प्रयोजनमूलक हिन्दी की परिभाषा
मानव जाति द्वारा अपने भावों और विचारों को प्रकट करने के लिए अनेक साधनों का प्रयोग किया जाता है। भाषा उनमें श्रेष्ठ साधन है। भाषा मानव जीवन में विशेष स्थान रखती है, क्योंकि भाषा के बिना मानव का जीवन बड़ा ही जटिल बन जाता है। भाषा मानव द्वारा अर्जित संस्कारों में एक ऐसा संस्कार है जिसे वह जन्म से प्राप्त नहीं करता, बल्कि जिस समुदाय में वह रहता है, उसी से वह भाषा अर्जित करता है। भाषा के बिना तो मानव सम्प्रदाय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भाषा वह है जो बोली जाती है और विशेष मानव समुदाय में समझी जाती है।
आज के वैज्ञानिक युग में नये-नये आविष्कारों ने मानवीय जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया है। आज ज्ञान, विज्ञान, समाज, संस्कृति, शिक्षा, उद्योग आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हो चुका है। फलस्वरूप भाषा में भी निरन्तर नए-नए शब्दों का निर्माण हो रहा है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानव ने अपनी भाषा को अपने नवीन ज्ञान के अनुकूल बना लिया है। यह आवश्यक भी है, क्योंकि एक विकसित भाषा ही समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है। इसी को हम भाषा की प्रयोजनमूलकता कह सकते हैं अर्थात् भाषा अपने प्रयोजन को पूर्ण करने में समर्थ हो, यही उसकी प्रयोजनमूलकता कहलाएगी।
भाषा का एक रूप वह है जिसे हम सामान्य बोलचाल की भाषा कह सकते हैं। भाषा का दूसरा रूप साहित्य निर्माण में प्रयुक्त होता है। एक सफल साहित्यकार परिष्कृत भाषा का प्रयोग करके अपनी साहित्यिक रचना प्रस्तुत करता है। काव्य नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि सभी विधाएँ साहित्यिक भाषा में लिखी जाती हैं। लेकिन भाषा का एक तीसरा रूप भी है जिसका प्रयोग ज्ञान-विज्ञान, व्यापार-उद्योग आदि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में होता है। भाषा का यह तीसरा रूप सामान्य बोलचाल की भाषा तथा साहित्यिक भाषा दोनों से भिन्न प्रकार का होता है।
इस भाषा को विद्वानों ने व्यावहारिक हिन्दी अथवा कामकाजी हिन्दी आदि नाम दिए हैं। आजकल इसे प्रयोजनमूलक हिन्दी भी कहा जाता है। प्रयोजनमूलक हिन्दी शब्द अंग्रेजी के Functional Hindi का हिन्दी रूपान्तरण है। इसमें प्रयोजनमूलक शब्द व्याख्या सापेक्ष है। यह प्रयोजन और मूलक दो शब्दों के जुड़ने से बना है। इसका अर्थ यह है कि भाषा का किसी प्रयोजन से जुड़ा हुआ होना।
डॉ. नरेश मिश्र ने प्रयोजनमूलक भाषा को परिभाषित करते हुए लिखा है- “भाषा का वह विशिष्ट रूप जो मनुष्य के ज्ञान विज्ञान से सम्बन्धित विविध संदर्भों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है, उसे प्रयोजनमूलक भाषा कहते हैं।”
यही परिभाषा प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा पर भी लागू हो सकती है अर्थात् हिन्दी भाषा का वह विशेष रूप जो मानव के ज्ञान-विज्ञान, व्यापार, उद्योग आदि संदर्भों को अभिव्यक्ति प्रदान करें, उसे हम प्रयोजनमूलक हिन्दी कह सकते हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय तक हमारी हिन्दी बोलचाल और साहित्यिक निर्माण तक ही सीमित थी। लेकिन धीरे-धीरे समाज के विकास के साथ-साथ हिन्दी भाषा में भी परिवर्तन होने लगा। जब से संविधान ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया, तब से हिन्दी में नए-नए शब्दों का आगमन शुरू हो गया। एक अनुमान के अनुसार हिन्दी भाषा में एक लाख से अधिक नए शब्द सम्मिलित गए हैं। आज विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये आविष्कार हो रहे हैं। व्यवसाय, विज्ञान, तकनीकी, संचार, सम्पर्क आदि विभिन्न क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।
अतः विभिन्न क्षेत्रों की भाषिक आवश्यकताओं के अनुसार नई-नई शब्दावली का निर्माण हो रहा है और यह आवश्यक भी है। असंख्य तकनीकी शब्दावली कोश प्रकाशित हो चुके हैं। ताकि हमारी हिन्दी भाषा प्रयोजनमूलक भाषा के संदर्भ में समर्थ हो सके। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ज्ञान-विज्ञान, वाणिज्य, व्यापार, तकनीकी, संचार आदि विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी भाषा के प्रयोग सम्बन्धी जो विकास हो रहा है उसी को हम प्रयोजनमूलक हिन्दी कह सकते हैं। यहाँ पर यह बता देना आवश्यक है कि प्रयोजनमूलक हिन्दी साहित्यिक हिन्दी और सामान्य बोलचाल की हिन्दी से सर्वथा अलग है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रवृत्तियाँ / विशेषताएँ
1. उपयोगिता
