोचना  है उतनी ही इस्लाम और उसके सम्प्रदायों की भी की है। मुल्ला को कहते हैं कि वह बहरा नहीं है कि जिसे अन्न करने के लिए बांग देता है। कबीर मुसलमानों की हिंसात्मक मनोवृत्ति पर तरस खाते हुए कहते हैं कि जिस माता का दूध पीते हैं न जाने उसकी हत्या क्यों करते हैं-

“दिन में रोजा रखत है राति हनत है गाय ?”

सात गुजारना या हज और काबे जाना तभी सार्थक है जब दिल में कपट नहीं है-

“दिल महि कपट, निवा मारे, क्या हज काबे जाएँ?”

कबीर ने पंडित और मुल्ला दोनों को अज्ञानी कहा क्योंकि ये दोनों धर्म के नाम पर समाज में पाखण्ड फैलाकर सामाजिक भेदभाव की दीवारें खड़ी कर रहे थे।

तात्पर्य यह है कि कबीर ने जहाँ कहीं ढोंग, दिखावा, कपट, आडम्बर, स्वांग, छल-छम देखा वही निर्भय देकर प्रहार किया। पण्डित हो या मौलवी, गुरु हो या पीर योगी हो या फकीर यदि वे सत्य मार्ग से अलग है हे कबीर ने उसे चेतावनी दी है, व्यंग्य और उपहास किया है। इन सबके पीछे उनका उद्देश्य धार्मिक भूतों का परिकार ही था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है-

“शास्त्रीय आतंकवाल को छिन्न करके और लोकाचार के जंजाल को ढहाकर वे सहज ही सत्य तक पहुँच सके थे। इसमें कोई संदेह नहीं।”

7. आदर्शवादी समाज की स्थापना का लक्ष्य

कबीरदास सामाजिक दीन-हीनता के कारण काफी दुःखी थे। सारा संसार हंसी खुशी सोता था। लेकिन कबीरदास जाग जाग कर रोते थे। एक स्थल पर तो ये कहते भी है-

सुखिया सब संसार है, खाबे और सोदे।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे।।

उन्होंने अपने ज्ञान चक्षुओं के द्वारा समाज के प्रत्येक वर्ग, धर्म और सम्प्रदाय को यहाँ तक कि समूची जाति को बाहर और भीतर से देखा था। उन्हें एक ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, जिसके कारण वे यह अनुभव करने लगे कि सभी मनुष्यों में एक ही ईश्वर का वास है। वह घट-घट में निवास करता है। एक स्थल पर वे कहते भी हैं-

एकमेक रमि रह्या सबनि में तो काहे भरमावी।

उन्हें लगा राम रहीम एक ही है। इसलिए उन्होंने हिन्दू, मुसलमानों दोनों को निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति करने की सलाह दी। इस संदर्भ में उन्होंने कहा भी है-

एक ज्योति से सब जग उपन्या, को वामन को सूदा।

वे सत्संग द्वारा सामाजिक एकता की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने केवल मानव-मानव में तात्विक दृष्टि से अभेद बताकर वर्ग, जाति और सम्प्रदाय के भेदभाव को दूर करने का संदेश ही नहीं दिया, पैसा आपण भी किया। मानव जाति की समता और एकता उनका समाज दर्शन था। इसीलिए उन्होंने मानव समाज में भेद उत्पन्न करने वाले बाह्याडम्बरों, सम्प्रदायों, रूढ़ियों और अंध विश्वासों के प्रति कठोर रूख अपनाया। उनकी बा और कर्म का एक ही प्रधान स्वर था कि हम सब हरि की निर्मल ज्योति के स्फुलिंग है।

वे समाज रचना के लिए किसी प्रकार के सुधारवादी आंदोलन के पुरस्कर्ता न होकर आत्मा की मुक्ति के लिए आध्यात्मिक संघर्ष करने वाले साधक थे। उनका लक्ष्य मात्र जाति, धर्म, वेद, कुरान, अनैतिक कर्म की निंदा करना ही नहीं था बल्कि वह ऐसा समाज चाहते थे जिसमें मनुष्य महत्त्वपूर्ण हो। समाज के सहायक उपकरण धर्म, साहित्य, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि सभी मनुष्य मात्र की सेवा में प्रस्तुत हो। धर्म और राजनीति के दाम ने तत्कालीन समाज का खण्डन कबीर ने इसी उद्देश्य से किया था। उनके मन में ऐसे आदर्शवादी समाज की परिकल्पना थी जिसमें सभी समान व सुखी हों। इसीलिए उन्होंने मुनष्य धर्म पर नए सिरे से चिंतन किया, परम्परागत पाखण्डपूर्ण धार्मिक सिद्धान्तों का डटकर विरोध किया और मनुष्य को सहज मार्ग पर चलने का निर्दे दिया। उनके विचार में सारी नैतिकता व आध्यात्मिकता समाज-सुधार के लिए आवश्यक है। समाज में आजीविका के लिए उद्योग करना, दूसरों पर यथाशक्ति उपकार करना, जीवन में सत्य आचरण और अहिंमा का पालन करना उनके समाज दर्शन का लक्ष्य था। मनुष्य मात्र पारस्परिक प्रेम और सामूहिक संगठन में परम आनन्द का अनुभव करे, यही उनके ईश्वर प्रेम और सत्संगति के संदेश का मर्म है।

उनका विद्रोही समाज दर्शन बाह्य जीवन को नैतिक सदाचार की मर्यादा में बाँधने वाला, उसके मन का परिष्कार करने वाला और उसकी आत्मा को विश्वात्मा में लय करके उसे सच्चे मानवधर्म की ऊँचाई तक पहुँचाने वाला है। कबीर के विद्रोही विचारों ने तत्कालीन समाज को मर्यादा प्रदान की, तामसिकता को सात्विकता में बद की कोशिश की, मोहान्धता को ज्ञान का प्रकाश दिखाया और दुराचरण को सदाचरण में परिवर्तित करने का प्रयास किया।

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