प्रयोजनमूलक हिन्दी किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होती है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिए ही प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रयोग होता है। आज विज्ञान की प्रगति के कारण ज्ञान के क्षेत्र में नये-नये विषय हमारे समक्ष उपस्थित हो रहे हैं। कम्प्यूटर, व्यवसाय, वाणिज्य, बैंकिंग, न्याय, विधि, इंजीनियरी, तकनीकी आदि विभिन्न क्षेत्रों की जानकारी के लिए तदानुकूल भाषा की भी आवश्यकता बढ़ती जा रही है।
विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग शब्दावली का प्रयोग होने लगा है। अतः प्रयोजनमूलक हिन्दी की उपयोगिता का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक हो चुका है। आने वाले समय में इसकी आवश्यकता और अधिक बढ़ने की सम्भावना है। भले ही वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन-अध्यापन के लिए अंग्रेजी का अधिक प्रयोग हो रहा है, लेकिन एक वैज्ञानिक भी अपने साथियों के साथ मातृभाषा (हिन्दी) में ही विचार-विमर्श करता है। अतः प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रयोजनीयता स्वतः बढ़ जाती है।
2. प्रयोजन के अनुसार शब्दार्थ में भिन्नता
प्रयोजनमूलक भाषा में संदर्भ के अनुसार ही शब्दार्थ में परिवर्तन हो जाता है। प्रयोजनिक स्वरूप की विविधता सर्वत्र देखी जा सकती है। उदाहरण के रूप में ‘गौ’ शब्द के गाय, पृथ्वी, किरण आदि अनेक अर्थ निकलते हैं। यह शब्द प्रयोजन या सन्दर्भ की विविधता के कारण भिन्न-भिन्न अर्थ प्रदान करता है। जब हम ‘सवत्सा गौ’ का प्रयोग करते हैं तो यह प्रयोजन सर्वथा बदल जाता है और पृथ्वी, किरण आदि अर्थों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम इसका अर्थ ‘गाय’ ही मान लेते हैं क्योंकि वत्स (बछड़े) का सम्बन्ध गाय से होता है।
3. मानकीकरण
जिस प्रकार साहित्यिक के क्षेत्र में हिन्दी भाषा का मानकीकरण कर लिया गया है उसी प्रकार प्रयोजनमूलक हिन्दी का भी मानकीकरण कर लेना जरूरी है। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी शब्दावली का अधिकाधिक प्रयोग हो रहा है। वैसे तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही अनेक तकनीक शब्दकोश तैयार किए गए लेकिन शब्दों का मानकीकरण नहीं हो सका।आज आवश्यकता इस बात की है कि प्रयोजनमूलक हिन्दी की उपयोगिता को मध्य नजर रखते हुए एक ऐसी परिभाषिक शब्दावली का निर्माण किया जाना चाहिए जिसका प्रयोग विभिन्न वैज्ञानिक विषयों के लिए हो सके।
हमारा मानव संसाधन विकास मंत्रालय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली का मानकीकरण करने में काफी उपयोगी कार्य कर रहा है। इस कार्य के लिए संस्कृत भाषा की अत्यधिक सहायता ली जा सकती है और कुछ अंग्रेजी शब्दों को ज्यों का त्यों स्वीकार किया जा सकता है। यदि प्रयोजनमूलक हिन्दी का मानक रूप समुचित तरीके से विकसित कर लिया जाए तो यह आने वाले समय में वैज्ञानिक विकास के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होगी।
4. भाषागत सरलता
यह सर्वविदित है कि वैज्ञानिक विकास के कारण सभी क्षेत्रों में निरन्तर प्रगति हो रही है। आज नए-नए अनुसंधान हो रहे हैं और नए-नए उत्पादकों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस विकास के साथ-साथ प्रयोजनमूलक हिन्दी का विकास भी नितान्त आवश्यक है। क्योंकि वैज्ञानिक और तकनीकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भाषा की बहुत बड़ी भूमिका रहती है।
विदेशी भाषा से परिचित व्यक्ति तो अपनी भाषा में ही आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान को जान सकता है। ऐसी स्थिति में विदेशी भाषा और विदेशी शब्दावली को प्रयोजनमूलक हिन्दी द्वारा ही लोगों के समक्ष रखा जा सकता है । परन्तु यह भाषा सहज, सरल और स्पष्ट होनी चाहिए। जहां तक हो सके पारिभाषिक शब्दावली के भी सरलतम रूप का प्रयोग करना चाहिए। इस दिशा में प्रयोजनमूलक हिन्दी की भूमिका विशेष महत्व रखती है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में प्रयोजनमूलक हिन्दी और उसकी संरचना प्रक्रिया का समुचित विकास करने की आवश्यकता है। प्रयोजकमूलक हिन्दी एक अलग विषय के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, ताकि ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित क्षेत्रों की समुचित जानकारी लोगों को प्राप्त हो सके।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना उचित होगा कि आज कम्प्यूटर प्रणाली का अत्यधिक विकास हो चुका है। एक सामान्य पाठक भी कम्प्यूटर का ज्ञान प्राप्त कर चुका है। हमारे जीवन में वैज्ञानिकता का अत्यधिक समावेश होता जा रहा है। अतः हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रयोजनमूलक हिन्दी द्वारा ही हो सकती है।